भूख से आलोचना

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एक मित्र ने कहा, ‘आलोचना कभी भूखे पेट मत करना।
आलोचना पेट से नहीं दिमाग से होनी चाहिए।’
आजादी के बाद देश के हुक्मरानों की
कितनी आलोचनाओं को दिमाग वालों ने मारा,

क्या इसका हिसाब लगाना मुमकिन है?
और व्यवस्थाओं के शुरुआत से
सभ्यताओं में जितनी मौतें भूख से हुई
क्या उनके दिमाग में इतनी ताकत बची थी
कि वे उसकी आलोचना कर सकें
और उनके पेट की जरूरत क्या रही हर बार
भूख या आलोचना?

वे कहते हैं, ‘हम पढ़े-लिखे लोग हैं।
हम सोच-समझकर, जांच-परखकर, विचारधारा की कसौटी पर कसकर आलोचना करते हैं।’
क्या उनमें से किसी की मौत भूख से हुई है?
दिमाग वाले पढ़-लिखकर आलोचना करने वाले लोगों में से किसी की?

वे कहते हैं, ‘हम नेतृत्व करने वाले लोग हैं।
हम उनकी ओर से आलोचना करते हैं जिनकी मौत भूख से हुई।’
क्या उनमें से किसी ने भूख से मरने वाले के हलक के रूखेपन को महसूस किया है?
और उनकी आंखों में मौत से ठीक पहले के जीवन की चाह को?

वे कहते हैं, ‘हम भूखों को खाना और राशन मुहैया करवाते हैं।’
क्या उनमें से कोई खाना और राशन लेने वालों की कतारों में शामिल हुआ है?

हम समय के उस मोड़ पर खड़े हैं
जहाँ भूख सबसे केंद्रीय मुद्दा है
और इससे मरने वालों की तादाद इतनी अधिक है कि
इसपर कविता लिखना इस सभ्यता के मुंह पर स्याह धब्बा मालूम हो।

 

शशांक मुकुट शेखर
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शशांक मुकुट शेखर पूर्णिया से हैं और मौज़ूदा वक़्त के समर्थ व प्रतिभावान कवियों में से एक हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे sasdgreat@gmail.com पे बात की जा सकती है।

शशांक मुकुट शेखर पूर्णिया से हैं और मौज़ूदा वक़्त के समर्थ व प्रतिभावान कवियों में से एक हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे sasdgreat@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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