रोशनदान से झांकती ज़िंदगी अगर दरवाज़े से आ जाती तो वो मज़ा ना आता। धीरे-धीरे धूप का दीवारों पर चढ़ना फिर ताप को बढ़ाना और अंत में छत को छूते हुए कमरे के हर उस हिस्से को सहलाकर जिसमें यादें दुबक कर बैठी थीं, अकेला, बिखरा छोड़ जाना। बस इंतज़ार के साथ एक रात दे जाना। रात में भी करीब-करीब रोशनी आती ही थी। नीली-सफेद छनी हुई किसी छलनी से। जैसे फ़रिश्ते उतरते हैं रात को। पेड़ों की छाया जो भयानक आकृति बनाती थी, कभी-कभी डर को भी पास सिमटा लेती थी। बस झींगुर ही थे जो वार्तालाप करते रहते थे।

कुछ खास नहीं है बस एक कमरा ही था। जिसमें दरवाज़ा सिर्फ जाने के लिए था। आने के लिए रोशनदान था। वक़्त कितना है, बताने के लिए जो घड़ी थी वो हमेशा वही वक़्त बताती थी जो मुझे महसूस हो रहा होता। जब लगता था दिन है तो दिन के ही बारह बजाती थी और जब रात का एहसास हो तो, रात के बारह। कुछ किताबें थीं जिनके पन्नों में गुलाब की पंखुड़ियां दबा रखी थीं। हर बार खोलने पर एक नया अजूबा बन जाती थीं। लगता था जैसे कोई तिलिस्म हाथ लग गया हो। सुंगध भी ऐसी लगती थी मानो गुलाब का पहला दिन हो। किताबों के वो पन्ने जो गुलाब के रस से भर चुके थे। उन्हें पढ़ते हुए भी इत्र नथुनों से जीभ तक आ जाता था। पूरे बदन में सिहरन होती थी। फिर कवि, लेखक या उपन्यासकार को चूमना। उसे लक्ष्य बनाना। इन्हीं सब में दिन के बारह बज जाते थे। अक्सर रात की चांदनी जब दीवार के उस हिस्से में पड़ती थी जहां गोल सा शीशा लगा था तब एक और प्रकाश उत्पन्न होता था। उस दिव्य प्रकाश में मेरा जीवन स्वर्ग लगता था। हाथ में गुलाब और दिमाग़ में कवि। ये सब कुछ उस रोशनदान की देन थी।

जब जब दरवाज़ा खुला छोड़ता था तब तब बाहर निकल जाता था। घर की दहलीज़ से बाहर को जाती चीटियों की वो लकीरें मुझे बाहर खींचती थीं। न जाने कौन से ठिकाने पर इन्हें जाना था? काली-काली लकीरें हाथ के रेखाओं जैसी तिरछी-मिरछी रहस्यमई तरीके से खिसकी जा रही थीं। दरवाज़े से कुछ कुछ चीजें आती भी थीं। जैसे सड़े हुए जानवर की बदबू या कभी-कभी सियारों का शोर। आदमखोरों के खून की चपड़-चपड़ करने की आवाज़ें। ये सारी आवाजें रोशनदान से नहीं आ पाती थीं। इसीलिए दरवाज़ा बंद रहने से सुकून मिलता था। लेकिन डर भी गुलाब की पंखुड़ी की तरह मन से चिपका हुआ पड़ा रहता था।

