एकालाप और संलाप

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कुछ लोग दुनिया से बहस करते हैं तो कुछ सिर्फ अपने से, किन्तु कुछ थोड़े से लोग ऐसे भी होते हैं जो दुनिया से बहस करने की प्रक्रिया में अपने-आप से भी बहस चालू रखते हैं। मुक्तिबोध ऐसे ही थोड़े से लोगों में थे और उनकी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ ऐसी ही जीवन्त बहस का सर्जनात्मक दस्तावेज़ है जिसमें भाग लेने का लोभ संवरण करना कठिन है। अपने-आप से या किसी दूसरे से बात करते हुए मुक्तिबोध पाठक को कुछ इस प्रकार उस वार्तालाप का साझीदार बना लेते हैं कि निःसंग रहना कठिन हो जाता है। यह अपनापा संक्रामक है : ‘स्वयं से अस्वयं होना है।’ प्लेटो के ‘डायलॉग्स’ को छोड़कर, मुझे याद नहीं कि मैंने इस तरह कहीं हिस्सा लेने की विवशता का सुखद अनुभव किया हो। लगातार प्रहार करते हुए भी आत्मीयता का वैसा ही सम्मोहन और वैसा ही दुर्निवार निमन्त्रण विचार-प्रक्रिया में स्वतः भाग लेने का। दूसरे से प्रश्न करने के साथ-साथ अपने-आप पर भी उस प्रश्न का वैसा ही वार। और इस प्रकार विचार की गति के साथ अपने-आप को स्तर-स्तर खोलते जाना। न कहीं कोई छिपाव, न कोई दुराव। सतत आत्म-सजगता के बीच आत्म-विडम्बना का निरन्तर निर्मम बोध। यह पारदर्शी ईमानदारी ही है जो मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ को अनूठा आकर्षण प्रदान करती है, जिसे लेखक ने ‘सुकुमार ज्वालाग्राही जादुई शक्ति’ कहा है। मस्तिष्क की हर हरकत हम साफ़ देखते हैं, जैसे शीशे के अन्दर पारे की लकीर हो। ईमानदारी इस हद तक कि युक्तियों में स्वयं पकड़ लिए जाने को भी सहर्ष प्रस्तुत और फिर निरस्त्र कर देनेवाला खुलापन। ऐसा खुलापन जिसमें खोने के लिए कुछ भी न हो, सिवा किसी कमी के और पाने के लिए सबकुछ हो, जैसे आत्म-प्रत्यय।

और फिर ईमानदारी ही जैसे काफ़ी न हो, इसलिए उसके साथ-साथ मस्तिष्क की वस्तुनिष्ठता और तथ्यपरकता, जिसे अक्सर सच्चाई कहा जाता है। साथ ही एक प्रकार की प्रतिश्रुति-धर्मी ‘गम्भीरता’ भी, जो साहित्य में दिलचस्पी-भर लेने से कहीं गहरी हो। जैसाकि एक स्थान पर मुक्तिबोध अपने सहचर के बारे में कहते हैं : “दरअसल, उसके लिए न वे विचार थे, न अनुभूति। वे उसके मानसिक भूगोल के पहाड़, चट्टान, खाइयाँ, ज़मीन, नदियाँ, झरने, जंगल और रेगिस्तान थे। मुझे यह भान होता रहता है कि वह व्यक्ति अपने को प्रकट करते समय, स्वयं की सभी इन्द्रिय शक्तियों से काम लेते हुए एक आन्तरिक यात्रा कर रहा है, वह अपने विचारों या भावों को केवल प्रकट ही नहीं करता था, वह उन्हें स्पर्श करता था, सूंघता था, उनका आकार-प्रकार, रंग-रूप और गति बना सकता था, मानो उसके सामने वे प्रकट, साक्षात् और जीवन्त हों। उसका दिमाग़ लोहे का शिकंजा था या सुनार की एक छोटी-सी चिमटी, जो बारीक-से-बारीक और बड़ी-से-बड़ी बात को सूक्ष्म रूप से और मज़बूती से पकड़कर सामने रख देती है।”

