नामवर सिंह के पत्र मुक्तिबोध के नाम

1 min read

1.

लोलार्क कुंड, भदैनी
वाराणसी-1
1 मई 1957

प्रिय भाई मुक्तिबोध जी,

आज रात विष्णु ने आपका पत्र दिया। देर रात तक उसे पढ़ता रहा अर्थात् लिखी हुई पंक्तियों के बीच में प्रवाहित होनेवाली अनलिखी (?) आत्मीयता के बीच बहता रहा। और अब सोचता हूँ तो लगता है कि यह आत्मीयता आकस्मिक नहीं है। ‘समानधर्मा’ शब्द आपने एकदम ठीक प्रयोग किया है, उस पर आपत्ति! और मुझे! वह तो मेरी सम्पत्ति है।

कितनी बार आपको लिखने का विचार आया, आज वह सब कहना बेकार है। कहने के लिए बहुत-सी बातें थीं और समझ में नहीं आता कि कहाँ से शुरू करें।

‘नया खून’ के अंक आते ही रहते हैं। सोचा, एक बार, किसी को लेकर कुछ लिख भेजूं : कम-से-कम कृतज्ञता-ज्ञापन का सौजन्य तो दिखाना चाहिए। लेकिन पता नहीं क्यों, वैसा पत्र मुझसे नहीं लिखा जा सका। फिर एक दिन अप्रैल की वसुधा में ‘साहित्यिक की डायरी’ देखी तो लगा कि मेरे मन की बात आपने निकालकर बाहर रख दी है। बातें तो उसमें कई हैं जैसे ‘साहित्य के लिए, साहित्य से निर्वासन आवश्यक है’, ‘आधुनिक भावबोध में वह हिस्सा शामिल नहीं है जो आवेश मूलक है’ आदि; लेकिन ‘अपने द्वारा तैयार की गयी निःसंगता’ की ‘दुधारी तलवार’ तो जैसे मेरे अपने ही सीने पर रखी हुई दिखाई पड़ी।

उस अलिखित पत्र में मैं ये तमाम बातें लिखना चाहता था लेकिन बहुत चाहता था इसलिए न लिख सका। अच्छा हुआ कि ‘कवि’ के इस नोट ने वह जिच दूर कर दी। और आपने चूँकि पत्र लिखा है इसलिए उस नोट को मैं पत्र ही समझता हूँ।

‘आजकल’ में ‘नई कविता’ पर नेमि जी का लेख देखकर भी इसी तरह मुझे पत्र लिखने की इच्छा हुई थी लेकिन अभी तक वह इच्छा ही है। इलाहाबाद में जब तक वे थे, यूँ ही पत्रों का सिलसिला चालू था : आपसी बातचीत का सिलसिला कायम रखने के लिए पत्र अनिवार्यतः बन गये थे। अब तो सब कुछ पहाड़ मालूम होता है। खैर।

नई कविता का मैं तो एक विद्यार्थी हूँ : समझना चाहता हूँ। उसके सम्बन्ध में अपने विचारों का विश्लेषण करना चाहता हूँ। पिछले दो साल से जगह-जगह मुझे पुराने संस्कार वाले तथा एकदम अबोध, नई पीढ़ी के युवकों के बीच ‘नई कविता’ पर बोलने का अवसर मिला है : जहाँ मुझसे ‘नई कविता’ के नये भाव-बोध के ठोस उदाहरण माँगे गये। यथाशक्ति मैंने उनकी माँग का कुछ भाग पूरा किया, लेकिन इन गोष्ठियों ने मेरे अपने अज्ञान को स्वयं मेरी ही आँखों के सामने लाकर पहाड़ की तरह खड़ा कर दिया। तब से मैं अपनी ही कठिनाइयों से लड़ रहा हूँ। प्रगतिवाद के ‘रूढ़’ संस्कार और निजी अनुभवों के बीच का संघर्ष भी कम नहीं है इसलिए आजकल मैं ‘नई कविता’ पर एक छोटी-सी समीक्षा की पुस्तक केवल अपने लिए तैयार कर रहा हूँ। काश, कविता, कहानी, उपन्यास की तरह समीक्षा भी स्वान्तःसुखाय (साथ ही आत्मबोधाय) लिखने की परम्परा हिन्दी में चल पाती!

