“कभी कभी सोचता हूँ, एक डायरी खरीदकर उसका नाम तुम्हारे नाम पर रख दूँ।”

“अच्छा, क्यों?”

“क्योंकि मैं जैसे तुमसे अपने मन की सारी बातें करता हूँ, वैसे उसमें लिख दिया करूँगा।”

“नहीं, नहीं…अगर सब कुछ तुम उसमें लिख दोगे तो मुझसे क्या कहोगे?”

“अच्छा, हाँ…”

“और वैसे भी तुम्हारे लिए मैं ही तुम्हारी डायरी हूँ।”

“चलो मेरी डायरी! तुम पर बाद में कुछ लिखता हूँ, शिवानी घर आ गई है।” ये कहकर आशीष ने फोन धीरे से मेज़ पर रख दिया और मैगज़ीन पढ़ने का अभिनय करने लगा। अभिनय सिर्फ मंच पर नहीं असल ज़िंदगी में भी होता है। असल ज़िंदगी से प्रेरणा लेकर ही अभिनय की रूपरेखा तय होती है। कहीं कोई कलाकार अभिनय को असलियत की तरह करने का प्रयास करता है तो कहीं कोई असल ज़िन्दगी में अभिनय करने का।

शिवानी का मायूस चेहरा और आशीष को नज़रंदाज़ करने वाली नज़रें बता रहीं थीं कि बाज़ार में टिंडे आज फिर नहीं मिले। घर में घुसते ही सीधे रसोईघर की तरफ चली गई। बाज़ार में सब्जी खरीदते खरीदते थक जाना स्वाभाविक था पर कमबख्त घड़ी ने शाम के सात बजा दिए थे इसलिए शिवानी ने रसोईघर के तरफ रुखसत होना ही मुनासिब समझा। रसोई में बर्तनों की उठा पठक की आवाज़ को आशीष सुन रहा था। बोलना चाहता था पर जैसे ही मुँह खोलता तो कभी न कभी कोई बर्तन ज़मीन पर गिर कर आवाज़ बंद करा देता।

“आ गईं? बड़ी देर कर दी….” आशीष ने मुँह खोलकर पूछ ही लिया। दरअसल पूछना उसे ये नहीं था, बस शिवानी से बात करने की इच्छा से ये अस्वाभाविक सा प्रश्न दाग दिया। पर शिवानी का दिल तो टिंडो ने तोड़ रखा था उस टूटे दिल की गाज आशीष पर गिरनी तो थी ही।

“खुद चले जाते सब्जी मंडी…अगर इतनी ही देर से आई हूँ।” शिवानी ने रोटी को पर्थन में लगा कर जवाब दिया।

“मैं तो चला ही जाता, तुम्हें ही बाहर की हवा खानी थी, घर तो तुम्हें काटता है।”

अब रसोईघर में टिक पाना मुश्किल था, जंग का ऐलान जो हो चुका था।

“पूरे दिन घर पर रह कर काम करोगे न, तो पता चल जाएगा। सांस लेना कितना ज़रूरी है…और सांस बाहर जा कर ही मिलती है, घर में तो दम घुटता है।” शिवानी रसोईघर से हल्का सा बाहर निकली फिर जाने क्या सोच कर अपने पाले में चली गई।

“तो मैडम, आप बाहर ही रहा करिए. ..आपके लिए फोल्डिंग पलंग डलवा देते हैं।” हल्की सी आवाज़ में आशीष ने गहरी सांस के साथ ताना कस दिया। पर इस धीमी आवाज़ के हर एक शब्द शिवानी के कान तक पहुंच गए।

शब्दों का सुनना उस वक़्त एक क्रिया थी और उसी शब्दों के विश्लेषण करने पर शब्दों से प्रहार करना, प्रतिक्रिया। धीमी आवाज़ में कहे गए शब्दों का जवाब ऊंची आवाज़ में दिया जाता है, वैसे शब्द धीरे बोले जाएं या तेज़, चोट दोनों ही करते हैं।

“क्या बोला, तुमने?…सब सुन लिया मैंने…पलंग डलवाओगे? ख़ाक पलंग डलवाओगे, तब से टूटी हुई प्लाई पर सोना पड़ रहा है, एक दीवान बोला था, तो नया फोन ले कर बैठ गए हैं, टनटनाते रहते हैं दिन भर वही।”

“तुमको बड़ी दिक्कत है, मेरे फोन से…और दीवान के लिए तो तम्हारे पापा भी बोले थे, दिलवा देंगे, अब क्या हुआ?”

