1. हमें 'हम' होना चाहिए हम बिछड़कर मर जायेंगे "मैं" और "तुम" में जबकि 'हम' में कितना सामर्थ्य है कि चींटियां अपने देह से भारी मलवा खींच ले जाती हैं 'हम' होकर सभी शब्दों सभी बोलियों और सभी भाषाओं में 'हम' कितना सुंदर और आत्मीय शब्द है वह 'मैं' और 'तुमको' नहीं पता नहीं पता 'मैं' और 'तुमको' कि एकीकरण की परिभाषा से हमें 'हम' होना चाहिए सामाजिक बनावट में सम होना चाहिए जैसे पंच तत्वों से मिली हुई हमारी काया 'मैं' और 'तुम' करते-करते चबा जाता है पूरी मानवता को कलुषित मानव जैसे चबा जाता है अधर्मी जनेऊधारी सजातीय मनुष्य को जबकि 'हम' संजो लेता है जैसे सागर सुरों का मेल 'मैं' और 'तुम' में नहीं रहता सूरज का ताप हमेशा मार्तण्ड नहीं रहता जैसे हम सब मनुष्य रहते हैं 'मैं' और 'तुम' में जीवन एक यात्रा है स्वयं को जानने की साथी-हमराही के साथ-साथ चले जाने की इसलिए 'मैं' और 'तुम' में बिछड़ जाने के बाद हम पिसते रहेंगे जीवन भर और जीवन के बाद भी बिछड़ जाने का ग़म लेकर 'मैं' और 'तुम' का भ्रम लेकर! 2. रास्ते बिछड़ने नहीं देतें दूर-दूर तक फैले हुए रास्ते चलते रहते हैं हमारे साथ जीवन भर वे बिछड़ने नहीं देते हमें तनिक भी जैसे बिछड़ जाते हैं इंसान करीब रहने के बाद भी रास्ते लंबवत दूरी के बाद भी मिलाते रहते हैं हर राही को हर किसी से वे तनिक भेद नहीं करते परायेपन का मनुष्यों की तरह हर तरफ मोड़ के बावजूद भी रास्ते नहीं पड़ने देते मन के भीतर गांठ वे बड़े सलीके से लेते हैं काम मिलाते रहने का हर किसी को, हर किसी से जो नहीं है मनुष्यों के भीतर! 3. ईश्वर कब हुए गरीबों के ईश्वर! कब होते हैं गरीबों के पलायन के सम भुखमरी के वक़्त महामारी के दौरान या फिर संपन्नता के मुहाने पर पहुँचने के बाद? ईश्वर ! कब होते हैं गरीबों के यह उनको नहीं पता फिर भी वे देते हैं चढ़ावा भरपूर अपना पेट काटकर बारहों मास गरीबों की हर सफलता में ईश्वर ! बलवान साबित होता है और परिश्रम निरर्थक निर्जीव यह सब तय हुआ है निर्लज्ज कर्मकांडी ज्ञान से जिसमें कूपमंडूकता के सिवाय कुछ नहीं बुद्ध के इस देश में गुजर जा रहा है काल निरर्थकता को लपेटे हुए जबकि तर्क और परिश्रम दबा दिया जाता है जनेऊ लीला और खड़ाऊ तले अमीरों के लिए ईश्वर कभी प्रकट नहीं होते उन्हें मालूम है ईश्वर की कलाबाज़ी और धूर्त चतुराई जबकि बुद्ध ने पकड़ी है उनकी कलाई पग-पग पर और जताया है विश्वास तर्क और कर्मशीलता पर इसीलिए बुद्ध, बुद्ध हुए, न कि अस्तित्वहीन ईश्वर जो पलायन कर जाता है महासंकट के दौरान गरीबों के बीच से जो नहीं है, कहीं भी!

सुमित चौधरी
सुमित चौधरी इन दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से हिंदी साहित्य में पीएचडी कर रहे हैं. आपसे 9971707114 पे बात की जा सकती है.