पुस्तक पूरी होने पर छपने से पूर्व आपके और नेमि के पास विचारार्थ भेजूंगा। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप लोगों के विचारों का पूरा लाभ उठाऊँ। इस तरह के निजी सम्पर्क से जितना काम हो सकता है, उतना ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के पुनर्जीवित करने से नहीं हो सकता। चाहे आप मुझे व्यक्तिवादी या स्वार्थवादी कहें, लेकिन भारी-भरकम संगठनों से मेरी तबियत ऊब गयी है। आधी उम्र बीत गयी और शेष दिन ऐसे व्यर्थ के कामों में नहीं गँवाना चाहता। ऐसे काम करने के लिए नेताओं की कमी नहीं है।

अगर वे लोग ज़ोर मारेंगे तो अपनी शक्ति के अनुसार हम लोग भी योग देंगे। लेकिन उनसे हमें कोई सही दिशा मिलेगी, इसकी उम्मीद कतई नहीं है। उनमें से अधिकांश जन उच्च कोटि के अवसरवादी हैं; उनके लिए विचार कपड़े हैं; किसी भी समय बदल सकते हैं और उसे dialectics का नाम दे सकते हैं; हमारा तो मरण है। यह हमसे न होगा।

इसलिए मेरे प्यारे भाई प्रगतिशील लेखक संघ और आन्दोलन की बात छोड़िए। जब ‘उपयुक्त अवसर’ आयेगा तो जिलानेवाले बहुत मिलेंगे। आप क्या समझते हैं कि हमारे नेता लोग इस ओर से बेखबर हैं। इस संगठन से लाभ उठाने का अवसर आते ही वे सारा आलस्य छोड़कर उठकर खड़े होंगे जैसे सात साल पहले 1950 में दिल्ली में उनकी मुस्तैदी दिखाई पड़ी थी, वैसे ही एक दिन आप देखेंगे कि एक कान्फ्रेंस होने जा रही है।

इन सब बातों का उत्तर रचना के द्वारा ही दिया जा सकता है। यदि जनता की शक्ति में हमारा दृढ़ विश्वास है तो एक बात जो दृष्टि हमें प्राप्त हो गयी है, उसे बदलती हुई परिस्थितियों के बीच निरन्तर आँजते और माँजते हुए हम साहित्य-रचना का काम कर सकते हैं और वह साहित्य सच्चे अर्थों में प्रगतिशील होगा; वह किसी नेता के निरामि का मोहताज नहीं होगा।

आशा है, आप इसी तरह अपनी रचनाओं तथा पत्रों के माध्यम से मुझे शक्ति और सहयोग देते रहेंगे। आप विश्वास रखें, इस पथ पर हम अकेले नहीं हैं : ऐसे समानधर्मा अनेक हैं।

सस्नेह आपका
नामवर

पुनश्च : संयोग से मैं मई-जून की छुट्टी बिताने आपकी तरफ आ रहा हूँ। रायगढ़ में एक मित्र हैं : कोयले की खान में मैनेजर। उनके साथ कुछ दिन हीराकुंड बाँध, पुरी, कोणार्क, विशाखापट्टनम वगैरह का चक्कर लगाकर दो-एक दिन रायपुर में बिताते हुए सम्भव हुआ तो जून में किसी समय नागपुर में आऊँगा। और आऊँगा तो आपको पहले ही सूचित कर दूंगा-ना। :

श्री गजानन माधव मुक्तिबोध
230, भारती भवन, तेलघानी रोड
गणेशपेठ, नागपुर


2 .

