इन दिनों
जब समय इतना धीमा है
कि चीते की चाल घोंघे की मालूम हो
मैं हमारे बीच उन चंद पलों की तेजी को
अपनी सबसे ज्यादा तेज गति साबित करना चाहता हूँ
जब हमारे होठों की चपलता पृथ्वी की गति से तेज ना तो उसके बराबर थी
इस आवारा रात की गुनगुनी उदासी को लांघ
कहीं से भी आ जाओ
बस आ जाओ
ओस की एक बूंद के मानिंद ही सही
एकांत के पथिक
गुम हो जाएंगे उषा के तुरंत बाद
एक अज्ञातवास पर
लौटने की इच्छा किए बगैर
लौट आना अत्यंत कठिन होता है हर दफा
जाने और लौट आने के बीच का वक़्त
कठिनतम है पृथ्वी पर
इन दिनों जब सबकुछ इतना धीमा और निराश है
हमारे बीच के अविश्वास और दूरी की निराशा
निराशा जीवन की निरर्थकता की
और प्रेम के असफलता की
लौटना इतना ही कठिन है
जैसे सांस लेना
इन दिनों सबकुछ इतना निरर्थक
इतना नीरस
कि रह पाना ठीक वैसा है
कि जिंदा हैं और जीवन नहीं है
पड़ा रहना चाहता हूँ तुम्हारे भीतर
अलसुबह लालिमा से पहले अलसाए
दूब पर पड़ी ओस की बूंद की तरह
तुम आओ
और मुझे ऐसी नींद दो
जैसे सागर के गर्भ में पड़ी सीप में
पानी की एक बूंद।
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शशांक मुकुट शेखर
शशांक मुकुट शेखर पूर्णिया से हैं और मौज़ूदा वक़्त के समर्थ व प्रतिभावान कवियों में से एक हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे sasdgreat@gmail.com पे बात की जा सकती है।