कविताएँ : आसित आदित्य

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1. तुम्हें सौगंध है, मेरे क़ातिल 

प्रेम करने के लिए नादान होना
उतना ही है आवश्यक जितना कि
जीवित रहने के लिए उम्मीद का होना।

तुम्हारे खंजर से टपकते
मेरे लहू की सौगंध है तुम्हें, मेरे क़ातिल
मेरे क़त्ल की कहानी को तुम
अपने विश्वासघात के स्याह अंधकार में झोंक देना।
मैं चाहता हूँ कि मेरे बाद
आने वाली नस्लें भी बनी रहें नादान।

2. मैं हूँ ‘मैं’ 

मैं एक ज्वालामुखी हूँ
और लावे की भाँति उबल रहें हैं मेरे भीतर
सूली पर टंगे जीसस के अंतिम शब्द।
(एक ना एक दिन फूट पड़ूँगा मैं।)
मैं एक महासागर हूँ
और मुझमें कैद सीपियों में ले रही हैं अंगड़ाईयाँ
फक्कड़ कबीर की उलटबासियाँ।
(एक ना एक दिन तट पर सब उगल दूँगा मैं।)
मैं एक उल्का पिंड हूँ
और मेरी माटी पर उकेरी गई हैं
रूमी की अमर लिखावटें।
(एक ना एक दिन धरती पर गिरूँगा मैं।)

कौन हूँ मैं? मैं हूँ ‘मैं'!

3. जीवन, मृत्यु और दोनों का मध्य

एक गाँव के पालने में गुज़रा बचपन मेरा
और एक शहर की छाती पर हँसते-खेलते हुआ जवान।

अब उन दोनों को जोड़ने वाली राह पर
मेरे लहू रिसते तलवे लिख रहे हैं
मेरे यौवनावस्था का बिलखता इतिहास।

आगे राम जाने किस ठाँव
उड़ेगा मेरे जिस्म की फुनगी पर बैठा सुगना।
आसित आदित्य

आसित आदित्य गाजीपुर, उत्तरप्रदेश से आते हैं और हिंदी साहित्य के सुधि विद्यार्थी हैं. आपकी कवितायेँ विभिन्न ऑनलाइन पोर्टलों एवं चुनिंदा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. आपसे इस नंबर पे बात की जा सकती है – 7309728587

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