तुम्हें उदास सा पाता हूँ मैं कई दिन से न जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम वो शोख़ियाँ वो तबस्सुम वो क़हक़हे न रहे हर एक चीज़ को हसरत से
तुम्हें ढोना है समय का भार, थोड़ी सी चाल तेज करो थोड़ी और तेज, और तेज यार, थोड़ी सी चाल तेज करो हाथ जो मिला था इन्कलाब के लिये, कुर्सी के लिए
Moreतुम ने छोड़ा शहर धूप दुबली हुई पीलिया हो गया है अमलतास को बीच में जो हमारे ये दीवार थी पारदर्शी इसे वक्त ने कर दिया शब्द तुम ले चली गुनगुनाते हुए
Moreमेरे रब की मुझ पर इनायत हुई कहूँ भी तो कैसे इबादत हुई हक़ीक़त हुई जैसे मुझ पर अयाँ अलम बन गया है ख़ुदा की जुबां मुख़ातिब है बंदे से परवरदिगार तू
Moreस्वप्न में तुम हो तुम्हीं हो जागरण में कब उजाले में मुझे कुछ और भाया, कब अंधेरे ने तुम्हें मुझसे छिपाया, तुम निशा में औ’ तुम्हीं प्रात: किरण में; स्वप्न में तुम
Moreनावों ने नदियों का साथ कभी नहीं छोड़ा बेतवा को अमावस में जब पार किया तो जान पड़ी बिल्कुल अकेली एक छोटी सी नाव नदी के साथ डोल रही थी आत्मा पर
Moreभाषा कई बार बिलकुल असहाय हो जाती है कभी-कभी ग़ैरज़रूरी और हास्यास्पद भी बिना बोले भी आख्यान रचा जा सकता है मौन संवाद का सर्वोत्तम तरीका है भाषा केवल शब्दों का समुच्चय
Moreसमझदार हैं बच्चे जिन्हें नहीं आता पढ़ना क, ख, ग हम सब पढ़कर कितने बेवकूफ़ बन चुके? यह समय और सत्ता दोनों ने बता दिया। बच्चे बेहतर है तुम स्याही का मतलब
Moreएक मित्र ने कहा, ‘आलोचना कभी भूखे पेट मत करना। आलोचना पेट से नहीं दिमाग से होनी चाहिए।’ आजादी के बाद देश के हुक्मरानों की कितनी आलोचनाओं को दिमाग वालों ने मारा,
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