कहने की आवश्यकता नहीं कि यह मानसिक क्षमता स्वयं मुक्तिबोध का आत्म-प्रक्षेपण है और ‘एक साहित्यिक की डायरी’ इसका जीवन्त उदाहरण है। यही अथवा इस प्रकार की बातें कुछ दूसरे लेखकों ने भी कही हैं, लेकिन इस अन्दाज़ में जैसे एक शिक्षक अपने शिष्यों को अथवा सारे संसार को विद्यार्थी समझकर कहता है। किन्तु ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लगता है जैसे मुक्तिबोध अपने किसी समानधर्मा से विचार-विनिमय कर रहे हैं-एक सत्यान्वेषी की तरह हर सम्भव तथ्य को परखने के लिए रुकते हुए और प्रत्येक मान्यता को प्रस्तुत करने के साथ ही उसे जाँचते हुए। यह स्वर ही और है; और मुक्तिबोध के गद्य में उस विशिष्ट स्वर को स्पष्ट सुना जा सकता है। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के मुख्य आकर्षणों में से एक यह ‘स्वर’ भी है। बहुत कम लेखकों का गद्य ऐसा सस्वर या स्वर-संवलित होता है ।

वार्तालाप-शैली में लिखे जाने मात्र से ही ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में यह विशेषता नहीं आ गयी है। लिखने को तो कई लोगों ने वार्तालाप-शैली में आलोचनाएँ लिखी हैं, लेकिन एक नज़र में ही साफ हो जाता है कि वे मूलतः निबन्ध हैं। दरअसल, इसके पीछे एक पूरी जीवन-प्रक्रिया है, जो सदैव निरी आत्माभिव्यक्ति के लिए बेचैन रहते हैं, उनके लिए यह कदापि सम्भव नहीं है। जो व्यक्ति एक साधारण आदमी की तरह अपने आसपास के सामाजिक परिवेश में हिस्सा लेता है और हर परिचित-अपरिचित को सहचर की तरह स्वीकार करते हुए हमेशा उन्मुक्त विचार-विनिमय के लिए प्रस्तुत रहता है उसी के लेखन में भी सम्प्रेषण और सम्भाषण का यह गुण आता है। और साफ दिखाई पड़ता है कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ ऐसी ही सामाजिक जीवन-प्रक्रिया की उपज है। यह संवादी डायरी एक ‘सहयोगी प्रयास’ का आभास ही नहीं देती, बल्कि सहयोगी प्रयास का अहसास कराती है और ऐसे प्रयास के लिए सीधा आमन्त्रण भी देती है।

यह आकस्मिक नहीं है कि मुक्तिबोध की कविताओं में भी प्रायः यही नाटकीय विन्यास है। डायरी में यदि केशव, वीरकर या कोई और मित्र है तो कविताओं में भी कहीं ‘आत्मा का मित्र’ है तो कहीं ‘सहचर मित्र’ और कहीं एक ‘ब्रह्मराक्षस’ तो कहीं मन के अन्दर छिपा बैठा ‘ओरांग उटांग!’

नवलेखन के अन्तर्गत इस प्रकार की नाटकीयता मुक्तिबोध की अपनी विशेषता है-वह विशेषता जिसे टी.एस. इलियट ने ‘कविता के तीन स्वरों’ में से तीसरा स्वर’ कहा है-तीसरा और सम्भवतः सबसे समर्थ।

एक तरह से मुक्तिबोध का सम्पूर्ण कृतित्व एक विशाल नाटक के समान प्रतीत होता है जिसके बीच यदि कविताएँ गीतात्मक सन्दर्भो को व्यक्त करती हैं तो ‘डायरी’ गद्यात्मक संवादों की पूर्ति करती है। इस प्रकार ‘एक साहित्यिक की डायरी’ अपने-आप में पूर्ण एक रचनात्मक गद्यकृति है। इसे कवि की कविताओं को समझने का साधन मात्र मानना, इसके साथ अन्याय होगा। यों भी किसी रचनाकार की रंचना-प्रक्रिया प्रायः अविच्छिन्न और शृंखलाबद्ध होती है, किन्तु मुक्तिबोध-जैसे रचनाकार के यहाँ तो यह और भी अपरिहार्य है, क्योंकि उनके रचनात्मक मस्तिष्क में समग्र वास्तविकता एक साथ ही शतशः जटिलतम सम्बन्ध-सूत्रों से जुड़ी रहती है – यहाँ तक कि किसी एक सम्बन्ध-सूत्र को काटकर सफाई ले आने का प्रयास उन्हें सर्जनात्मक ईमानदारी से स्खलन प्रतीत होता है। इस दृष्टि से ‘एक साहित्यिक की डायरी’ को मुक्तिबोध के सम्पूर्ण काव्य-कृतित्व के अन्तर्गत माना जा सकता है। जो मुक्तिबोध की कविताओं को भी गद्य ही समझते हैं, उन्हें शायद इस कथन से एतराज़ न हो, बल्कि उन्हें तो इस बात से सन्तोष-लाभ ही करना चाहिए।

