1. आवरण आँखों का अस्तित्व हर तरह की सत्ता के लिए ख़तरा है इसलिए आये दिन आँखें फोड़ दी जाने की ख़बरें हैं इससे पहले आपकी भी आँखें फोड़ दी जाएँ नज़र व धूप के चश्मे ख़रीदिये धूप के चश्मे पूँजीवादी सभ्यताओं का ईजाद हैं और फूटती आँखें हमारे समय का सच ये चश्मे हमें दुनिया में सबकुछ सही होने का भ्रम कराते हैं दिखाते हैं कि अब भी हमारे पाँव के नीचे ज़मीन बाकी है किन्तु इस दुनिया ने आवरण ओढ़ रखे हैं हमने मूर्तियों को नैतिकताओं का आदर्श बताया और इन्हीं मूर्तियों के अपक्षय से सहज होते गए पलक झपकने के पहले हम कुछ और होते हैं पलक झपकने के बाद कुछ और परिवर्तन अनिमिष होते हैं व्यथा ये है कि त्रासदियाँ अनिमिष नहीं होतीं ये त्रासदियों का दौर है और हम निमित्त शून्य हमारी संवेदनाओं का नियतांक रिक्तता सभ्यताओं का आवृत्त सच और त्रासदियाँ इन्हीं रिक्तताओं को भरने की असफल चेष्टाओं का प्रतिफल ताम्रिकाओं पे नहीं लिखे गए विवर्तनिक परिसीमन सकरुण अवसान परिष्कृत वंचनाएँ सहस्त्राब्दिओं का तिमिर नैतिकताओं का आयतन प्रतिध्वनियों के अतिशय में हम नहीं सुन पाए नेपथ्य का कोलाहल प्रायिकताओं का अपवर्तनांक हमें भावशून्यता तक ले आया और आज जब आँखें फोड़ना राज्य प्रायोजित है तो बेहतर यही है कि नज़र व धूप के चश्मे ख़रीदिये! 2. मैं लाशें फूंकता हूँ मेरे दुःख में विसर्ग नहीं है, मेरे घर की औरतें बिना पछाड़ खाये गिरा करती हैं मैं लाशें फूंकता हूँ जैसे जलती लाश की ऊष्मा से जीवन तपता है, अधजली लाशों का वसा फटता है जैसे वेदना से ह्रदय गर्हित है विरह में आँखें रोती हैं सुहागन के शव के गहने जलते हैं मैं लाशें फूंकता हूँ लेकिन उस तरह नहीं जैसे फूंकीं है तुमने दंगों में बस्तियां झोंकी हैं तुमने ईंट के भट्ठों में फुलिया और गोधन की ज़िन्दगियाँ मैं लाशें फूंकता हूँ किन्तु मेरी एक जाति है जैसे ऊना में चमड़ा खींचने वालों की और इस देश में नाली, गटर में उतरने वालों की समय के घूमते चक्र में क्या कुछ नहीं बदला राजशाही से लोकशाही बर्बरता से सभ्यता मगर लाशों को फूंकते ये हाँथ नहीं बदले ना इनकी जाति ना मुस्तकबिल मात्र घाट के जलते शव हैं, पार्श्व में सन्नाटा और जीवन मृग तृष्णा मैं लाशें फूंकता हूँ मेरे दुःख में विसर्ग नहीं है! 3.भारत का लोकतंत्र भारत का लोकतंत्र भावनाएँ नहीं जानता बर्तन धोते बच्चे को लगी गोली नहीं पहचानता भारत का लोकतंत्र तीन महीने की बच्ची और उसकी माँ का तड़पना तड़पना नहीं मानता, मीलों चलते लोगों के पैरों मे फटी बिवाइयाँ नहीं पहचानता भारत का लोकतंत्र त्रासदियों में और क्रूर हो जाता है 'फूल बरसाते हेलीकाप्टर और रोटियाँ रौंदती ट्रेनें' भारत के लोकतंत्र से कभी कागज़ की नाव नहीं बनायीं जा सकी जिसे झेलम, नर्मदा या ब्रह्मपुत्र में कोई