लोलार्क कुंड, भदैनी
वाराणसी-1
21.2.58

भाई मुक्तिबोध जी,

आपका पत्र मिला। यह सोचकर बड़ा संकोच हुआ कि आप झंझटों में थे और मैंने आपके सामने बेकार की साहित्यिक चर्चा छेड़ दी। खैर, कविताओं के संकलन का कार्य आप इतमीनान से कीजिएगा।

अभी इतना ही कहना है कि जबलपुर का साहित्य समारोह 9 मार्च रविवार को हो रहा है और परसाई तथा गुरु के पत्र के अनुसार काशी से पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को लेकर मैं वहाँ पहुँच रहा हूँ। क्या आप भी उस अवसर पर वहाँ आ सकेंगे? यदि आपको सुविधा और अवकाश निकल सके तो ज़रूर आइए। बहुत-सी काम की बातें करनी हैं जो मिलकर ही हो सकती हैं।

आशा है, आप अब निश्चिन्त होंगे।
शेष मिलने पर।

आपका
नामवर

श्री गजानन माधव मुक्तिबोध
230, भारती भवन, तेलघानी
रोड गणेशपेठ, नागपुर


3.

लोलार्क कुंड,
भदैनी वाराणसी-1
15.9.60

आदरणीय भाई मुक्तिबोध जी,

आपका पत्र मिलने के बाद मैंने अन्तिम रूप से रायपुर न जाने का फैसला कर लिया है। इसलिए उस सम्मेलन की बात अपने लिए ख़त्म।

श्रीकान्त जी का पत्र कृति-विशेषांक के लिए आया है और इससे मालूम हुआ कि वे अब एकदम कविता-विशेषांक ही निकालना चाहते हैं। इलाहाबाद में नरेश भाई से मुलाकात हुई थी तो यही मालूम हुआ कि उनका आग्रह कविता-विशेषांक पर ही है। खैर, अब विचारों के स्पष्टीकरण वाली योजना छोड़ देनी पड़ेगी-यानी योजना का वह सैद्धान्तिक रूप जो आपने सोचा था और मुझे भी जो ज़्यादा ज़रूरी लगा था। उसके लिए आगे कार्यक्रम बनाया जायेगा।

लेकिन कविता-विशेषांक को भी उसी दृष्टि से निकालना होगा। कविता-सम्बन्धी चर्चा काफ़ी हो चुकी है-यहाँ तक कि इस चर्चा ने विचार का एक ख़ास दायरा बना दिया है जो काफी तंग हो चुका है। तमाम लोग उसी दायरे के अन्दर चक्कर काटते दिखाई देते हैं इसलिए ज़रूरत perspective ठीक करने या विस्तृत करने की है।

इस सिलसिले में एक सूचना दे दूँ कि प्रयाग के परिमलियों की पत्रिका ‘नई कविता’ का नया अंक निकलने ही वाला है जिसमें एक सिम्पोजियम आ रहा है-‘क्या नई कविता निस्तेज हो रही है?’ इसमें लिखने के लिए मुझसे भी कहा गया था, लेकिन मैंने स्वीकार नहीं किया। फिर उन लोगों ने ‘भाषा’ पर लिखने का सुझाव रखा। कुछ सोच-विचार के बाद मैंने हाँ कर दिया। खैर।

एक बार आपसे नई कविता के उदय कालीन इतिहास की चर्चा हुई थी-एक अरसे से मेरे दिमाग में वह सवाल चक्कर काट रहा है। भाषावाले निबन्ध में मैं उसी पर विचार करना चाहता हूँ अर्थात् पूर्ववर्ती कविता से मुक्ति पाने के लिए 1940 के आसपास किन-किन दिशाओं से और किस-किस प्रकार के प्रयत्न हुए-ख़ास तौर से भाषा-निर्माण के क्षेत्र में। मुझे बार-बार लगता है कि अज्ञेय के नेतृत्व ने तारसप्तक कालीन विराट काव्यान्दोलन को आगे गलत दिशा में मोड़ दिया; स्वरूप आरम्भिक प्रयोगों के जीवन्त तत्त्व क्रमशः उपेक्षित होकर भी बैकग्राउंड में चले गयेतत्कालीन प्रगतिशील मार्गदर्शन नहीं मिल सका। जो हो, अब वह समय आ गया है कि पूरी बात सामने रखी जाये क्योंकि नयी पीढ़ी ने अज्ञेय वाली sophisticated प्रवृत्ति को दरकिनार करके नये स्रोतों की खोज शुरू कर दी है। मैं तो खैर लिलूँगा ही, लेकिन क्या आपके लिए यह सम्भव नहीं है? मेरी सीमा यह है कि मुझे उस संक्रान्ति काल का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है। आप उस इतिहास के निर्माताओं में से हैं-आपका और शमशेर का तत्कालीन ‘संस्मरण’ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो सकता है। बेहतर हो ‘कृति’ में आप इसी पर लिखें-मैं ‘कृति’ में कुछ और लिखना चाहता हूँ। क्या? अभी तय नहीं किया है।