‘डायरी’ में एक स्थान पर मुक्तिबोध ने लिखा है : “तो फिर ऐसी स्थिति में यह असम्भव नहीं है कि कविता को अनेक क्रमबद्ध गद्य-चित्रों में प्रस्तुत किया जाये। अथवा अनेक क्रमबद्ध गद्य-चित्र कुछ इस तरह आलोकित और दीप्तमान हो उठे कि छन्द बन जायें, गतिमान हो जायें और एक विशेष दिशा की ओर प्रवाहित हो सकें।” यहाँ जिस गतिमयता पर मुक्तिबोध ने ज़ोर दिया है वह वस्तुतः नाटकीयता का ही दूसरा पहलू है और कहने की आवश्यकता नहीं कि एक अनूठी नाटकीय गतिमयता ‘डायरी’ को रचनात्मक कृति की भंगिमा प्रदान कर देती है।

यद्यपि प्रस्तुत रूप में प्रकाशित करते समय डायरी के खण्डों में यादृच्छिक ढंग से क्रम-विपर्यय कर दिया गया है और कुछ अंश छूट भी गये हैं तथापि इस विपर्यस्त और खण्डित रूप में भी ‘डायरी’ को ध्यान से देखें तो इसका विन्यास भी मुक्तिबोध की कविताओं की संघटना-जैसा ही पायेंगे। हर ‘डायरी’ कविता की ही भाँति एक ‘फैंटेसी’ के रूप में परिकल्पित की गयी है जिसमें भाव और विचार मूर्त स्थितियों-वस्तुओं-व्यक्तियों आदि के समूचे जीवन्त सन्दर्भ के साथ उभरते चले जाते हैं। वही परिप्रेक्ष्य और वही संरचना। दोनों विधाओं के पीछे एक ही प्रकार की रूप-कल्पी सर्जना काम करती दिखाई पड़ती है। कहीं-कहीं तो पात्रों, परिस्थितियों और मनःस्थितियों का चित्रण करते-करते ‘डायरी’ के अन्तर्गत कवि मुक्तिबोध गद्य में ही ‘फैंटेसी’ की सृष्टि कर जाते हैं। मित्र केशव के आने का समाचार मिलते ही लगता है कि “किसी तालाब से भाप निकलती हो, भाप की ऊँची उठती हिलकोरती लहरें एक मनुष्याकार धारण कर, ऊँची-ऊँची होती हुई पास-पास आती जा रही हों” और सारा दृश्य भयावह हो उठता है। इसी प्रकार कभी मन के अन्दर झाँकने पर उन्हें लगता है कि “मन एक रहस्यमय लोक है।

उसमें अँधेरा है। अँधेरे में सीढ़ियाँ हैं। सीढ़ियाँ गीली हैं। सबसे निचली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है। वहाँ अथाह काला जल है। उस अथाह काले जल से स्वयं को ही डर लगता है। उस अथाह काले जल में कोई बैठा है। वह शायद मैं ही हूँ।”

। मुक्तिबोध की रचनाओं में इस प्रकार की भयावनी ‘फैंटेसी’ प्रायः मिलती है : कभी ‘ब्रह्मराक्षस’ तो कभी ‘ओरांग उटांग’ और कभी विचित्र वेश-विन्यासवाली सैन्य टुकड़ी का नैश आक्रमण। अँधेरे की एक हल्की सी चादर पड़ते ही सारा दृश्य क्षण-भर में भयंकर दुःस्वप्न के रूप में बदल जाता है। रोज़ की देखी-सुनी, जानी-पहचानी चीजें भी मुक्तिबोध के हाथों इन्द्रजाल में बदल जाती हैं। मुक्तिबोध के अनुसार ये छायाकृतियाँ ये ‘अर्थ-स्वप्न’ हैं। मुक्तिबोध की इस कीमियागरी (ऐलकेमी) की ओर अभी लोगों का बहुत कम ध्यान गया है। जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है : “कुछ पागल लोग, कीमियागर (ऐलकेमिस्ट), लोहे को सोना बनाने की फ़िक्र में लगातार काम करते हुए नष्ट हो गये। कुछ दूसरे ढंग से पागल, जमीन में गड़े ख़ज़ाने को खोजने और कभी भी न पा सकने में इतने मशगूल रहे कि उनकी फेमिली ने, समाज ने, ज़माने ने उन्हें बेवकूफ करार दिया। कई तरह के पागल हुआ करते हैं, और मुझे अब समझ में आने लगा है कि हो न हो, मैं भी उसी श्रेणी में गिने जाने योग्य हूँ।”

