1. प्रेमिकाएं मैं किसी से कैसे प्रेम करूँ? लगभग मेरी सभी प्रेमिकाओं ने मुझे निराश किया है अब तक सूखे मौसम की तरह! आकाश भर प्रेम के बदले दुनिया भर की टूटी हुई चीज़ें मसलन टूटा हुआ आसमान आधा-अधूरा चाँद और यक़ीन की मेज पर बेसिर-पैर की कहानियों का ज़खीरा! मैं अपनी प्रेमिकाओं को महसूस करता रहा समय की टहनी पर खिले कचनार में आँगन में उतरी धूप में गुलमोहर के नीचे बिछी छाँव में यहाँ तक कि शांति या शोरगुल के हर क्षणों में बारी-बारी मेरे साथ थीं मेरी प्रेमिकाएँ! मेरी प्रेमिकाएं चाहती थीं मैं बात करूँ उनसे बिना किसी माध्यम के लगातार फोन पर व्हाट्सएप्प या मैसेंजर पर जबकि मैं माध्यम बनाना चाहता था शान्त पानी में उतरे चाँद को अपनी कविताओं को और अपने मौन की मधुर भाषा को मेरी प्रेमिकाओं के लिये बेहूदा और बेकार की चीज़ें थीं यह सब! मैंने जब भी अपनी प्रेमिकाओं को छूना चाहा मेरी प्रेमिकाओं ने कहा-'नहीं' मैंने जब भी उन्हें चूमना चाहा मेरी प्रेमिकाओं ने कहा-'नहीं' मैंने जब भी सीने पर हाथ रखने का प्रस्ताव रखा मेरी प्रेमिकाओं ने मना कर दिया कुशलतापूर्वक एक सधी मुस्कान के साथ! मैं हमेशा अपनी प्रेमिकाओं को सम्बोधित करना चाहता था झंकृत कर देने वाले प्रेम के कुछ नये शब्दों से मगर मेरी प्रेमिकाएँ चाहती थीं मैं उन्हें उनके वास्तविक नाम से बुलाऊँ पता नहीं ऐसा क्यों था? मैनें अपनी प्रेमिकाओं से कहा मुझे तुम्हें झरोखे से देखना पसंद है प्रेमिकाओं ने कहा नहीं मुझे आलिंगन पसन्द है समुद्र और उसके तट जैसा वैसे मैं आजतक जान ही नहीं पाया प्रेम के इस गहरे रहस्य के बारे में! अब उँगली भर दुःख में डूबे हुये दिन के साथ बैठा सोच रहा हूँ मैं आख़िर मेरी प्रेमिकाएँ क्या चाहती थीं मुझसे? मैनें अपने कमरे की दीवार पर लिख रखा है "ओ मेरी निर्मम प्रेमिकाओं जहाँ कहीं भी हो कम से कम मेरा धन्यवाद तो कहो जो मैं तुम्हें प्रेम करते हुए भी प्रेम न सिखा सका!" 2. ओ बूढ़े कवि हारना मत एक बूढ़े कवि को ज़िंदा ही दफ़ना दिया गया है क़ैदखाने में दीवारें चाट रहीं हैं उसके शरीर का गीला नमक योजनाबद्ध तरीक़े से उसकी ज़मानत की जा रही है खारिज़ क्यों? आख़िर क्यों? क्योंकि सरकारें डरती हैं उस बूढ़े कवि से और क्रांति की तमाम कविताओं से! सत्ताधीशों को शिकायत है- बूढ़े कवि की साँसों में क्यों घुली है क्रांति उसकी रगों में क्यों दौड़ रहा है गाढ़ा लहू सत्ताधीश छीनना चाहते हैं उससे लिखने-पढ़ने की शक्ति उसकी याददाश्त को कर देना चाहते हैं क्षीण 'अर्बन नक्सल' कहकर बुझा देना चाहते हैं उसकी विचारधारा की प्रज्ज्वलित मशाल षड्यंत्रों से भरे काले-सफ़ेद आरोपपत्र बकवास हैं! प्रायोजित बकवास! ये सब इसलिये किया जा रहा है ताकि ठंडा पड़ जाय उसकी आँखों का आक्रोश धीरे-धीरे सड़ जायें उसकी आत्मा में उगने वाले शब्द उसकी मुस्कुराहट बदल जाय वेदना में वह चुप हो जाय और साथ ही तमाम साहित्यधर्मी और संस्कृतिकर्मी लोग क्योंकि कायर सरकारें डरती हैं इन सब से! मत हारना ओ बूढ़े कवि! ताने रहना अपनी मुट्ठी और वापस लौटना तो स्वाभिमान भरी अपनी इन्हीं मूँछों के साथ देखना है कब तक सलाखें कवच रहती हैं