तुमने छोड़ा शहर

1 min read

तुम ने छोड़ा शहर
धूप दुबली हुई
पीलिया हो गया है अमलतास को

बीच में जो हमारे ये दीवार थी
पारदर्शी इसे वक्त ने कर दिया
शब्द तुम ले चली गुनगुनाते हुए
मैं संभाले रहा रिक्त ये हाशिया

तुमने छोड़ा शहर
तम हुआ चम्पई
नींद आती नहीं है हरी घास को

अश्वरथ से उतर कर रुका द्वार पर
पत्र अनगिन लिए सूर्य का डाकिया
फिर मेरा नाम ले कर पुकारा मुझे
दूरियों के नियम फेंक कर चल दिया

तुम ने छोड़ा शहर
उड़ रही है रुई
ढक रहे फूल सेमल के आकाश को

दौड़ता ही रहा अनवरत मैं यहाँ
तितलियों जैसे क्षण हाथ आए नहीं
जिन्दगी का उजाला छिपा ही रहा
दिन ने मुख से अधेंरे हटाए नहीं

तुमने छोड़ा शहर
याद बन कर जूही
फिर से महका रही घर की वातास को

भीड़ के इस समन्दर में हम अजनबी
एक अदृश्य बंधन में बंध कर रहे
जंगलों में रहे, पर्वतों में रहे
हम जहाँ भी रहे कोरे कागज रहे

तुमने छोड़ा शहर
नाव तट से खुली
शंख देखा किए रेत की प्यास को

कुमार शिव

कुमार शिव मूलतः कोटा, राजस्थान से हैं और हिंदी कविता के पुरोधाओं में से एक हैं.

नवीनतम

मेरे मन का ख़याल

कितना ख़याल रखा है मैंने अपनी देह का सजती-सँवरती हूँ कहीं मोटी न हो जाऊँ खाती

तब भी प्यार किया

मेरे बालों में रूसियाँ थीं तब भी उसने मुझे प्यार किया मेरी काँखों से आ रही

फूल झरे

फूल झरे जोगिन के द्वार हरी-हरी अँजुरी में भर-भर के प्रीत नई रात करे चाँद की

पाप

पाप करना पाप नहीं पाप की बात करना पाप है पाप करने वाले नहीं डरते पाप