‘लहर’ में प्रकाशित परिमलियों के ‘मूल्य’ सम्बन्धी परिसंवाद के बारे में आपने बहुत ठीक सुझाव दिया है। हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए। लेकिन एक बात बताइए-क्या हमारी चर्चा का आधार भी ‘मूल्य’ की category होगा?

मेरे विचार से इस category को मानकर आगे चलना ही गलत शुरुआत है। दरअसल उनका विचार सिर के बल खड़ा है और उस पर आक्रमण करने के लिए पहले उसे पैर के बल खड़ा करना होगा। विस्तार से इस पर फिर कभी।

नवम्बर में ही सही। आपकी कविताओं को इस साल पुस्तकाकार निकलना ही है। मुद्रण की व्यवस्था इलाहाबाद या बनारस में होगी, प्रकाशक भले ही साथी बुक डिपो, सागर रहे। हम चाहते हैं कि बोर्जुआ रुचि को चुनौती देता हुआ निकले।

जहाँ तक आपकी कविताओं के बारे में मेरी आलोचना-चर्चा का सवाल है, आप चाहते हैं तो मुझे भी संकोच छोड़कर निवेदन करना होगा-(संकोच आपका नहीं, अपनी समझ का)। अच्छा, अब अगले पत्र में। कुशल से तो हैं न आप?

आपका
नामवर

श्री गजानन माधव मुक्तिबोध
प्राध्यापक, हिन्दी विभाग
दिग्विजय कॉलेज, राजनांदगाँव


4.

लोलार्क कुंड,
भदैनी वाराणसी-1
1.8.61

आदरणीय भाई मुक्तिबोध जी,

आपकी ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ पुस्तक मिल गयी। विज्ञापन देखकर पुस्तक की एक प्रति के लिए आपको लिखने ही वाला था कि प्रकाशक ने स्वयं ही (अथवा आपके निर्देश के अनुसार) कृपापूर्वक भेज दी। अधिकांश पढ़ गया लेकिन दो-एक मेहमान आ गये इसलिए अभी पुस्तक ख़त्म नहीं कर सका। आपने इतनी नयी बातें कही हैं कि एक विस्तृत समीक्षा की अपेक्षा है और शीघ्र ही इसकी रिव्यू लिखने जा रहा हूँ। अभी यह निश्चय नहीं किया है कि किस पत्रिका में भे। अन्ततः आपकी यह चिरप्रतीक्षित पुस्तक प्रकाशित देखकर बेहद खुशी हुई।

पुस्तक पढ़ते समय एक बात खटकी कि ‘ मार्क्सवादी जार्गन’ से सामान्य पाठक भड़क न जाये। मेरा ऐसा ख़याल है कि हम लोगों को वर्तमान स्थिति में इस ‘जार्गन’ से बचना चाहिए। आपका क्या ख़याल है? अब वसुधा में प्रकाशित ‘डायरी’ जितनी जल्दी प्रकाश में आ जाये उतना ही अच्छा।

और आजकल आप क्या कर रहे हैं? कृपया ख़बर दें। मैं मज़े में हूँ।

आपका
नामवर

श्री गजानन माधव मुक्तिबोध
प्राध्यापक, हिन्दी विभाग
दिग्विजय कॉलेज, राजनांदगाँव (म.प्र.)

नामवर सिंह

नामवर सिंह (28/07/1926 – 19/02/2019) हिंदी के शीर्षस्थ शोधकार, समालोचक रहे. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं.

नामवर सिंह (28/07/1926 – 19/02/2019) हिंदी के शीर्षस्थ शोधकार, समालोचक रहे. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं.

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