एक दिन फिर बहुत तेज़ आंधी चली। रोशनदान से धूल मिट्टी आती रही और मैं किताबों के पास दुबक कर किताबें बचाता रहा। तूफान बढ़ता गया और भयंकर बारिश भी होने लगी। बिजली का कड़कना, सियारों का रोना ये सब रोशनदान से भी सुनाई दे रहा था। दिन की धूप ने भी साथ छोड़ दिया था। लगा जैसे दरवाज़े से बाहर निकल कर चीटियों का राज जानूँ। आखिर ये जाती कहां हैं? बेचैनी से मेरा सारा शरीर कंपन करने लगा। धीरे-धीरे सभी किताबें पानी में भीग रही थीं। बारिश की बौछार रोशनदान से सीधे मेरी किताबों पर ही पड़ रही थीं। एक-एक पन्ना भीगकर पानी में शब्दों को घोलता जा रहा था। अगर उस वक़्त सारा पानी पी लेता तो सारी किताबों का रस एक साथ ग्रहण हो ही जाता। तूफान, बारिश के ज़ोरदार असर से दरवाज़ा भी टूट गया और मैंने जल्दी-जल्दी में एक किताब बचा ली। जिसे मैंने सबसे पहले पढ़ने के लिए उठाया था पर हमेशा आखिरी के दो पन्ने आते तक मैं छोड़ देता था। मैं उसे बचाकर चीटियों के पीछे निकल पड़ा। घर से निकलते ही सामने हवा के थपेड़े पड़े और मैं चींटी की तरह चलता हुआ, आगे बढ़कर चींटियों के पीछे जाने लगा। और आगे चलकर बहुत सारे जानवरों, पक्षियों और इंसानों के शव पड़े मिले। जिसमें से इतनी गंध आ रही थी कि इंसान बदबू को ही एकमात्र गंध मानकर जीवन काट सकता था। उसे गुलाब की खुशबू का ज्ञान हो ही नहीं पाएगा। मगर मैंने गुलाब सूंघा था। इसीलिए ये गंध मेरे लिए सामान्य नहीं थी। चीटियां एक कतार से शुरू हुई थीं और अब दस बारह कतारें बन गई थीं। लेकिन मैं एक ही कतार को पकड़ कर आगे बढ़ रहा था। बारिश से किताब को बचाने के लिए किताब को शर्ट के अंदर खोंस लिया थी। फिर भी वो भीग रही थी क्योंकि भीगना तय था। जितना बचाना चाहूँ, भीगना ही सत्य है। चीटियों की लंबी कतार एक बेंच पर जा कर ख़त्म हो गईं। उस बेंच के ऊपर एक बरगद का पेड़ था। बारिश सिर्फ बूंदों में ही वहां मौजूद थी। मैं उस बेंच पर जा कर बैठ गया। कितना अकेलापन था यहां। इतने शोरगुल में एकांत का एहसास। मुझे पता था मुझे क्या करना था। मैंने किताब निकाली। जिसके सारे पन्ने बारिश में भीग चुके थे। सिर्फ वही आख़िरी के दो पन्ने बचे थे जिन्हें मैं हर बार छोड़ दिया करता हूँ। पर आज सब कुछ पढ़ने के अनुकूल है। शायद इस बेंच पर हर यात्री अपना रोशनदान छोड़ कर आता होगा। अपनी बची एक किताब ले कर। ये चीटियाँ हर घर की दहलीज से निकलकर किसी न किसी जगह पहुँचती होंगी। सोचता हूँ अगर दूसरी लकीर चुनी होती तो कहाँ पहुँच पाता? शायद ये सवाल, सवाल है ही नहीं। बस उम्र की लालसा है। क्यूंकि वहाँ पहुँचकर न ये बेंच मिलती, न छनी हुई बारिश की बूंदें। अब यहां सिर्फ दो पन्ने पढ़ने हैं। इतना ही है सत्य। बस। चलो शुरू करता हूँ पढ़ना।

“अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औे अं अः….”

हार्दिक श्रीवास्तव

हार्दिक पेशे से रंगकर्मी हैं और इन दिनों दिल्ली में रहते हैं. आपसे hardiksrivastava98@gmail.com पे बात की जा सकती है.

हार्दिक पेशे से रंगकर्मी हैं और इन दिनों दिल्ली में रहते हैं. आपसे hardiksrivastava98@gmail.com पे बात की जा सकती है.

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