उनकी अन्तिम पूर्ण कविता ‘अँधेरे में’ इसी विशाल भयावनी फैंटेसी का रचनात्मक रूप है। यह ‘विज़न’ मुक्तिबोध का नितान्त निजी है जो उनके कृतित्व को एक अनूठा तेजोवलय प्रदान कर देता है। चूँकि यह प्रवृत्ति हिन्दी के समकालीन लेखन के बीच एकदम अलग है, इसलिए काव्य-चर्चा के बीच प्रायः उपेक्षित रह गयी, किन्तु ‘काफ्का’ के पाठक मुक्तिबोध में निश्चय ही आधुनिक भावबोध के इस महत्त्वपूर्ण ‘अर्थ-स्वप्न’ का अनुभव किये बिना न रहेंगे। यहाँ तक कि डायरी भी इस जादुई असर से बच नहीं सकी है, अवश्य यहाँ उसका रूप कुछ और है-किसी को भी दहला देनेवाला निर्मम आत्म-संघर्ष तथा आत्म-साक्षात्कार! इस तेज रोशनी के सामने कुछ भी छिपा सकना असम्भव प्रतीत होने लगता है, क्योंकि यहाँ “आत्म-शान्ति को भंग करके ही कोई लेखक बना रह सकता है-लेखक यानी सच्चा लेखक।”

मुक्तिबोध का आत्म-विश्लेषण नशे की हद तक पहुँचा हुआ है और दूसरों पर भी सम्भवतः नशीली धुन्ध का-सा असर डालता है।

इस प्रकार डायरी की सबसे बड़ी उपलब्धि एक विलक्षण व्यक्तित्व है जो अन्ततः पूरी डायरी से उभरकर सामने आता है। जिस तरह प्लेटो के ‘डायलॉग्स’ की सबसे बड़ी उपलब्धि ‘सुकरात’ जैसा व्यक्तित्व है, उसी तरह एक दूसरे स्तर पर मुक्तिबोध की डायरी की सबसे बड़ी उपलब्धि एक कवि-व्यक्तित्व है जिसके साथ आगे चलकर अनेक प्रकार की किंवदन्तियों के जुड़ जाने की सारी सम्भावनाएँ मौजूद हैं। अनिवार्यतः यह व्यक्तित्व स्वयं मुक्तिबोध का ही हो, कोई आवश्यक नहीं; किन्तु है यह निश्चय ही इस आत्मसजग युग का सबसे आत्मसजग व्यक्तित्व। एक गहरे अर्थ में राजनीतिक, जिसके बिना आज के युग में कोई भी लेखक सार्थक साहित्यकार नहीं हो सकता।

इस व्यक्तित्व की सबसे बड़ी सार्थकता यह है कि इसके माध्यम से मुक्तिबोध ने आज के साहित्य में एक शलाका-पुरुष की स्थापना की है-ऐसा शलाका-पुरुष जो आज की स्थिति के योग्य कवि की भूमिका अदा कर सके। ‘डायरी’ बड़ी स्पष्टता के साथ उस काव्य-पुरुष की परिकल्पना को मूर्तिमान करती है जो सम्भवतः मुक्तिबोध के ख़याल से आज की स्थिति की चुनौती को स्वीकार करने में समर्थ हो। इस कवि-व्यक्तित्व के सही रूप को समझने के लिए, इसी समय की एक दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति ‘आत्मनेपद’ (अज्ञेय) से उभरनेवाले कवि-व्यक्तित्व को बगल में रख लेना अप्रासंगिक न होगा। अज्ञेय के ‘आत्मनेपद’ से बहुत कुछ एक शब्द-साधक ‘एस्थीट’ अथवा सौन्दर्यजीवी का रूप सामने आता है जो एक दायरे में जीवन से पूरी तरह संसक्त होते हुए भी अपने रचना-जगत में सर्वथा निःसंग है-अमानुषिकता की हद को छूनेवाली कलात्मक निःसंगता। इसके विपरीत मुक्तिबोध की डायरी से उभरनेवाला कवि-व्यक्तित्व सामाजिक स्तर पर एक नितान्त सामान्य निम्न-मध्यवर्गीय पारिवारिक प्रणाली है, जिसके लिए कविता अलग से किसी साधना की चीज़ नहीं, बल्कि जीने की जटिल क्रिया का ही एक सहज अंग है, जो समाज से लड़ते हुए भी उसकी सहकारिता को सम्बल के रूप में स्वीकार करता है।

