तुमने कहा जाती हूँ
और तुमने सोचा कि कवि-केदार की तरह मैं कहूँगा जाओ
लेकिन मेरी लोक-भाषा के पास अपने बिंब थे
मेरी भाषा में जब भी कोई जाता था
तो ‘आता हूँ’ कहकर शेष बच जाता था
यहाँ प्रतीक्षा को आश्वस्ति है
वापसी को निश्चितता
हमारा लोक-देवता एक चरवाहा था जो घास को
बकरियों की तरह चर रहा था
और लौटने की पगडंडी को गढ़ रहा था
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शायक आलोक
शायक आलोक हिंदी के अग्रणी कवियों में चर्चित नाम हैं. आपकी कविताएँ, लेख व् अनुवाद देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं. आपसे shayak.alok.journo@gmail.com पर बात की जा सकती है.