पापा जब जंग में आ गए तो शिवानी से रसोईघर में रहा नहीं गया। अब उसे पूरी तरह जंग में उतरना ही पड़ेगा।

रोटी को गोल-गोल करने वाला बेलन हाथ में लिए शिवानी सामने खड़ी हो गई।

“जो तुम पापा के बारे में कह रहे हो न, वो पार्टी में कार्यकर्ता हैं और तुम पहले ख़ुद की औकात देखो, तब उनके बारे में कुछ कहना…अगर उन्हें पता लग गया न, उनकी बेटी इस सड़े मकान में रह रही है तो तुम जैसे निट्ठले के साथ कभी रहने ही ना दें।”

क्या था फिर? इस बात से झगड़े का अंत हुआ, आशीष ने तेवर दिखाने के लिए चप्पल को पैर में डाला। नहीं – नहीं, चप्पल में पैर डाला और कमरे के दरवाज़े को ज़ोर से ठप्प करके बाहर निकल गया।

अब कमरे में सिसकियाँ थीं। पछतावा और लाचारी से भरी सिसकियाँ।

शिवानी को आटा गूंदना कभी पसंद नहीं था पर समय, समाज ने उसे ऐसा करने के लिए बाध्य कर दिया था। आटा गूंदना अब रोज़ की दिनचर्या का हिस्सा है। पर अब ये खाना बनाना किसके लिए? शिवानी ने ये सोचकर सब कुछ छोड़कर टीवी ऑन कर लिया। उसकी आँखों से बह रहे आँसू सिर्फ इस वज़ह से नहीं थे कि आशीष उसके पापा को बातों के बीच में लाया, बल्कि वो उदास थी। बहुत उदास। क्योंकि ये सिर्फ आज की बात नहीं थीं। शादी को चार साल हो चुके हैं, पर पिछले एक साल से अब हर दिन एक लाचारी का एहसास होता है। इस एहसास से कोई एक नहीं, दोनों गुजरते हैं। कौन ज़्यादा, कौन कम? ये तो विवादित विषय है।

रात में आशीष घर वापस आया। शिवानी आँखें बंद किए, अंधेरे में बिस्तर पर लेटी हुई थीं। आशीष ने बाहर से अंडा भुर्जी खा ली थी और शिवानी के लिए बाहर मजनू की दुकान से टिंडे की सब्जी बनवाकर लाया था। उसे पता था शिवानी गुस्से में खाना नहीं बनाएगी और भूखी ही बिस्तर पर लेट जाएगी।

कैसे दो लोग एक साथ रहने का निर्णय कर लेते हैं? ये बात आज तक मेरी समझ नहीं आई। क्या किसी के साथ रहने पर खुद से समझौता नहीं करना पड़ता? लेकिन खुद को खोकर हम किसी को कैसे पा सकते हैं?

शिवानी आज घरेलू औरत बन चुकी है, जबकि शादी के पहले अच्छी कंपनी में काम करती थी। उसे तो घर के काम करने में हमेशा से चिढ़ थी, फिर ये समझौता क्यों? शायद जिस वक़्त साथ रहने का फैसला किया था उस वक़्त हमने अपना सब कुछ एक दूसरे को सौंप दिया था। अब किसने, किसका, कहां, क्या रखा? कितना, किसको वापस किया? या कहीं फेंक दिया। ये तय उस वक़्त नहीं कर सके।

आशीष हमेशा से लेखक बनना चाहता था। स्कूल में उसकी डायरी कविताओं से भरी रहती थी। पर अब डायरी तक उसके पास नहीं। जिम्मेदारियों के कारण उसने अपनी रूह को किसी तहखाने में बंद कर दिया था, जहां से रोज़ आवाजें तो सुनाई देती हैं पर वो उस पर ध्यान नहीं देना चाहता। कभी कभी तहखना खोल कर उसे देख कर रो ज़रूर लेता है। अब वो अपने स्वर्गीय पिता जी की जूतों की दुकान चलाता है। अपने सपनों से समझौता करके वो आज यहां टिंडे की सब्जी लिए शिवानी के पास खड़ा है, क्या वो यही चाहता है? शिवानी के बालों को सहलाकर उसे खाना खाने के लिए उठाना, ये अभिनय का हिस्सा नहीं है? ये एक जरूरत है खुद को महसूस करने की, कि सांसे चल रही हैं, दिल में धड़कन चालू है। शिवानी को खाना खिलाया और फिर दोनों सो गए। रात भर प्लाई की आवाज़ के साथ साथ मोबाइल फोन के बजने की आवाज़ होती रही। शायद आशीष किसी के मैसेज का उत्तर देना भूल गया था।

अगले दिन आशीष और शिवानी के बीच हल्की हल्की बातें हुई। फिर आशीष दुकान के लिए निकल गया। और शिवानी घर के काम में लग गई। टिंडे की सब्जी ने सिर्फ रात बदली थी पूरी ज़िन्दगी नहीं। दिनचर्या वही थी दोनों की।