जितना कष्टप्रद इसका अस्तित्व-संघर्ष है उतना ही कष्टप्रद सर्जन-संघर्ष, और जो अपनी निजी पीड़ा को व्यापक मानवीय पीड़ा से अर्थपूर्ण बनाता चलता है। कुल मिलाकर मानवीय-नितान्त मानवीय । मुक्तिबोध ने ‘डायरी’ में जिस प्रकार समकालीन साहित्य में प्रचलित ‘एस्थीट’ के ‘विशिष्ट’ और ‘अद्वितीय’ व्यक्तित्व पर प्रहार किया है, उससे साफ़ मालूम हो जाता है कि वे एक स्थापित कवि-प्रतिभा के स्थान पर साहित्य में एक नये कवि-व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा करने के लिए कितने व्याकुल हैं। शायद यही वजह है जिससे मुक्तिबोध सहसा नयी पीढ़ी के लेखकों के आत्मीय बन्धु हो उठे हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि जिस समय अज्ञेय ने ‘नये कवि के प्रति’ जैसी कविता लिखी, प्रायः उसी के आसपास मुक्तिबोध ने नयी पीढ़ी को सम्बोधित करते हुए ‘ओ काव्यात्मन फणिधर’ जैसी कविता लिखने की आवश्यकता समझी।

‘डायरी’ में कविता पर विचार करने से अधिक कवि-व्यक्तित्व के स्वरूप पर विचार किया गया है-इसी से स्पष्ट है कि मुक्तिबोध आज की स्थिति में कविता की परिभाषा करने से अधिक आवश्यक समझते हैं कवि-व्यक्तित्व का निर्माण। दरअसल जहाँ वे काव्य-क्रिया का विश्लेषण करते हैं, उसकी पृष्ठभूमि में भी उनकी अपनी कवि-सम्बन्धी परिकल्पना ही कार्यरत दिखाई पड़ती है। यह महत्त्वपूर्ण है कि मुक्तिबोध ने कवि-सम्बन्धी परिकल्पना के द्वारा ही काव्य-सम्बन्धी परिकल्पना को भी परिभाषित किया है। यह आकस्मिक नहीं है कि डायरी के संलाप में भाग लेनेवाला चाहे वह वीरकर हो या कोई और, है वह प्रायः निम्न-मध्यवर्ग का कोई कवि-यशःप्रार्थी नवयुवक ही। प्रसंगवश यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ मूलतः हरिशंकर परसाई की ‘वसुधा’ जैसी निम्न-मध्यवर्गीय लघु पत्रिका में शुरू हुई थी और ‘वसुधा’ के बन्द होने पर फिर काफी दिनों बाद ऐसी ही पत्रिका ‘नवलेखन’ में निकली और एकाध शायद ‘कृति’ में भी।

मुक्तिबोध की “आँखों के सामने कई ऐसे साहित्यिकों के दृश्य खिले जो स्वयं बहुत ग़रीब घराने में पैदा हुए थे, किन्तु अब वे अपनी जन्म-धात्री धरती से पराये होकर न उपरली श्रेणी की उपलब्धियों के वास्तविक निष्कर्षों में रम सके, न अपने बन्धु-बान्धवों की पीड़ा-भरी विवेक-दृष्टि ही अपना सके।”

