इसी तरह धीरे-धीरे
ख़्वाहिशें ख़त्म होती हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
मरता है आदमी
इसी तरह धीरे-धीरे
आँखों से सपने
सपनों से रंग ख़त्म होते हैं
रंगों से ख़त्म होती है दुनिया
सफ़ेद कैनवस पर काली चिड़ियाँ
मृत नज़र आती है
इसी तरह धीरे-धीरे
इबारतें कविताओं में सिमटतीं हैं
कविताएँ पंक्तियों में सिकुड़तीं हैं
पंक्तियाँ शब्दों में लुप्त होतीं हैं
और शब्द शून्य में खो जाते हैं
इसी तरह धीरे-धीरे
इन्तज़ार करती
आँखों में इन्तज़ार ख़त्म होता है
तड़पते-तड़पते
होंठ लरजना भूल जाते हैं
छुअन को ललकते
पोरों से कम्पन गायब हो जाता है
इसी तरह धीरे-धीरे
घर इन्सान को खा जाता है
दीवारें उसकी मज़बूरी बन जाती हैं
रिश्ते जो उसके पाँव की बेड़ियाँ होते हैं
आदमी उन्हें
पाज़ेब बना कर थिरकने लगता है
इसी तरह धीरे-धीरे
व्यवस्था के खिलाफ़ जूझता आदमी
व्यवस्था का अहम् हिस्सा बन जाता है
रंगों की दुनिया में
मटमैला-सा रंग बन जाता है
और कैनवस से एक दिन लुप्त हो जाता है
इसी तरह धीरे-धीरे
सोचते-सोचते
आदमी जड़ हो जाता है एक दिन
पता ही नहीं चलता
कब कोई
उसके हाथों से क़लम
कोई कागज़
छीन कर ले गया
इसी तरह धीरे-धीरे
एक कवि
कवि से कोल्हू का बैल बन जाता है
और आँखों पर पट्टी बांध कर
मुर्दा ज़िन्दगी की
परिक्रमा करने लगता है।

अमरजीत कौंके
डा.अमरजीत कौंके (जन्म: अगस्त 1964), पंजाबी और हिंदी कवि, अनुवादक और पंजाबी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका " प्रतिमान " के संपादक हैं। साहित्य अकादमी, दिल्ली की ओर से वर्ष 2016 के लिए अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित हैं ।