लिखती हुई औरतें

इन दिनों झुंड में बैठकर जंतसार गाते हुए तुम्हारे पोथी-पतरा, वेद-पुराण को धता बताकर धर्म की चौखट लाँघ लिख रही हैं औरतें वे लिखती हैं प्रेम वे लिखती हैं विरह वे लिखती

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जो मार खा रोईं नहीं

तिलक मार्ग थाने के सामने जो बिजली का एक बड़ा बक्स है उसके पीछे नाली पर बनी झुग्गी का वाक़या है यह चालीस के क़रीब उम्र का बाप सूखी साँवली लंबी-सी काया

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चोरी

प्रेम इस तरह किया जाए कि प्रेम शब्द का कभी ज़िक्र तक न हो चूमा इस तरह जाए कि होंठ हमेशा ग़फ़लत में रहें तुमने चूमा या मेरे ही निचले होंठ ने

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नकली कवियों की वसुंधरा

धन्य यह वसुंधरा! मुख में इतनी सारी नदियों का झाग, केशों में अंधकार! एक अंतहीन प्रसव-पीड़ा में पड़ी हुई पल-पल मनुष्य उगल रही है, नगर फेंक रही है, बिलों से मनुष्य निकल

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आँखिन देखी

आँखें तो देख ही लेती हैं औपचारिकता में छुपी हिंसा को, बेरुखी का हल्का से हल्का रंग पकड़ लेती है आँख फिर भी बैठे रहना पड़ता है खिसियानी मुस्की लिए, छल-कपट ईर्ष्या

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मन लाग्यो मेरो यार

मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥ जो सुख पाऊँ राम भजन में सो सुख नाहिं अमीरी में मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥ भला बुरा सब का सुनलीजै कर गुजरान गरीबी में

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डायरी लिखना

डायरी लिखना एक कवि के लिए सबसे मुश्किल काम है। कवि जब भी अपने समय के बारे में डायरी लिखना शुरू करता है अरबी कवि समीह-अल-कासिम की तरह लिखने लगता है कि

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इस स्त्री से डरो

यह स्त्री सब कुछ जानती है पिंजरे के बारे में जाल के बारे में यंत्रणागृहों के बारे में। उससे पूछो पिंजरे के बारे में पूछो वह बताती है नीले अनन्त विस्तार में

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इस बहरे वक़्त में

खेलते हुए अन्य बच्चों के साथ अपने साथ हो रहे खेड़ी का विरोध कर रहा है मेरा बेटा चिल्ला-चिल्लाकर काफ़ी कर्कश लग रही है आवाज़ उसकी बार-बार जाने को होता हूँ तैयार

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