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राहुल तोमर की कविताएँ

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1) किक्की के लिए

तुम्हें बढ़ते हुए देखने से ज़्यादा सुखद
मेरे लिए और कुछ नहीं
परन्तु तुम ऐसे वक़्त में बड़ी हो रही हो
मेरी बच्ची
जब मानवता की हांफनी छूटी जा रही है
और हर कोई यह सिद्ध करने में लगा है
कि मनुष्य के भीतर
पशुओं से ज़्यादा पशुता है
प्रेम के मोल में लगातार दर्ज की जा रही है गिरावट
और संवेदनशीलता हमारी वर्तनी से निरंतर
छिटकती जा रही है
सारी संवेदनाएं हाशिये पर धकेल दी गयी हैं
और मुख्य धारा में ध्वंस की प्रतियोगिताएँ जारी हैं
आँसू महज़ अभिनय के वक़्त निकल रहे हैं
ग्लिसरीन के सहारे से
और ह्रदय की सीमा रेखा तीव्र गति से
सिकुड़ती जा रही है
मैं नहीं जानता कि तुम्हारा करुण ह्रदय
इस क्रूर समय के लिए अभी तैयार है भी या नहीं
या कभी हो भी पाएगा।

पर इन सबसे परे
तुम बढ़ रही हो अपने सपनों और तमाम
इच्छाओं के साथ
और मैं तुम्हें देख रहा हूँ हँसती आँखों में
छिपी असुरक्षा की भीगी नज़रों से
साथ ही जैसे-तैसे पोस रहा हूँ अपने भीतर
उपजी उम्मीद की उस कोंपल को
जो फुसफुसा रही है
कि इस वक़्त से उलट तुम्हारे समय में
तुम बेफ़िक्री से देखोगी अपनी बच्ची को
बढ़ते हुए।

2) प्रतीक्षा

उसकी पसीजी हथेली स्थिर है
उसकी उंगलियां किसी
बेआवाज़ धुन पर थिरक रही हैं

उसका निचला होंठ
दांतों के बीच नींद का स्वांग भर
जागने को विकल लेटा हुआ है

उसके कान ढूँढ़ रहे हैं असंख्य
ध्वनियों के तुमुल में कोई
पहचानी सी आहट

उसकी आँखें खोज रही हैं
बेशुमार फैले संकेतों में
कोई मनचाहा सा इशारा

उसके तलवे तलाश रहे हैं
सैंकड़ों बेमतलब वज़हों में चलने का
कोई स्नेहिल सा कारण

वह बहुत शांति से साधे हुए है
अपने भीतर का कोलाहल
समेटे हुए अपना तिनका तिनका
प्रतीक्षा कर रही है किसी के आगमन पर
बिखरने की।

3) उम्मीद

उसने पढ़ा “दोज़ख”
और सोचा पृथ्वी के बारे में

उसने पढ़ा “सम्भावना”
और बनाई स्त्री की तस्वीर

कुछ इस तरह उसके भीतर बची रही
एक रोज़ धरती के स्वर्ग बनने की उम्मीद।

4) प्रश्न चिन्ह

बाथरूम के नलके से टपक रहा है पानी बूँद बूँद
प्लास्टिक की बाल्टी से उठती टकटक की ध्वनि
कुछ ही देर में हो जाएगी टपटप में परिवर्तित
तुम सुनोगे और सोचोगे कि कौन सा संगीत
था ज़्यादा बेहतर फिर इस प्रश्न की निरर्थकता
पर हंसोगे और करोगे अन्य कई निरर्थक
प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास
यह जानते हुए कि वहाँ भी हल की जगह आएगी
केवल हँसी

तुम्हारे पास प्रश्न बहुत हैं
इतने कि उत्तर के लिए आरक्षित जगह पर भी
उग आए हैं प्रश्न चिन्ह
तुम कामू का द्वार खटखटाते हो और उसके घर के भीतर
कुछ समय गुज़ारकर प्रश्नों को बस एब्सर्ड भर कहना सीख
पाते हो।
दर्शन के चूल्हे पर जीवन को चढ़ाते हो और
जीवन के पकने के इंतज़ार करते तुम पाते हो
जली हांडी में चिपका अंधकार
नीचे होम हो चुका सारा दर्शन और
हवा में गुल जीवन की सारी
परिभाषाएँ।

5) जीवन

जीवन चुप्पियों से की गई संधि
और कायरताओं से किया गया जुगाड़ रहा
अपराधबोध सदैव एक निश्चित दूरी पर रहा और
कभी पास भी आया तो मौसमी बुख़ार की मियाद से
ज़्यादा टिक नहीं पाया
सच कह देने की हूक पर डाले रहे चुप का कम्बल
ताकि खौफ़ की सर्दी बैठ न पाए पसलियों में
सारा तामझाम इसलिए कि कुछ वर्ष और
हवा ठीक से शरीर के अंदर बाहर होती रहे

जबकि हम जानते थे कि जीवन जीने के कई और कारण
हो सकते थे, होने चाहिए थे
जानते तो हम और भी बहुत कुछ थे
पर अफ़सोस.. जानना भर काफी नहीं होता।

6) टीस

मैं जुड़ना चाहता था जूड़े से फूल बनकर
मैं जुड़ना चाहता था सड़क से पहिया बनकर
मैं जुड़ना चाहता था धरती से पेड़ बनकर
मैं जुड़ना चाहता था अंतरिक्ष से तारे और आकाश से
चिड़िया बनकर
मैं चीज़ों से, लोगों से जुड़ना चाहता था
उन्हें और सुंदर करता हुआ
जबकि सब कुछ छूटता रहा
धीरे-धीरे
मुझे करता हुआ कुरूप।

7) राहत

पतलून की चोर जेब में
जैसे छिपा लेते हैं कुछ पैसे
जैसे गुल्लक में जमा कर लेते हैं
ख़राब वक़्त के लिए थोड़ा सा धन
वैसे ही जीवन में भी होनी
चाहिए कुछ जगहें जहाँ सहेज कर रखी जा सके
इतनी ख़ुशी कि बन सके उससे एक छतरी या एक
छोटी सी ओट जो दुखों की बरसात में दे सके
थोड़ी सी राहत।

8) नदी

नदी हमेशा रहती है
सूखने के बाद भी।

सूखने के पश्चात वह उन लोगों के
भीतर आत्मा की आवाज़ बनकर बहती है
जो उसे याद करके रोते हैं।

जो उसे भूल चुके हैं उनके भीतर वह बहती है
उस आवाज़ की अनुपस्थिति बनकर

राहुल तोमर

राहुल तोमर ग्वालियर, मध्यप्रदेश से हैं। आपकी रचनाएँ ही आपकी पहचान हैं। आपसे tomar.ihm@gmail.com पे बात की जा सकती है।

राहुल तोमर ग्वालियर, मध्यप्रदेश से हैं। आपकी रचनाएँ ही आपकी पहचान हैं। आपसे tomar.ihm@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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