कविता में अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण

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यह निबन्ध ‘अदबी दुनिया’ लाहौर के 1939 के वार्षिक अंक में प्रकाशित करते हुए इस प्रतिष्ठित पत्रिका के सम्पादक और उर्दू के बुजर्ग साहित्यकार मौलाना सलाहुद्दीन अहमद ने लिखा थाः “प्रोफेसर फैज़ अहमद ने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित लेख लिखा है : ‘शे’र में इज़हार और तर्जुमानी’ (कविता में अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण) सम्भवतः मौलाना हाली का शे’र है :

ऐ शेर, दिलनशीं न हो गर तू तो ग़म नहीं
पर तुझपे हैफ़ है जो न हो दिलगुदाज़ तू

काव्यमर्मज्ञों के यहाँ काव्य के मूल्य को आँकने का जो पैमाना मुक़र्रर है यह शे’र उसको संक्षेप में व्यक्त कर देता है। मगर फैज़ साहब ने अपने मूल्यवान निबन्ध में विस्तार से बताया है कि कविता में सम्प्रेषण का क्या स्थान है। अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण में क्या अन्तर है; और किसी कविता के मूल्यांकन करने का सही स्टैंडर्ड क्या है। लेख बहुत विचारोत्तेजक है, और हमारे आलोचना-साहित्य में एक मूल्यवान योगदान।”

इस निबन्ध में हमें इस मामले पर गौर करना कि रचना का साहित्यिक मूल्य सफल अभिव्यक्ति पर निर्भर है या सफल सम्प्रेषण पर। अगर कवि पढ़ने-सुननेवालों का ख़याल किये बिना केवल अपने सन्तोष के लिए किसी भावना को व्यक्त करने की कोशिश करे तो इस प्रक्रिया को अभिव्यक्ति कहेंगे। अगर कवि यही भावना न केवल व्यक्त करे बल्कि उसे दूसरों तक पहुँचाये तो उसे दूसरों तक पहुँचाने की प्रक्रिया को हम सम्प्रेषण नाम देंगे। इस सिलसिले में दो ज़रूरी सवाल उठते हैं। एक यह कि कविता लिखने से कवि का उद्देश्य क्या होता है? अभिव्यक्ति या सम्प्रेषण? दूसरा यह कि इन दोनों में से कविता को जाँचने का अन्तिम मानदंड कौन-सा है? इस मस्अले को लीजिए कि कविता लिखते वक़्त कवि को अपना सन्तोष अभिप्रेत होता है या दूसरों का? वह कविता पढ़ने या सुनने की कल्पना सामने नहीं रखता; वह किसी अनहोनी भावना या गुमनाम उलझन से असर लेकर कविता लिखने बैठता है और उसका तात्कालिक मकसद यही होता है कि यह भावना एक सुचारु सुन्दर और स्पष्ट रूप में उसके सामने आ जाये, और उस मक़सद का पूरा हो जाना उसके सन्तोष के लिए काफ़ी है। अगर वह दूसरों से प्रशंसा का इच्छुक भी हो तो भी उसे अपना ही सन्तोष उद्दिष्ट होता है। अगर दूसरे भी उसकी भावनाओं को समझें या उनसे प्रभावित हों तो वह उसे आत्माभिव्यक्ति ही की सफलता समझता है। इसके सुबूत में यह कहा जा सकता है कि कवि को किसी निर्जन टापू में छोड़ दिया जाये जहाँ पढ़ने-सुननेवालों का अस्तित्व न हो तो वह शाइरी की हरकत से फिर भी बाज़ न आयेगा।

शायद इस पर यह आपत्ति की जाये कि कविता की बाज़ किस्में ऐसी भी हैं जिनमें सम्बोधन होता ही किसी सुननेवाले से है, और बाज़ कविताएँ लिखी ही इसलिए जाती हैं कि औरों को सुनायी जायें, मसलन ‘कसीदे’, किस्से-कहानियाँ, नीतिपरक सन्देश, इत्यादि। यह भी पूरे तौर पर सही नहीं। यों भी हो सकता है कि कवि किसी व्यक्ति-विशेष, किसी कथा या किसी नैतिक सिद्धान्त से इतना प्रभावित हो कि केवल अपनी भावात्मक प्रक्रिया को अभिव्यक्ति देने के लिए ‘क़सीदा’ या कहानी लिख दे और लिखते वक़्त किसी सुननेवाले का ध्यान भी उसे न आये।

