साधारण डाक से भेजी गईं वे पत्रिकाएँ
जो कभी नहीं मिल पाती
उसे पढ़ने के लिए कौन रख लेता होगा
एक बार मेरा एक चेक डाल दिया गया था साधारण डाक में
तब मेरे बेरोज़गारी के दिन चल रहे थे
मैं रोज़ उसके आने की राह देखा करता
मैं भौंचक था कि मेरे नाम के उस तीन-सौ के चेक से
किसे हो गया है इतना प्यार
कि इतने बरस बीत गए
और मेरा इंतज़ार जारी है
एक साधारण डाक तीन साल बाद मिली तो ऐसा लगा
कि जैसे वह किसी की क़ैद में थी
और अदालत में तारीख़ चल रही थी उसकी
जब उसे निर्दोष करार दिया गया
वह भागी
और आकर मेरे दराज़ में छुप गई
वहाँ सुबकती रही घंटों
मैं किसी डाकिये को देखता हूँ
तो उसके चेहरे को निहारने लगता हूँ अपलक
वहाँ ढूँढता हूँ कोई ऐसा निशान
जो मुझ में उम्मीद जगाए
वहाँ एक कोरा कागज़ चिपका रहता है
कभी किसी ने बताया था मुझे
कि सबसे अधिक चिठ्ठियाँ साधारण होती हैं
और सबसे ज्यादा वही गुम होती हैं
उसी ने कहा था कि साधारण होने से गुम हो जाने का एक तार जुड़ा होता है
साधारण डाक का क़िस्सा
उसे साधारण आदमी के क़िस्से सा लगता था।

मिथिलेश कुमार राय
मिथिलेश कुमार राय सुपौल, बिहार से हैं और इन दिनों अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपका काव्य संग्रह धूप के लिए शुक्रिया का गीत तथा अन्य कविताएँ इन दिनों अपने पाठकों के बीच है। आपसे mithileshray82@gmail.com पे बात की जा सकती है।