बच्चन — आदमी और कवि

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देह के बच्चन, मन के बच्चन, समाज के बच्चन, सभ्यता और संस्कृति के बच्चन, सरकार के बच्चन, जनता के बच्चन और काव्य के बच्चन, ये सब बच्चन मुझे एक जैसे ही लगे हैं।

देह का बच्चन मध्यम-वर्ग की जमीन में पनपा बच्चन है। उस वर्ग के एक ओर निम्न वर्ग है, दूसरी ओर उच्चवर्ग है। मध्यम वर्ग का प्राणी बीच का प्राणी है, जो दोनों ओर देखता, सुनता, समझता है और वश-भर निम्नवर्ग की तरफ नहीं जाना चाहता। अगर वश चला तो उच्चवर्ग की तरफ जरूर चला जाता है। देह का बच्चन ऐसा ही एक बीच का प्राणी है। उसकी देह न सुर की देह है, न असुर की, न यक्ष की, न किन्नर की। यानी कि वह न देह से दरिद्र रहा है, न महाजन । शायद इसीलिए देही बच्चन का इन्द्रियबोध न जड़-भौतिकी रहा है, न सूक्ष्म-दैवी रहा है। शायद इसीलिए देही बच्चन के इन्द्रिय-बोध की कविताएँ न जड़ हो सकी, न सूक्ष्म; वह साफ, सुथरे पढ़े-लिखे नागरिक की साफ-सुथरी सम्पत्ति-शोभनीय कविताएँ हैं।

मन का बच्चन देह के बच्चन का अभिन्न, अंतरंग आत्मीय है। बड़ी खूबी है कि दोनों एक दुसरे के बड़े खैरख्वाह हैं। द्वंद्व में, संघर्ष में भी एकजुट रहते हैं – रस्साकशी नहीं करते कि एक हारे, दूसरा जीते। जितना जियें दोनों साथ साथ जिये – न कम, न बेशी । शायद इसीलिए बच्चन की कविताओं में तन और मन की एकता और तन्मयता मिलती है। शायद इसीलिए बच्चन की कविताएं उतनी ही मन की कविताएं हैं, जितनी दह की। न देह का हनन है न मन का। देह का दीया भी उसी लौ से जलता है जिस लौ से मन का दीया जलता है। दोनों एक आंच, एक उजाला देते हैं और दोनों को अभिव्यक्ति बच्चन की कविता है।

समाज का बच्चन अच्छा पड़ोसी, हमदर्द साथी, मर्यादित कुटुम्बी है। समाज ने उसे बहुत कुछ दिया है। समाज से उसने बहुत कुछ लिया है। वह समाज में जिया है, समाज उसमें जिया है। समाज ने उसे गढ़ा, बनाया, तोड़ा, संवारा और समृद्ध किया है। उसने समाज के मन को गढ़ा, बनाया, तोड़ा, संवारा, और समृद्ध किया है। समाज ने उसपर चाट की। उसने उसपर चोट की। लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि समाज का बच्चन समाज विमुख हुआ हो। समाज स्वयं में बुरा नहीं है। समाज में जीना जरूरी है कि आदमी आदमी रहे। समाज से भागकर समाज की बुराई से बचना, यह आदमियत नहीं महा मूर्खता है। शायद इसीलिए बच्चन सामाजिक बच्चन समाज में रहना पसन्द कर सका, उसके और अपने अधिकार और कर्त्तव्य में ताल-मेल बैठा सका और समाज के इन्द्रियबोध को और अपने इन्द्रियबोध को, विवेक से एक करके, काव्य की पंक्तियों में ग्रहणशील बना सका। तभी वह न अराजक था, न है, न रहेगा। तभी आज की सामाजिक अराजकता में भी बच्चन अराजक नहीं है और न समाज में अराजकता चाहता है। अराजकता नकारात्मक होती है। विध्वंसशील होती है। अराजकता की स्थिति स्वीकार कर लेने के बाद कोई भी व्यक्ति काव्य की सृष्टि नहीं कर सकता। बच्चन यह खूब जानता है। यही वजह है कि बच्चन इस समय भी रचना-पर-रचना करता चला जाता है, जैसे उसे कोई बात या घटना कुंठित ही नहीं करती। यह धमाचौकड़ी का माहौल बहुतों को बेतरह पस्त कर चुका है। पर वाह रे बच्चन कि पस्त होना ही नहीं जानता।

सभ्यता और संस्कृति का बच्चन उतना ही दमदार है, जितना दमदार देह का बच्चन, मन का बच्चन, और समाज का बच्चन। बच्चन का जीवन सभ्यता का जीवन है। असभ्यता उसे छू तक नहीं गयी। सभ्यता ने उसे विवेक और बुद्धि दी है। संस्कृति ने उसे मानवीय गरिमा प्रदान की है। शायद इसीलिए बच्चन की कविता सभ्य और संस्कृत है और उसका विकास और इतिहास देश की सभ्यता और संस्कृति के विकास और इतिहास से सम्बद्ध और सम्पृक्त है। तभी उसकी कविता एक स्वस्थ अभिरुचि की कविता है। न वह क्रुद्ध पीढ़ी की कविता है, न वह मृत्योन्मुखी कविता है। बच्चन की कविता सभ्य नागरिक की संवेदनशील कविता है।