इसलिए उन्होंने नये लेखकों को उनकी अपनी वास्तविक स्थिति के प्रति सचेत करना आवश्यक समझा। डायरी निश्चित रूप से नये लेखकों को वर्ग-चेतन बनाती है-कभी-कभी तो बड़े ही धक्केमार ढंग से। उन्होंने चुनौती के-से स्वर में कहा है कि “हम नहीं कह सकते कि हमारे द्वारा निर्मित साहित्य, समाज तो जाने दीजिए, हमारे व्यक्तित्व का भी सच्चा प्रतिनिधित्व करता है या नहीं। यदि केवल साहित्य से, कोई हमारे व्यक्तित्व का अनुमान करने बैठे तो वह धोखा खा जायेगा। हमने संस्कारवश या प्रवृत्तिवश, एक ख़ास ढंग का ‘कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्स’ साहित्यिक भाव तथा उसकी अभिव्यक्ति की यान्त्रिक उत्तेजना बना रखी है। यह कहाँ तक उचित है?” जिन लोगों का दावा है कि नयी कविता ने ‘नये मानव की प्रतिष्ठा’ की है और जिनका ख़याल है कि नये कवि एक अरसे से ‘व्यक्तित्व की खोज’ में संलग्न हैं, उन्हें इस चुनौती के सामने आकर ईमानदारी से बतलाना चाहिए कि वह ‘मानव’ कहाँ है तथा उस व्यक्तित्व का रूप क्या है?

उस इसी सिलसिले में मुक्तिबोध के इस पर्यवेक्षण से भी इनकार करना मुश्किल होगा कि “हमारे बहुत से कवि और कथाकार, मारे डर वास्तव को नहीं लिखते हैं जिसे ये भोग रहे हैं, क्योंकि ये उस वास्तव से उड़ जाना और उड़ते रहना चाहते हैं। अनुभूत वास्तव का आज जितना अनादर है उतना पहले कभी नहीं था।”

इस प्रकार निम्न-मध्यवर्गीय हीनता-भाव को निर्ममता के साथ उद्घाटित करके मुक्तिबोध ने साहित्य को सचाई की प्राण-शक्ति और वास्तविकता का दृढ़ आधार प्रदान किया। इस प्रवृत्ति के चलते, यही नहीं कि कविता गौण और सिकुड़ी हुई सी साहित्यिक विधा बन चली थी, बल्कि अनजाने ही झूठ का विराट नकली साहित्य खड़ा होने लगा था। निष्प्राण सौन्दर्यवादी रचनाओं के स्थान पर ‘डबरे में सूरज’ का आदर्श मुक्तिबोध की महत्त्वपूर्ण देन है और निश्चय ही यह बोलता हुआ बिम्ब ‘डायरी’ का अनमोल चिन्तामणि है।

मुक्तिबोध ने एक सही बात सही वक़्त पर कही। और जैसा कि राल्फ फाक्स ने एक जगह कहा है : “अच्छा गद्य लिखने की कला चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने की विलुप्त कला है, एक शक्ति है जिसने कठघरे में खड़े दिमित्रोव की वाणी को इतना बलशाली बना दिया था।” वह दिमित्रोव जिसने फासिस्ट जज के मुँह पर कहा था कि “मैं मानता हूँ कि मेरा स्वर कड़ा है और पैना है। मेरे जीवन का संघर्ष भी कड़ा और पैना रहा है। मेरा । स्वर निर्द्वन्द्व और उन्मुक्त है। मैं चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारता हूँ।” “एक साहित्यिक की डायरी’ के गद्य में चीज़ों को सही नाम से पुकारने का नैतिक साहस है। इसलिए उसमें एक तेज़ है-ऐसा तेज़ जो समकालीन लेखन में लगभग दुर्लभ है।

इसी साहस के बल पर मुक्तिबोध ने आगे बढ़कर ‘आधुनिक भावबोध’ के नाम से प्रचलित कुछ विशेष प्रकार के भाव-समुदाय, कुछ विशेष प्रकार की सौन्दर्य-परिकल्पनाओं, एक ख़ास काट और एक ख़ास किस्म की अभिरुचि को ही सर्वस्व मानकर चलनेवाले साहित्य की सीमाएँ स्पष्ट की और साथ ही उसका वर्ग-आधार भी खोल दिया। इस दृष्टि से ‘एक साहित्यिक की डायरी’ हिन्दी में ‘आधुनिक भावबोध’ के अधूरे मानचित्र को पूरा करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास है। जिस समय केवल ‘भावबोध’ का ही मन्त्र-जाप चल रहा है, मुक्तिबोध का यह संशोधन ध्यान देने योग्य है कि “क्या आधुनिक भावबोध ही काफ़ी है? सामन्ती विचारधारा का स्थान लेने के लिए क्या हम उस भावबोध को मूल्य-बोध तक बढ़ाकर उसे एक दर्शन का रूप नहीं दे सकते-ऐसा दर्शन जो नयी सामाजिक परम्परा बनकर व्यक्ति और समाज के जीवन के सभी पक्षों को अनुशासित कर सके? यदि ऐसा न हुआ तो ‘नया’ बिल्कुल प्रवृत्तिमूलक होगा और लोग नयी परम्परा के अभाव में अनेक अन्तःप्रवृत्तियों के दास हो जायेंगे, यही नहीं, बल्कि खण्डनकर्ता खण्डित हो जायेगा। मूर्ति-भंजकों की स्वमूर्ति का सिर काट लिया जायेगा और उसकी छाती फोड़ दी जाएगी।”