शायद कोई साहब यह एतिराज़ करें कि अगर कवि को हमेशा अभिव्यक्ति ही से मतलब होता है और सम्प्रेषण महज़ इत्तिफ़ाक़ी बात है, जिसका काव्य से सीधा-सादा कोई सम्बन्ध है ही नहीं तो अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण की बहस को यहीं समाप्त हो जाना चाहिए। अगर सम्प्रेषण कविता का मक़सद कभी होता ही नहीं तो सवाल पैदा ही नहीं होता कि सम्प्रेषण उसका उद्देश्य होना चाहिए या नहीं। इसका जवाब यह है कि अभिव्यक्ति की प्रक्रिया स्वयं में ही एक सम्प्रेषण है। जब कवि किसी अप्रकट अनुभूति को प्रकट रूप में पेश करता है तो चाहे या अनचाहे तौर पर उसका सम्प्रेषण भी कर रहा होता है। चाहे यह सम्प्रेषण उसके अपने व्यक्ति ही तक सीमित रहे और दूसरे लोग उसमें शरीक न हो सकें। अब हम इस सवाल पर बहस कर सकते हैं कि उसके सम्प्रेषण को व्यापक होना चाहिए या नहीं। मान लीजिए कि कोई शख्स काग़ज़ पर उल्टी-सीधी लकीरें डालकर कहे कि लो यह है ताजमहल। आप उस काग़ज़ को उलट-पलटकर देखें और फ़रमाएँ कि हमें तो यह यूक्लिड के रेखागणित के पन्द्रहवें सिद्धान्त का विद्रूप मालूम होता है, ताजमहल की तो इसमें कोई बात नहीं। लेकिन वह शख्स इस बात का आग्रही है कि मेरी चेतना में ताजमहल की कल्पना यही है, मैंने अपनी कल्पना की अभिव्यक्ति कर दी, और मैं इसे सफल समझता हूँ। अब यह आपकी बुद्धि में आये न आये, मेरी बला से।

इन हालात में दोनों में से किसकी बात को मान्यता दी जाये और किसका मानदंड सही माना जाये? इसी तरह अगर कवि अपनी कविता में किसी अनुभूति की खुद अपनी दृष्टि में सफल अभिव्यक्ति कर दे, लेकिन हमारे पल्ले ख़ाक न पड़े, तो हम कवि को दोष दें या अपने-आपको? ज़ाहिर है कि कवि रचना को अपने निजी मानदंड से जाँचेगा, और आप अपने मानदंड से। अब यह फैसला कौन करे कि इन दोनों मानदंडों में से अन्तिम और निर्णायक कौन है? आलोचक? लेकिन आलोचक भी तो आख़िर आप ही में से है, और वह जो कुछ कहेगा पढ़नेवाले ही के दृष्टिकोण से कहेगा।

आपको या आपके आलोचक को क्या अधिकार है कि कवि को अपने आदेश की पूर्ति के लिए मजबूर करे, कवि को आत्मसन्तोष हो न हो, आपका मतलब निकल जाये? इसका हम यह जवाब देंगे कि अगर कवि हमें रचना सुनाता है तो उसे हम अपने ही मानदंड से जाँचेंगे। अगर उसे यह मानदंड पसन्द नहीं तो अपनी रचना अपने पास रखे और बड़ी ख़ुशी से पुड़ियाँ बाँधकर उनमें हाजमे का चूरन बेचा करे, हमें क्या एतिराज़ हो सकता है! लेकिन अगर वह हमारा माज़ चाटेगा तो हम उससे मुआविज़ा भी वसूल करेंगे। और वह यही है कि रचना की कल्पना और सृजन में जो आनन्द उसने अनुभव किया है उसमें हमें भी शरीक करे; उसने जो कुछ देखा है हमें दिखाये और जो कुछ सुना है हमें सुनाये। हम कह चुके हैं कि आलोचना के सिद्धान्त हमेशा पढ़नेवाले निर्धारित करते हैं, और पढ़नेवालों के निकट कविता की पहली खूबी यह है कि उसका कथ्य उन तक अधिक से अधिक प्रभावी ढंग से पहुंचे। पहली खूबी इसलिए कि जब तक हम रचना को समझेंगे नहीं, उसकी बाकी खूबियाँ हमें नज़र ही नहीं आयेंगी। कवि की अनुभूति में कितनी व्यापकता और कितनी गहराई क्यों न हो, अगर हम वाजिबी कोशिश के बावुजूद उस अनुभूति को अपनी बुद्धि या भावना में न ला सकें, तो रचना को येन-केन-प्रकारेण सफल नहीं ठहरायेंगे। हम यही कहेंगे कि अव्वल तो विषयवस्तु में कोई अर्थविस्तार नहीं, और अगर है तो कवि की चेतना के अन्दर ही है। कविता के अन्दर से वह प्रकट नहीं होता। सम्भवतः दुनिया की कोई कविता बिल्कुल ही निरर्थक, अर्थहीन नहीं होती, क्योंकि रचना करते वक़्त कवि की चेतना में कोई-न-कोई भाव तो होता ही है। लेकिन हमें प्रत्येक उस पद को अर्थहीन कहने का अधिकार है जिसमें कोई भाव ही न पैदा हो। इसका मतलब यह नहीं है कि हर वह रचना जो फ़ौरन समझ में आ जाये, अच्छी है और हर वह रचना जो समझ में न आये, बुरी है। अगर रचना फौरन समझ में आ जाये तो यह एक खूबी ज़रूर है, लेकिन बहुत सम्भव है कि रचना में बहुत-सी बुराइयाँ हों जो कि इस खूबी को रद्द कर दें; या रचना की विषयवस्तु इतनी पिटी हुई हो कि उस पर ध्यान देने की ज़रूरत ही न पड़े। इस तरह अगर रचना फ़ौरन समझ में न आये तो इसकी वजह यह हो सकती है कि कवि ने रचना में इतने सारे कल्पनासूत्र इकट्ठा कर दिये हैं कि उनका एकदम ध्यान में आ जाना मुश्किल है। इस दशा में हम रचना पर जितना अधिक ध्यान देंगे उतना ही उससे आनन्द उपलब्ध करेंगे और हमें उसमें हर बार कोई नया सौन्दर्य दृष्टिगत होगा।