सरकार का बच्चन बिका बच्चन नहीं है। वह सरकार का वेतनभोगी रहा है, जरूर रहा है। मगर वैसे नहीं रहा है, जैसे और रहते हैं कि जिसकी खाये उसकी बजाये और बिककर बेजान हो जाये। नहीं कदापि नहीं। बच्चन सरकार का होकर भी सरकार का पिट्ठू नहीं रहा। न उसने सरकार की बेसुरी बाँसुरी बजायी, न उसका खोखला ढोल बजाया, न उसने मान-सम्मान पाने के लिए सरकार के आगे घुटने टेके। स्वाभिमान के साथ और अपनी स्वाधीनता के साथ, बच्चन ने अपना धर्म निबाहा और सरकार का धर्म निबाहा। यहाँ भी दोतरफा निर्वाह करके बच्चन ने कमाल दिखाया। शायद इसीलिए बच्चन की कविता सरकारी प्रशस्ति की कविता नहीं है। शायद इसीलिए बच्चन की कविता सरकारी योजनाओं की कविता नहीं है। बच्चन की कविता में देश का समझदार आदमी बोलता है, सरकार का आदमी नहीं। बहरहाल आजकल तो सरकार और जनता में भेद विभेद है ही। दोनों अच्छी भी हैं और बुरी भी। बच्चन दोनों की अच्छाइयों को देखकर प्रेरित होता है और दोनों की बुराइयों को देखकर क्षुब्ध होता है। यहाँ भी संतुलित दृष्टिकोण ही काम करता है और बच्चन विभ्रम में कभी किसी क्षण नहीं पड़ता।

जनता का बच्चन जनता के साथ साँस लेकर उसके साथ जीता है। जनता के मनोबल का इतिहास उसके मनोबल का इतिहास है। जनता की भावना का ग्राफ उसकी भावना का ग्राफ है। जनता के विचार उसके विचार हैं। उसकी कविता में वह बोलता है और उसके बोल से भारत की जनता का दिल बोलता है। बंगाल में अकाल पड़ा। बच्चन की कविता ने उसे वाणी दी। वैसे भी, आज भी, बच्चन देश की जनता के पक्ष का प्रबल समर्थक है और उसकी बात कहने में नहीं चूकता। बच्चन है, इसीलिए जनता के भाव और विचार की सहज-सरल स्फुरणशील कविता हिन्दी में है।

काव्य का बच्चन पहले आदमी है और फिर कवि। तभी बच्चन का कवित्व आदमियत को अपनाये रहता है और आदमियत में रहकर ही आदमियत की कविता करता रहता है। इसीलिए, शायद इसीलिए बच्चन की कविता में न शब्दों का खेलवाड़ मिलता है, न पांडित्यपूर्ण प्रदर्शन, न गहन-गुरु-गम्भीर निनाद, न चमत्कार, न चीत्कार, न अलंकार, न व्यर्थ का वाक्व्य-विचार, न आत्म दोहन, न दुराग्रह।

मैं ऐसे बच्चन को,अपने बड़े भाई को, हिन्दी के समझदार कवि को, साठ साल पूरा करने पर हार्दिक बधाई देता हूँ और अभी और इतने ही वर्ष तक इनके जीने की कामना करता हूँ। मुझे निकट से भी बच्चन वही लगे जो दूर से लगे। मैं कोई फ़र्क नहीं पाता।

केदारनाथ अग्रवाल

केदारनाथ अग्रवाल (1911 - 2000) प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि थे। 'युग की गंगा', 'नींद के बादल', 'लोक और आलोक', 'फूल नहीं रंग बोलते हैं', 'आग का आईना', 'गुलमेहँदी', 'पंख और पतवार', 'हे मेरी तुम' और 'अपूर्वा' इनके मुख्य काव्य-संग्रह हैं। इनके कई निबंध-संग्रह भी प्रकाशित हैं। आप साहित्य अकादमी तथा 'सोवियत लैंड नेहरू' पुरस्कार से सम्मानित भी हुए।

केदारनाथ अग्रवाल (1911 - 2000) प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि थे। 'युग की गंगा', 'नींद के बादल', 'लोक और आलोक', 'फूल नहीं रंग बोलते हैं', 'आग का आईना', 'गुलमेहँदी', 'पंख और पतवार', 'हे मेरी तुम' और 'अपूर्वा' इनके मुख्य काव्य-संग्रह हैं। इनके कई निबंध-संग्रह भी प्रकाशित हैं। आप साहित्य अकादमी तथा 'सोवियत लैंड नेहरू' पुरस्कार से सम्मानित भी हुए।

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