1. उम्मीद की उपज उठो वत्स! भोर से ही जिंदगी का बोझ ढोना किसान होने की पहली शर्त है धान उगा प्राण उगा मुस्कान उगी पहचान उगी और उग रही उम्मीद की किरण सुबह सुबह हमारे छोटे हो रहे खेत से....! 2. उर्वी की ऊर्जा उम्मीद का उत्सव है उक्ति-युक्ति उछल-कूद रही है उपज के ऊपर उर है उर्वर घास के पास बैठी ऊढ़ा उठ कर ऊन बुन रही है उमंग चुह रही है ऊख ओस बटोर रही है उषा उल्का गिरती है उत्तर में अंदर से बाहर आता है अक्षर ऊसर में स्वर उगाने उद्भावना उड़ती है हवा में उर्वी की ऊर्जा उपेक्षित की भरती है उदर उद्देश्य है साफ ऊष्मा देती है उपहार में उजाला अंधेरे से है उम्मीद। 3. जनतंत्र की जिह्वा मेह से नहीं देह से होती है - बारिश प्रतिदिन आत्मा डूबती है बालुओं के बाढ़ में आह! नदी की भीतरी सीन मीन तड़पती है बिन विश्राम पानी में सर्प बाज़ार में बजती है बीन कान खड़े कर लो रेगिस्तानी राही अक्सर अग्नि का लाल आलपीन चुभता है पैरों में और आँखों में तिन भरी दोपहरी में (आँधी-तूफ़ान-लूँ चल रही है) सड़क पर मरे हुए सड़े हुए ऊँटों से उठ रही है गंध नाक छोटी कर लो त्वचा काँप रही है गर्म हवा के स्पर्श से जाड़े के अभिनंदन में जनतंत्र की जिह्वा ले रही है बुरे समय का स्वाद। 4. मौन के विरुद्ध मंत्र दूर की दुर्गंध सूँघ लेती है नाक झाँक आँखों में लगती है आँसू टप टप टपकता है जिह्वा जानती है- स्वाद जिन्दगी का जंग है-तीखा! कान काटता है कौन हाशिए के हँसिए को पता है मौन गर्भवती है आख़िरी आवाज़ तुम्हारे विरुद्धजन्म लेगी चीख मिर्च और प्याज़ से- सीख मौन के विरुद्ध- मंत्र लिखा! 5. सब ठीक होगा धैर्य अस्वस्थ है रिश्तों की रस्सी से बाँधी जा रही है राय दुविधा दूर हुई कठिन काल में कवि का कथन कृपा है सब ठीक होगा अशेष शुभकामनाएं प्रेम ,स्नेह व सहानुभूति सक्रिय हैं जीवन की पाठशाला में बुरे दिन व्यर्थ नहीं हुए कोठरी में कैद कोविद ने दिया अंधेरे में गाने के लिए रौशनी का गीत आँधी-तूफ़ान का मौसम है खुले में दीपक का बुझना तय है अक्सर ऐसे ही समय में संसदीय सड़क पर शब्दों के छाते उलट जाते हैं और छड़ी फिसल जाती है अचानक आदमी गिर जाता है वह देखता है जब आँखें खोल कर तब किले की ओर बीमारी की बिजली चमक रही होती है और आश्वासन के आवाज़ कान में सुनाई देती है गिरा हुआ आदमी खुद खड़ा होता है और अपनी पूरी ताकत के साथ शेष सफर के लिए निकल पड़ता है। 6. मौन के मैदान में मैराथन कोविड के कोच साहब! मौन के मैदान में मैराथन है चीख दौड़ रही है पूरी ताकत से उम्मीद के नाक से स्वास ले रहे हैं कवि-कोविद शहर से संवेदना के शब्द हो रहे हैं गायब गंवई हवा खो रही है गंध चरवाहे की चेतना चलना चाहती है चालीस कोस और पैदल पर पथ में पशु-पथिक थउस गए हैं भूख से और प्यास से सूख गए हैं सारे पेड़ सामने खड़े हैं जंगल के राजा शेर लोमड़ी पढ़ रही है आश्वासन के पत्र अपने आश्वासन के आरोही क्रम में प्रासाद से पेट तक की यात्रा निश्चित है पहले उसे ही राहतकोष दिया जाएगा जो सबसे कमजोर होगा पारी-पारा प्रत्येक को प्रवेश करना है गुफे में चीखने की आवाज़ आ रही है संकट के सन्नाटे में डरा है शेर चीख कहीं जीत न जाए मैराथन!

गोलेंद्र पटेल
गोलेंद्र पटेल चंदौली, उत्तर प्रदेश से हैं. आप इन दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक (हिंदी) अंतिम वर्ष के छात्र हैं. आपसे corojivi@gmail.com पे बात की जा सकती है.