बच्चा बहाकर उछल सके भारत का लोकतंत्र बदला लेने का अधिकार नहीं देता, पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट पकड़े माँ को दुलार नहीं देता भारत का लोकतंत्र शक्तियों का प्रयोग करवाना जानता है, अधिकार छीनती सत्ता को अधिकार देना जानता है झूठ, दंगों की बारिश में भारत का लोकतंत्र 'का' के ठीक ऊपर भविष्य छिपाये रखता है दिखता नीरस है पर उम्मीद जगाये रखता है 'सत्यमेव जयते' यानी सच की ही हमेशा जीत होती है ये मैं नहीं भारत का लोकतंत्र कहता है अधिकार देता, अधिकार छीनता जब सच जीतेगा तो क्रूरताओं का लोकतंत्र तुम्हारा भी भीगेगा! 4. मौन की अभिव्यक्ति एक रिश्ता है, तुम्हारे सर्द लहजे और मेरी सुर्ख़ आंखों के बीच एक पति है, जिसके उठते हर तमाचे में मैंने अपनी ही गलती खोज ली एक समाज है, जिसने देवी का दर्जा देके, मेरे साथ हर राक्षसी कृत्य किया, जिसने बुतों को पूजा और, जीवित को सती किया एक माँ है, जिसने सारे दुःख सहे और विरसे में मुझे लहू से सुर्ख़ और, अश्रु से नम दामन सौंपा वो है मुतमईन और चाहती है मैं भी हो जाऊं, कि, ये तो कर्त्तव्य है स्त्री का एक बेटी है, जो है मेरी उम्मीद मैं नहीं चाहती उसे सौंपना विरसे में मिला दामन एक दर्द है, जो अब नहीं होता दूर, मेरे छिदे कान और, दूब पे पड़ी ये ओंस की बूंद एक पितृसत्ता है, जिसने छेदे मेरे कान और पायलों में पिरोकर बंदिशें मेरे पैरों में डाल दीं। पायलों की रुनझुन के संग अब मेरा दर्द छनछनाता है और ये सब जानकार मौन हो जाती हैं मेरी चीखें और मेरी ये बेबसी करती है एक रिश्ता स्थापित तुम्हारे सर्द लहजे और मेरी सुर्ख़ आँखों के बीच! 5. बुंदेलखंड की सुबह ये सूखे शजर की शाखों पे उगते सूरज ये बादलों के किनारे जो सूरज की रौशनी से चाँदी हुए हैं इनकी ज़मीन से ऊंचाई और, बुंदेलखंड की प्यास की गहराई समान ही तो है लोकतंत्र की स्याह दीवार पे अन्नदाता के लहू के सुर्ख़ छींटे ये हमीरपुर, महोबा में बबूल के पेड़ों पे झूलती लाशें, पलायन को मजबूर कदम ये सब सरकारों के चहमुखी विकास का परिणाम ही तो है उम्र के इस सत्रहवें पतझड़ में बुंदेलखंड का दर्द महसूस करने की कोशिश नाकाम ही तो है जन्मभूमि से विरह का दर्द, प्रेयसी से विरह के दर्द से कहीं अधिक होता है बावजूद इसके पलायन इसलिए क्योंकि लोकतंत्र में नाउम्मीदी का सूखा बुंदेलखंड के सूखे से कहीं अधिक है ये बर्बश चमकता सूरज और, तपिश सा जीवन बस की खिड़की से झांकते हुए ये पल जो ठहरा इस पल में ना जाने कितने प्रतिमानों के प्रतिबिम्ब टूट गए गोया, किसी ने फेंका पत्थर स्थिर जलाशय में!

मनीष कुमार यादव
मनीष इलाहबाद से हैं और इन दिनों मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं. आपसे manishkumary346@gmail.com पे बात की जा सकती है.