घर से भागी हुई लड़कियाँ

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(एक )

हौव्वा नहीं होतीं
घर से भागी हुई लड़कियाँ

पहनतीं हैं पूरे कपड़े
संभाल के रखती हैं ख़ुद को
एक करवट में गुजारी रात के बाद
सुबह अँधेरे पिता को प्रणाम करती हैं
माँ के पैरों को देख आँसू बहाती हैं
गली के आखिरी मोड़ तक मुड़ मुड़ कर देखती हैं दरवाज़ा
घर के देवता को सौंप आती हैं मिन्नतें अपनी

प्रेयस को देख मुस्कुराती हैं घर से भागी हुई लड़कियाँ
विश्वास से कंधे पर रख देती हैं सर अपना
मजबूत होने का नाटक करती
पकड़ती हैं हथेली ऐसे
जैसे थाम रखा हो पिता ने नन्ही कलाई उसकी
और सड़क पार कर जाती हैं

नए घर के कच्चे मुंडेर से रोज आवाज़ लगाती हैं भागी हुई लड़कियाँ
वहीं रोप देती हैं एक तुलसी बिरवा
रोज रोज संभालती गृहस्थी अपनी
कौवों को फेंकती हैं रोटी
माँ से सुख दुःख की बातें
चिड़ियों को सुनाती हैं

फफक कर रो देती हैं घर से भागी हुई लड़कियाँ
घर से भागी हुई लड़कियाँ
हौव्वा नहीं होती !

(दो )

माँ की बातों की गिरह नहीं खोल पाती
घर से भागी हुई लड़कियाँ

सजा आँखों में मोटा काजल
लहराकर बाल काँधे तक
पति को खूब लुभाती हैं
जता मनुहार पलकों से
बचपन की लोरी गुनगुनाती हैं
माँ को नहीं था पसंद काजल
नहीं वह भूल पाती हैं
देर रात अकेले में
आईने को देख आँखें तरेर
मौन क्रंदन साट
आँखों का काजल छुड़ाती हैं भागी हुई लड़कियाँ

खुले बालों पर
आँखें दिखाती थी माँ
बालों को कसकर बाँध लेती हैं
‘अच्छी लड़की’ सी सकुचाई
आँचल से पूरी छाती ढँक
सिसकती हुई रोज सोने जाती हैं भागी हुई लड़कियाँ

माँ को भुलाने
खुद को माँ बनाती हैं
एक दो तीन चार
पूरा बचपन दोहराती हैं
पुरानी साड़ी का बिछौना बनाती ज़ार ज़ार रोती हैं
माँ को तब भी कहाँ भूल पाती हैं भागी हुई लड़कियाँ

बातों की गिरह में कैद
घर से भागी हुई लड़कियाँ !

( तीन )

रात को चौंक कर उठती हैं
ढूंढती पिय का पता
उसका उपनाम पुकारती हैं
बच्चे को भींच कर खुद से सटा लेती हैं
अपने ही घर में डरती हैं खुद से
रूहों की तरह कमरों में भटकती हैं
कोने में अपने होने का अर्थ ढूंढती हैं भागी हुई लड़कियाँ

बीते वर्षों में चीजें कहाँ संभल पायी
चुप्पियों और खीझों से नहीं उबर पायी
मकान जो घर नहीं बन पाया
उस घर का बोझ कंधे पर उठाती हैं भागी हुई लड़कियाँ
आँखों से घबराती होठों से सायास मुस्काती हैं
घर से भागी हुई लड़कियाँ

घर से टूटी हुई लड़की सड़कों पर भटकती है
प्रेम के शब्द पर खुलकर बरसती है
नहीं देख पाती अपने पैरों की जमीन
आसमान में दूर उड़ जाना चाहती है
एक आभासी दुनिया बसाना चाहती है
घर से फिर भाग जाना चाहती हैं भागी हुई लड़कियाँ

एक छल पुरुष होता है वहीं
प्रेम की शक्ल में शब्दों के जाल बुनता हुआ
माँ की नसीहतें भूल जाती हैं फिर से
घर की दहलीज फिर लांघ आती हैं
जाल में फंसी चिड़ियों सी फड़फड़ाती हैं
दूसरी बार मुक्तिगान गुनगुनाती
चूहों के लौटने की राह तकती हैं भागी हुई लड़कियाँ
खूब रोती सिसकती हैं भागी हुई लड़कियाँ

गंगाजल से स्नान कर
ख़ुद के पैरों में बेड़ियाँ पहनाती हैं भागी हुई लड़कियाँ
बसा लेती है घर के अन्दर अपना छोटा सा घर
हर बात पर अब खूब मुस्काती है भागी हुई लड़कियाँ

भागी हुई लड़कियाँ रुक जाने का हुनर सीख लेती हैं !

शायक आलोक

शायक आलोक हिंदी के अग्रणी कवियों में चर्चित नाम हैं. आपकी कविताएँ, लेख व् अनुवाद देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं. आपसे shayak.alok.journo@gmail.com पर बात की जा सकती है.

शायक आलोक हिंदी के अग्रणी कवियों में चर्चित नाम हैं. आपकी कविताएँ, लेख व् अनुवाद देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं. आपसे shayak.alok.journo@gmail.com पर बात की जा सकती है.

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