इस प्रसंग में मुक्तिबोध का ख़याल है कि अभी तक नये और पुराने के संघर्ष में प्रायः अवसरवादी रुख अपनाया गया है। यहाँ तक कि जीवन से साहित्य को अलग करके एकदेशीय ढंग से नये मूल्यों की प्रतिष्ठा के असफल प्रयत्न हुए हैं। “वस्तुतः इन्हें विकसित करने के लिए केवल साहस ही नहीं स्पष्ट दृष्टि, स्पष्ट लक्ष्य और स्पष्ट विचारधारा के लिए कोशिश आवश्यक है।” क्योंकि “आत्म-साक्षात्कार बहुत आसान है, स्वयं चरित्र-साक्षात्कार अत्यन्त कठिन है।”

चूँकि कुछ लोगों ने मुक्तिबोध के आत्म-संघर्ष को इस प्रकार उछाला है कि उनकी अपनी आस्था पर परदा पड़ जाये, इसलिए उल्लेखनीय है कि उनके अनुसार : “उत्तर के सिंहासन पर शंका को बैठाने का मतलब है अपनी समस्या में प्रश्न ही का आदर्शीकरण करना, समस्या में फँसे रहने का उदात्तीकरण,” और यह अनुचित है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि “मैं अपनी अनास्था से शुरू होकर आस्था में आ जाता हूँ जबकि वे आस्था से शुरू होकर अनजाने ही या जानते में भी मात्र शुद्ध अनास्था में विलीन होने लगते हैं।” क्या यह सच नहीं है कि “आजकल रंगमंच पर अनास्था नाटक करती है और आस्था नेपथ्य में बैठकर सूत्र-संचालन करती है?”

इसी तरह कुछ लोगों को भ्रम है अथवा वे जानबूझकर यह भ्रम फैलाना चाहते हैं कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ वस्तुतः रचना-प्रक्रिया की पाठ्य-पुस्तक है। निस्सन्देह इधर कुछ दिनों से हिन्दी में रचना-प्रक्रिया का बड़ा शोर है और हर रचनाकार नामधारी व्यक्ति अपनी रचना-प्रक्रिया समझाने में हलकान हो रहा है-भय है, कहीं सारा लेखन रचना-प्रक्रिया ही न प्रतीत होने लगे। परन्तु तथ्य यह है कि अज्ञेय, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय-जैसे कुछ थोड़े से ही रचनाकार हैं जो सचमुच रचना-प्रक्रिया की वास्तविक अर्थवत्ता से परिचित हैं, क्योंकि इन्हें ही रचना-प्रक्रिया में निहित जोखिम का अनुभव भी है। इसलिए यहाँ यह संकेत कर देना आवश्यक है कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ एक व्यापक अर्थ में रचना-प्रक्रिया का ग्राफ-चित्र भले ही हो, वस्तुतः वह उत्तरशती की जटिल जीवन-प्रक्रिया का जीवन्त दस्तावेज़ है। फकत एक सौ सोलह पृष्ठों की छोटी-सी गद्यकृति किन्तु जितने गहरे अर्थों में वह इस दशक के ‘प्रामाणिक’ भारतीय मानव को प्रक्षेपित करती है, कुछ ही कृतियाँ कर सकी होंगी। और इधर जिस तरह कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध आदि विधाएँ अपने रूपगत रूढ़ ढाँचे का विवश निर्वाह करने की क्रिया में व्यापक जीवन से हटती जा रही हैं, ऐसी ही गद्यकृतियाँ उत्पन्न होंगी जिन्हें किसी पूर्वप्रचलित विधा के अन्तर्गत रखना मुश्किल होगा। वैसे विधा की चिन्ता साहित्यशास्त्री करें और उन्हें रोक भी कौन सकता है, लेकिन जिनकी दिलचस्पी आज के परिवेश के बीच अपने को समझने में है, उनके लिए मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ निश्चय ही एक सार्थक वैचारिक मानचित्र का काम देगी, क्योंकि यह शुद्ध ‘साहित्यिक’ डायरी नहीं, बल्कि डायरी है एक ‘साहित्यिक की’-सम्पूर्ण साहित्यिक की।

