दो पंक्तियों के बीच

कविता की दो पंक्तियों के बीच मैं वह जगह हूँ जो सूनी-सूनी-सी दिखती है हमेशा यहीं कवि को अदृश्य परछाईं घूमती रहती है अक्सर मैं कवि के ब्रह्मांड की एक गुप्त आकाशगंगा

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कंठ का उपवास

कितने नामों को छूते हो जिह्वा की नोंक से इस तरह कि मुँह भर जाता हो छालों से कितने नामों को सहलाते हो उँगलियों की थाप से यूँ कि पोरों से छूटता

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सबसे शांत स्त्रियाँ

सबसे शांत स्त्रियाँ अगले जन्म में बिल्लियाँ होंगी वे दबे पाँव आकर टुकुर-टुकुर देखेंगी तुम्हारा उधड़ा जीवन एक नर्म धमक के साथ कूद जाएँगी वे तुम्हारी नींद में ख़लल बनकर जब तुम

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थी

चिड़िया थी उड़ा दी गई बेटी थी समझा दी गई फिर कोई न लौटा मुंडेर पर सूख गया दाना आँगन के पैर से खोल ले गया पाज़ेब कोई

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वक़्त

वक़्त को गुज़रते देख रहा हूँ क्या पाया, क्या खोया फ़ैसले सही या ग़लत सही वक़्त पर या देरी से इसी जद्दोजेहद में काश ऐसे होता, काश वैसे क्या ठहर जाना इतना

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ज़िलाधीश

तुम एक पिछड़े हुए वक़्ता हो तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो एक ऐसे समय की भाषा जब संसद का जन्म नहीं

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प्रेम इंटरनेट पर

शास्त्रीय प्रेमियों की तरह मनोयोगपूर्वक दबा नहीं सकता वह मेरा सर, गूँथ नहीं सकता मेरी चोटी, मटके में पानी भी भरवा नहीं सकता, हाँ, मल नहीं सकता भेंगरिया के पत्ते मेरी बिवाइयों

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हम जिएँ न जिएँ दोस्त

हम जिएँ न जिएँ दोस्त तुम जियो एक नौजवान की तरह, खेत में झूम रहे धान की तरह, मौत को मार रहे बान की तरह। हम जिएँ न जिएँ दोस्त तुम जियो

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फटा क्षण

एक फटे हुए क्षण में जूता सिलाने मैं चला सड़क चौड़ी थी पाँव पतले नंबर तीन वाले पेड़ सिकुड़ा खड़ा बूढ़ा बैठा जहाँ दिमाग़ में कुछ आता न था कमरा खुला दरियाँ

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दुःख से कैसा छल

मूरख है कालीघाट का पंडित सोचता है मंत्रोचार से और लाल पुष्पों से ढक लेगा पाप नहीं फलेगा कुल गोत्र के बहाने कृशकाय देह का दुःख मूरख है ममता बंदोपाध्याय का रसोइया

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