आशीष जब दुकान पर पहुंचा तो बाहर ही प्रतीक्षा खड़ी थी। चेहरे पर गुस्सा साफ़ दिख रहा था। आशीष के मन में अजीब तरह की दुविधा चालू हो गई। दरअसल आशीष के लिए प्रतीक्षा शादी शुदा जीवन से बचने की एक राह थी जिस पर आशीष कभी कभी आ कर ठंडी हवा का आनंद लिया करता था। पर कभी कभी इस राह पर चलना उसे जीवन की सबसे बड़ी गलती भी लगती थी, ख़ासतौर पर तब जब शिवानी और उसके बीच सब कुछ अच्छा हुआ हो।

“कल तुम्हें कितनी कॉल, और मैसेज किए…एक का भी तुमने जवाब क्यूं नहीं दिया?” प्रतीक्षा ने पूछा।

“देखो! मैंने तुमसे कितनी बार कहा है, यहां मुझसे ऐसे बात मत किया करो, और मेरे घर में भी फोन मत किया करो।” बड़ी धीमी धीमी आवाज़ में आशीष प्रतीक्षा को समझा रहा था।

“तुम्हें पता है, कल रात मैं सो नहीं पाई।”

“क्यों?”

“रात भर मुझे बड़े अजीब ख़्याल आ रहे थे। मुझे लग रहा था मैं बाज़ार में बिकने वाली एक चीज़ हूँ। जिसे हर कोई सिर्फ अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है..”

“देखो! मेरा और तुम्हारा सिर्फ एक शारीरिक रिश्ता है, कभी कभी तुमसे अच्छी बातें कर लीं इसका मतलब तुम ये मत लेना कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ। और ये बात हमने एक दूसरें से मिलने से पहले साफ कह दी थी।” आशीष ने प्रतीक्षा की बातों को बीच में काटकर अपनी बातें रख दीं।

प्रतीक्षा दो हाथ, दो पैर वाली, दो आंखें, एक नाक, एक जुबान वाली औरत है। जिसमें संवेदनाएँ, भावनाएँ एक दूसरे इंसान की तरह ही हैं। पर आशीष के जवाब से उसे ये एहसास हुआ कि वो वस्तु या राह नहीं है, जो वो ख़ुद को अब तक महसूस कर रही थी।

प्रतीक्षा बिना कुछ बोले सिसकियाँ भरते वहाँ से निकल गई। उसके हाथ में डायरी थी जो वो आशीष के लिए लाई थी, वो उसको भी वापस साथ ले गई।

आशीष चाहकर पर भी उसे रोक नहीं पाया। उसे लगा, वो शिवानी के साथ वही कर रहा था। जो उसके पिता जी ने उसकी माताजी के साथ किया था। हालांकि माताजी ने सब कछ पता लगने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। पर शिवानी को पता चलने पर वो शायद उसे हमेशा के लिए छोड़ दे। आशीष प्रतीक्षा को छोड़कर वापस अपनी दुकान पर चला आया।

आशीष और प्रतीक्षा की मुलाकात एक साल पहले मुशायरे में हुई थी। कविताओं और नज़्मों की दुनिया आशीष को बहुत पसंद थी। उसकी कविताएं स्कूल में छपने वाली मासिक पत्रिका में सबसे पहले पृष्ठ पर प्रकाशित होती थीं। शादी होने के बाद वो सारा वक़्त घर का राशन लाने, पिताजी की बीमारी में उनकी सेवा करने, उनकी गैर-हाज़िरी में दुकान चलाने में लगने लगा। जो आदमी कविताएं, शायरी के लिए मशहूर था, आज खुद किसी ज़िंदगी में रोमांच वो हम कविता का उदास भाव बनकर रह गया था। उसकी जिन्दगी में रोमांच था भी तो शिवानी के रहने से। वो हमेशा उसका हौसला बढ़ाया करती थी। लेकिन अचानक ये रोमांच भी ख़तम हो गया। उनके बीच की नजदीकियां दूरियों में तब्दील हो गईं। अचानक ऐसा कैसे हुआ? दोनों को नहीं पता। और इसे रोकना उनके हाथ में भी नहीं था। ज़िंदगी का संतुलन जब हमारे हाथ में नहीं होता तो हम उसे वक़्त के हाथों में सौंप देते हैं। आशीष और शिवानी ने हमेशा वक़्त को ही दोषी माना और उसी के बहाव में ज़िंदगी को खुला छोड़ दिया। अब वो मात्र कठपुतली हैं, समय के हाथों। आशीष ने शारीरिक संबंध बनाने की बहत कोशिशें कीं मगर शिवानी का बर्ताव बदलने लगा था। वो आशीष के पास आने पर ही दूर जाने लगी थी। वो हमेंशा यही जवाब देती, “मैंने देखा है मेरी मां को ज़िंदा लाश बनते हुए, मुझे क्या पता था…लव मैरिज के बाद भी मैं मां जैसी बन जाऊंगी।”

