1.
दुःख ढंगरता है
सुख के ऊपर से
किसी रोड रोलर की तरह,
और कुछ समय
सपाट सड़क की तरह
ठहर जाता है सब कुछ ज्यों का त्यों
कितनी हलचल कितना शोर
फिर भी बना रहता है वह ठहराव
सुख आता है
जैसे उखड़ती है सड़क
और छिटक जाती हैं गिट्टियाँ
इधर से उधर
सुख
सड़क की तरह उखड़ जाने,और
गिट्टियों की तरह छिटक जाने की क्रिया है।
2.
मैं ख़त देखता हूँ
और दुखी हो जाता हूँ
कि मैंने ख़त बचा लिए
रिश्ता ना बचा पाया
जो ख़त और रिश्ते
दोनों नहीं बचा पाए
वो इस दुख से बहुत दूर हैं।
3.
किसी जलते हुए मुर्दे के पास
किसी छितराई हुई देह के सामने
खड़े होने के बाद
ये महसूस होता है कि
जीवन और मृत्यु के बीच
बस फाल भर का अंतर है।
4.
एक आख़िरी मुलाक़ात को
बुलाया था उसने,
मैं नहीं गया
यूँ न जाकर
मैंने बचाये रखी
एक आख़िरी मुलाक़ात।
5.
तुम, जैसे एक पौधा
मिट्टी, ये दुनिया
मैं तुम्हारे लिए
धूप, हवा और पानी हो जाना चाहता हूँ
मैं बनाये रखूंगा
हँसी की हरियाली
जिसमें खिलते रहेंगे
स्मृतियों के फूल।
6.
चलते और चलते ही जाना
महज़ स्मृतियों को छूते हुए
उन जगहों की
जहाँ पर हम रुक जाना चाहते हैं
बिल्कुल कविता से बाहर
पर हम रुकते हैं
किसी अनजान गंतव्य पर
यही हासिल है यात्राओं का
गुज़रते जाना मरीचिकाओं से,
अपनों को छोड़ते जाने
और स्मृतियों को पकड़ने का क्रम अनवरत।
7.
क्या एक मजदूर कि
सोचने की क्षमता भी उतनी ही है
जितनी कि काम करने की ?
क्या वो कभी सोच पाता है
कि पुश्तों से
दूसरों के मकान बनाकर
ख़ुद एक टुटहा घर में क्यों जीते-मरते आ रहे हैं
क्या वो कभी सोच पाता है
कि शहर के शहर उठाने के बाद
और पक्की सड़क बिछाने के बाद
उसके घर तक जाने वाली सड़क पर
क्यों छटकने लगती है साईकिल,
की उसका खड़ंजा और दुवार
आज तक धूर धूर क्यों है ?
या उसे पता है ये सारी की सारी बातें
और वो कोई संतुलन रखने के प्रयास में है
इसलिए वो झोंक देता है
आने वाली पीढ़ी को इसी काम में
क्या उसे ये वाक़ई पता है
कि जब एक एक करके सारे मजदूर
उठ जाएंगे अगर ऐसे कामों से ऊपर
तो ईंट से ईंट कौन जोड़ेगा
कैसे खड़ी होगी कोई ईमारत
कैसे बनेगा कोई घर
कोई शहर
कोई देश।
8.
बारिश आने के बाद
हर कोई नहीं भागता घर की ओर
हर कोई नहीं तलाशता छान्ही छप्पर
कुछ ऐसे भी होते हैं जो
बारिश आने के बाद
तमाम छतों से बचते हुए
भागते हैं उसी दिशा की ओर
ये घंटों ग़ायब रहते हैं घरों से
ये खोजते हैं ताज़े जोते हुए खेत
ये दौड़ते हैं दूर तक हर गड्ढे को ठोकर मारते हुए
ये झोरते चलते हैं पेड़ों की कंछियों को
ये खोजते हैं बईरहवा आम का पेड़
ये बने रहते हैं बारिश के साथ उसके जान तक
और घर से बहुत दूर की पोखरियों में
ये फेंकते हैं चिक्का और दम भर खेलते हैं छिछिली।
9.
इस सिकुड़े हुए शहर में
पतंग अपने साथ उड़ा ले जाने भर की हवा
किधर से आती है
उधर दूर कहीं से
जिधर तुम्हारा गांव है
जहाँ बड़े बड़े बगीचे हैं
इस शहर में
जहाँ मैं तुमसे दूर
बिल्कुल अकेला हो गया हूँ
और सिर्फ़ तुम्हारी बातें हैं,
मुझे उन सब बातों पर यक़ीन हो गया है
कि हवा के चलने से बगीचे नहीं हिलते
जब झूमते हैं बगीचे तब चलती है हवा।
10.
वे जो चले रहे हैं
पृथ्वी को नापते हुए
उन्हें नहीं पता है कि
वे ज़िन्दा रहने के लिए चले रहे हैं
या मरने के लिए,
उन्हें ये भी नहीं पता
कि ईश्वर का शुक्रिया वे
इनमें से किसके लिए करें
यदि वे बच गए या मर गए
तो उनके लिए ये कोई बड़ी बात नहीं होगी
उनके लिए बड़ी बात
सिर्फ़ पृथ्वी को ढोते रहना है
और वे इसी के लिए ईश्वर का शुक्रिया अदा करेंगे।

पंकज विश्वजीत
पंकज विश्वजीत गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से हैं और इन दिनों लखनऊ विश्वविद्यालय में स्नाकोत्तर (हिंदी) के विद्यार्थी हैं. आपसे pankajvishwajit1@gmail.com पे बात की जा सकती है.