इस बहस से यह नतीजा निकला कि रचना की सफलता अभिव्यक्ति पर नहीं सम्प्रेषण पर निर्भर है। हम किसी अभिव्यक्ति को उस वक़्त तक सफल नहीं कह सकते जब तक वह दूसरों के लिए सम्प्रेषण का दायित्व पूरा न करे।

यहाँ एक और दिक्कत पेश आती है। कवि की रचना तो बाक़ी रहती है, लेकिन उसका परायण करनेवाले बदलते रहते हैं। बहुत सम्भव है कि कवि की रचना उसके युग के लोग न समझें लेकिन बाद में आनेवाली पीढ़ियाँ उसी की रचनाओं को काव्य का चरम उत्कर्ष समझें। या कोई कवि अपने युग में आसान लेकिन आनेवाले युग में दुर्बोध हो जाय। गालिब ही को लीजिए। ग़ालिब को हम बहुत बड़ा कवि मानते हैं। लेकिन सुना है कि ग़ालिब के युग में उनकी कोई चर्चा न थी, और लोग उन्हें अंडबंड रचना करनेवाला (मुहमलगो) कहते थे। अगर कवि का उद्देश्य सम्प्रेषण या अपनी विषयवस्तु को दूसरों तक पहुँचाना है तो वो लोग भी सच्चे थे और हम भी सच्चे हैं। और इस तरह सम्प्रेषण का कोई अन्तिम मानदंड तो न रहा। इसका जवाब कई तरीकों से दिया जा सकता है। अव्वल तो यह बात ही ग़लत-कि ग़ालिब के ज़माने में उनके कद्रदान नहीं थे। ग़ालिब को सराहनेवालों की उस ज़माने में भी कोई कमी न थी, और ग़ालिब को कोसनेवाले आज भी मौजूद हैं। ग़ालिब से लोगों का मतभेद उसकी विषयवस्तु के कारण नहीं काव्यगत सैद्धान्तिक दृष्टिकोण के कारण था। आख़िर नासिख़ की भी तो क़द्र हुई, और उस्ताद ज़ौक़ का कलाम भी तो ज़्यादा सहज-सरल नहीं। मामला अस्ल में यह था कि लोग शब्दालंकारों को शाइरी का कमाल समझते थे। लेकिन ग़ालिब इस रास्ते से हटकर विशेष रूप से भावनाओं का चित्रण करना चाहते थे। बाज़ लोगों को यह चीज़ मालूम हुई और उसके कलात्मक महत्त्व का अन्दाज़ा न कर सके। दूसरी बात यह कि आजकल भी ग़ालिब की महत्ता उसके सरस-सुबोध शे’रों की वजह से क़ायम है न कि मुश्किल शे’रों की वजह से। अब भी ग़ालिब के बाज़ अशआर हमें उतने ही मुमल (अर्थहीन) मालूम होते हैं जितनी कि डॉक्टर टैगोर की तस्वीरें। पढ़नेवाले बदलते रहते हैं, लेकिन ज़िन्दगी के बुनियादी अनुभव और भावनाएँ नहीं बदलतीं। अगर कवि ने उनका सफल सम्प्रेषण किया है तो उन रचनाओं का मूल्य काल और स्थान की सीमा से बद्ध नहीं। अगर ये सारे तर्क रद्द कर दिये जायें तो भी हम यही कहेंगे कि अगर ग़ालिब को उस युग में दाद नहीं मिली तो इस कारण कि लोग उनके अशआर समझ नहीं सके, और हम उसे दाद देते हैं, इस वजह से, कि हम उसके अशआर समझ सकते हैं। मानदंड फिर भी एक ही रहा-यद्यपि उसकी सीमा और परिधि में परिवर्तन आ गया, इसलिए कि एक अच्छे शे’र या अच्छी कविता की सफलता यही है कि उसकी विषयवस्तु पढ़नेवालों तक सहज ही बरजस्तगी से (तत्काल ही) पहुँचे, ताकि वह उसे समझ सकें, उससे प्रभावित हो सकें, और प्रभाव की इस प्रक्रिया को प्रशंसा के रूप में कवि तक पहुँचायें।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (1911 - 1984) भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात शायर थे, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में इंक़लाबी और रूमानी मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी (तरक्कीपसंद) दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (1911 - 1984) भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात शायर थे, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में इंक़लाबी और रूमानी मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी (तरक्कीपसंद) दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'

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