इन नाज़ायज़ सत्ताधीशों की ओ बूढ़े कवि तुम हारना मत! 3. नदी, बारिश और पुल ज़ोर से ठहाका लगाते हुये जाना ठहाका लगाने से आँखें भी हो जाती हैं भीतर से गीली- मन भी अंदर से हो जाता है भारी किसी नियत भाषा में ठहाका लगाने का नाम उदासी भी है शायद! उदासियाँ निरन्तर दर्ज हैं साँस दर साँस क़दम दर क़दम आदमी की हथेली पर लिखे संस्मरण में अंकित होता है उसका कौशल शुभ और अशुभ के बीच होते हुये सितारे पार करते हैं सीमारेखा सारी उदासियाँ हो जाती हैं रेत पर गिरकर जीवित! और तमाम इच्छाओं के बीच से बारिश के पानी सी होकर गुज़रती ज़िन्दगी बहुत कुछ गला देती है मसलन काग़ज़ पर लिखी वे इबारतें जो सूत्रवाक्य होती हैं और बहुत ज़रूरी भी बिल्कुल उफनायी नदी के पुल जैसी कितना गहरा सम्बन्ध है एक उदासी से इस नदी, बारिश और पुल का! 4. ख़ाली जगह फाँसी का एक फंदा बनाओ और डाल दो उसमें अपनी गर्दन तुम्हारे लटकते शरीर और ज़मीन के बीच जो मामूली सी जगह है वही ख़ाली जगह तुम्हारी क़ातिल है ढूँढो उस ख़ाली जगह को और भर दो अपनी ग़ैर मौजूदगी से! 5. सरकारी काम ख़बर है कि- रोपे गए थे नवां गाँव में कल जो सड़क किनारे पौधे उन्हें कौर कौर चर गयी देवल गाँव के घम्मू की बछिया कुछ पौधे उखाड़ ले गये फल जाँचने के लिये बच्चे कुछ पौधे बह गये पहली बारिश के साथ पर आँकड़ों के इस दौर में अगले बरस काग़ज़ में तैयार मिलेंगे सारे के सारे पौधे! ख़बर ये भी है- धन अवमुक्त हो चुका है पूरी राशि आवंटित हो चुकी है ठेकेदार की हथेली पर आ चुके हैं रुपयों के बंडल आधिकारी का हिस्सा पहुँच चुका है पेड़ लगने और गाय के चरने से पहले ही! 6. बस एक सवाल रोटी-रोज़ी-घर बस एक सवाल जो जायज़ भी है वाजिब भी पर ग़ायब है सवालों की टोकरी से पासबाँ की फ़ेहरिस्त से और वक़्त की सफ़ों से भी! आबोहवा में मौजूद गन्ध को कोई भाँप नहीं रहा स्त्रियाँ गा रही हैं घर के भीतर- बच्चे खेल रहे हैं खण्डहरनुमा हवेली में आदमी भविष्य की तहों से उधेड़ रहा है महीन धागे सदी का महानायक हँस रहा है रंगीन पर्दे पर और नायिकाएँ नृत्य कर रही हैं झूठ की रुपहली सलीबों पर! धरती से लिपटी पड़ी है अब तक की सबसे भयावह त्रासदी पीले हो रहे हैं ओक के पत्ते मुरझा रही है उम्मीद के ऊँचे दरख़्त की सबसे हरी पत्ती बह रही है धरती के ह्रदय से पीड़ाओं की लबालब नदी जिसमें हाथ धुल रहा है सुर्ख़ लाल सूरज फिर भी हम आहें बटोर रहे हैं दुहाई दे दे कर इंसाफ माँगती पनीली आँखों की! घने काले बादलों को बरस जाना चाहिये था अब तक पूरब से पश्चिम तक उत्तर से दख्खिन तक हर घर पर हर आँगन में हर दीवार पर बरस जाना चाहिए था हत्ता कि ज़र्रे ज़र्रे पर बरस जाना चाहिये था गोशे गोशे में बरस जाना चाहिये था ताकि कोई कह न सकता सवालिया निगाहों से इधर भी नज़रे करम इधर भी नज़रे इनायत!

आलम आज़ाद
आलम आज़ाद प्रतापगढ़, उत्तरप्रदेश से हैं और इन दिनों वहाँ नावेल इंटरनेशनल स्कूल एवम् गर्ल्स कॉलेज में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत हैं. आपकी रचनायें समय-समय पर आकाशवाणी इलाहाबाद से प्रसारित होती रहती हैं. आपसे alamazad9200@gmail.com पे बात की जा सकती है.