इस तरह आशीष ने अपने अंदर के प्रेम और शारीरिक इच्छाओं को भी तहखाने में डाल दिया।

जब मुशायरे में आशीष प्रतीक्षा से मिला तो उसे उसकी बातों में अपने अंदर बंद किए हए सपनों से रूबरू होने का मौका मिला। कुछ ही दिनों में ज़िंदगी जीने की एक वजह मिल गई। प्रतीक्षा के पास रह कर वो कविताएं सुना करता था उससे बात करते करते शायरी बोल दिया करता था। और प्रतीक्षा के साथ उसने शारीरिक संबंध रखने भी शुरू कर दिए। उसे आज़ादी का अनुभव होने लगा था। पर ये आज़ादी चन्द समय की थी। शिवानी का ख़याल आते ही वो आत्मग्लानि में डूब जाता। और उसे अपनी मां की शक्ल दिमाग में उभरने लगती।

प्रतीक्षा जानती थी कि आशीष शादीशुदा है, फिर भी उसे उसके साथ संबंध रखने में कोई नैतिक ज़ुर्म नहीं लगता था। नैतिक ज़ुर्म? इसकी परिभाषा सबके लिए अलग अलग है। इसे पत्थर पर लिख कर सबके लिए समान नहीं बनाया जा सकता। प्रतीक्षा ने शिवानी को कभी देखा नहीं था बस आशीष की बातों से ही उसकी छवि बनाई थी। उसे बस अफ़सोस था कि वो आशीष के साथ खुलेआम क्यूँ नहीं साथ रह सकती? जब आशीष ने आज उसे दुत्कारा तो उसे एहसास हुआ कि उसने शायद कोई बहुत बड़ा गुनाह किया है। जबकि आशीष को सुकून मिल रहा था। उसे लगा अब इस राह पर कभी नहीं जाएगा। शिवानी के साथ ज़िंदगी बिताएगा।

आज रास्ते में टिंडे सस्ते मिले, आशीष काफी ख़ुशी महसूस कर रहा था उसे लग रहा था मानो उसने पहली बार कोई चुनाव किया हो। उसके मन का भार उतर गया हो, शिवानी को वो अब तक धोखा देता रहा। अब वो अपने रिश्ते को और मजबूत बनाएगा। ज़िंदगी की हर राहों पर वो असफल होता रहा लेकिन अब वो सब ठीक कर देगा।

अपने भविष्य का निर्माण अब वो खुद करेगा। आज दुकान जल्दी उसने इसीलिए बंद कर दी। उसने स्टेशनरी से एक डायरी और पेन भी खरीदा। आज सब कुछ नया लग रहा था। नवीन। नई शुरुआत। शाम में सुबह जैसा प्रकाश दिख रहा था

जब वो घर के पास पहुंचा तो उसे लगा घर के अंदर कोई और भी है। शिवानी के पापा तो बाहर गए हैं, और उसका कोई ऐसा दोस्त भी नहीं आता।

उसने कान लगा कर सना तो अंदर किसी के कराहने की आवाज आ रही थी। उसे समझ नहीं आया, कि वो क्या करे? उसके हाथ कांपने लगे। पसीने से उसका पूरा शरीर भीगने लगा। उसे गुस्सा आने लगा। शिवानी की जिस प्रतिक्रिया से वो आत्मग्लानि में अब तक था अब वो खुद उस प्रतिक्रिया का हिस्सा था। उसे लग रहा था कि शिवानी किसी और के साथ ऐसा कैसे कर सकती है? उसने कस कर दरवाज़े में लात मारी। सिटकनी शायद हल्के से लगी थी इसलिए दरवाज़ा खुल गया या एक आदमी के अंदर का मर्द उभर आया। जब वो अंदर गुस्से में घुसा तो भौंचक्का रह गया। शिवानी नंगे बदन एक औरत के ऊपर बैठी थी। उस औरत का चेहरा प्रतीक्षा से हुबहू मिल रहा था या वो प्रतीक्षा ही थी ये आशीष को समझ नहीं आया। उस वक़्त तीनों एक दूसरे को अपराधी की तरह देख रहे थे। घनघोर सन्‍नाटा। बस टिंडे थे। जो ज़मीन पर इधर-उधर लुढ़क रहे थे।

हार्दिक श्रीवास्तव

हार्दिक पेशे से रंगकर्मी हैं और इन दिनों दिल्ली में रहते हैं. आपसे hardiksrivastava98@gmail.com पे बात की जा सकती है.

हार्दिक पेशे से रंगकर्मी हैं और इन दिनों दिल्ली में रहते हैं. आपसे hardiksrivastava98@gmail.com पे बात की जा सकती है.

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