मुक्तिबोध ने कुछ यों ही नहीं कहा है कि “जो व्यक्ति साहित्यिक ने दुनिया से जितना दूर रहेगा, उसमें अच्छा साहित्यिक बनने की सम्भावना उतनी ही ज्यादा बढ़ जायेगी। साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन आवश्यक है।” स्पष्ट ही साहित्यिक दुनिया से दूर रहने का अर्थ दुनिया के निकट रहना है और ऐसी बात वही आदमी कह सकता है जो कि सचमुच साहित्य के दमघोंट, तंग और दूषित दायरे से स्वयं बाहर रहता आया हो और जो कि, हम सभी जानते हैं, मुक्तिबोध स्वयं थे। साहित्य से निर्वासन लेकिन साहित्य के लिए-साहित्य को जीवन्त रखने के लिए, उसे जीवन के ताज़ा अनुभवों से निरन्तर समृद्ध करने के लिए और दूर से एक व्यापक तथा सही परिदृश्य में समकालीन साहित्य को देख पाने के लिए। इसी परिदृश्य-बोध के कारण मुक्तिबोध आज की साहित्यिक स्थिति के बारे में ऐसी बहुत-सी बेलाग बातें कह सके जिन्हें भीतर-ही-भीतर अनुभव तो हममें शायद हर-एक करता है, किन्तु कहने में पहल कर सके तो मुक्तिबोध ही। इस दृष्टि से एक ‘बाहरी’ आदमी के रूप में, आज की कहानी के सम्बन्ध में उनके विचार बेहद ताज़ा हैं।

आज के इतिहास के अभूतपूर्व दबाव का एहसास उनमें इतना गहरा था कि उन्हें अन्ततः साहित्य की सीमा का भी बोध हो गया था। इसीलिए स्वयं एक साहित्यकार होते हुए भी मुक्तिबोध यह कहने का साहस कर सके कि “साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा करना मूर्खता है।” क्योंकि “साहित्य मनुष्य के आंशिक साक्षात्कारों की बिम्ब-मालिका भर तैयार करता है।” इस कथन से, सम्भव है, हमारे साहित्यिक अहं को कुछ चोट लगे, किन्तु वस्तुस्थिति से इनकार करना कठिन है; और यह भी एक विडम्बना ही है कि साहित्य के अवमूल्यन का आभास देते हुए भी लगे हाथों मुक्तिबोध साहित्य की एक वैज्ञानिक परिभाषा भी दे गये। डायरी में यत्र-तत्र इसी प्रकार के अनेक विचार-स्फुलिंग बिखरे हुए हैं-कुछ केवल प्रश्न के रूप में तो कुछ ‘साधारण प्रतिज्ञा’ के रूप में ही, जिन पर अलग से विस्तृत चर्चा चलाकर हम अपनी साहित्य-समीक्षा को समृद्ध कर सकते हैं; किन्तु एक वात बरावर याद रखनी होगी कि प्रत्येक विचार-विनिमय आत्म-साक्षात्कार के साथ ही आत्म-चरित्र का भी साक्षात्कार होगा और वह भी अन्ततः मानव-साक्षात्कार की परिणति के साथ।

साहित्य की व्याख्या करनेवाली पुस्तकें तो बहुत हैं, किन्तु साहित्य की धारा को बदलनेवाली विचारोत्तेजक पुस्तकें एकाधिक दशक बाद आती हैं और मुझे लगता है कि मुक्तिबोध की यह ‘डायरी’ एक ऐसी ही क्रान्तिकारी कृति है-विशेषतः नवलेखन के लिए।

(1964)

(यह लेख ‘वाद, विवाद संवाद’ पुस्तक में भी है जो 1989 में प्रकाशित हुई है।)

नामवर सिंह

नामवर सिंह (28/07/1926 – 19/02/2019) हिंदी के शीर्षस्थ शोधकार, समालोचक रहे. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं.

नामवर सिंह (28/07/1926 – 19/02/2019) हिंदी के शीर्षस्थ शोधकार, समालोचक रहे. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं.

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