भारतीय परम्परा में अनुवाद

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जैसा कि हम सब जानते है कि भाषा एक माध्यम है, हमारे अभिव्यक्ति का, इसके द्वारा हम अपने विचारों एवं भावनाओं को एक दूसरे के साथ साझा करते हैं। भाषा का विकास मानव सभ्यता के विकास की सबसे मुख्य नींव है। हमारे जीवन की मूल भूत इकाई है भाषा। बिन भाषा के मानव जीवन की कल्पना भी मूर्खतापूर्ण बात लगती है। भाषा का जन्म और इसका विकास यक़ीनन उतना ही पुराना है जितनी पुरानी हमारी सभ्यता है। भाषा के द्वारा ही संस्कृतियों का आदान प्रदान होता है। संस्कृति और भाषा एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का अलगाव संभव ही नही है। ये दोनों एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। ऐसा अक्सर देखा गया है या देखा जा सकता है कि लोगों को काफ़ी परेशानी होती है जब वे दूसरी भाषा के लोगों से संपर्क स्थापित करना चाहते हैं। इन सभी परेशानियों का हल है अनुवाद, जहाँ एक भाषा की अभिव्यक्ति को दूसरी भाषा के द्वारा समझा जाता है। अतः अनुवाद का हर किसी के जीवन में एक प्रमुख योगदान है और यह संस्कृतियों और भौगोलिक भूमि के बंधनों को तोड़ती है।

किसी भाषा में कही या लिखी गयी बात का किसी दूसरी भाषा में सार्थक परिवर्तन अनुवाद (Translation) कहलाता है। अनुवाद का अस्तित्व प्राचीन काल से ही है।

संस्कृत में ‘अनुवाद’ शब्द का मुख्य अर्थ शिष्य द्वारा गुरु की बात के दुहराए जाने, पुनः कथन, समर्थन के लिए प्रयुक्त कथन, आवृत्ति जैसे कई संदर्भों में किया गया है। संस्कृत भाषा के ‘वद’ धातु से ‘अनुवाद’शब्द की उत्पत्ति हुई है। ‘वद्’ का अर्थ है बोलना। ‘वद्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय जोड़ देने पर भाववाचक संज्ञा में इसका परिवर्तित रूप है ‘वाद’ जिसका अर्थ है – ‘कहने की क्रिया’ या ‘कही हुई बात’। ‘वाद’ में ‘अनु’ उपसर्ग उपसर्ग जोड़कर ‘अनुवाद’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है, प्राप्त कथन को पुनः कहना। इसका प्रयोग सर्वप्रथम रूप में मोनियर विलियम्स ने अँग्रेजी शब्द ट्रैन्स्लेशन (translation) के पर्याय के रूप में किया है । इसके बाद ही ‘अनुवाद’ शब्द का प्रयोग एक भाषा में किसी के द्वारा प्रस्तुत की गई सामग्री की दूसरी भाषा में पुनः प्रस्तुति के संदर्भ में किया गया।

अनुवाद की भारत जैसे देशों में अपनी एक मुख्य भूमिका है जहाँ बहुत भाषाओं का प्रयोग होता है। भारत में अधिकांश लोग जाने – अनजाने ही बहुत लंबे समय से अनुवाद का प्रयोग बिना इसके नियम और उपयोग के करते आ रहे है।

भाषों के विभिन्नता के कारणों में बेबल टावर वाली कथा सबसे लोकप्रिय है जिसका जिक्र बाइबिल ( जेनेसिस 11:1-9 ) में मिलता है। मान्यताओं और कथाओं के अनुसार जो भी हो भाषओं के विकास ने अनुवाद को जन्म दिया है क्योंकि आधुनिकता और वैश्विकरण के इस युग में एक भाषा के जानकार को दूसरी भाषा की जानकारी अनुवाद के द्वारा ही मिलती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में होने के कारण हमें एक से ज्यादा भाषाओं की जरूरत होती है। भारत में अनुवाद का स्वरूप विश्व के अन्य देशों की तुलना में बिल्कुल ही अलग है।

अनुवाद मुख्य रूप से कला है। लेकिन इसे विज्ञान और शिल्प भी माना जाता है। यह एक भाषा के अर्थ को दूसरी भाषा में प्रस्तुत करता है। भारत में मुख्य रूप से दो भाषा परिवार है – आर्य और द्रविड़ भाषा परिवार। अनुवाद का भारत जैसे देशों में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। भारत के संविधान ने मुख्य रूप से २२ भाषाओं का उल्लेख किया है जैसे – गुजराती, हिंदी, डोगरी, कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलगु, संस्कृत, सिंधी, संथाली, उर्दू इत्यादि। इसलिए अनुवाद की कोई सटीक या निश्चित परिभाषा संभव नही है। अनुवाद यक़ीनन कविता के जैसा है। अमेरिकी कवि रोबर्ट फ्रॉस्ट के अनुसार – कविता वही है जो अनुवाद में मिली हुई है या खोई हुई है। जबकि बाद के आलोचकों ने अनुसार – कविता रचना के क्रम में ही खोई हुई है। अनुवाद का स्वरूप और प्रयोग काफ़ी प्राचीन काल से ही बदलते आ रहे हैं।

अनुवाद के सिद्धांत भाषा के व्याकरणीय विस्तार से 1960 के दशकों के बाद से बहुत ही बदले हैं। 1970 के दरमियान अनुवाद का लेखनीय प्रयोग ने बहुत ही व्यापक ढंग से छोटी और निजी भाषाओं को जानने में अहम भूमिका निभाई है। इसने अलग – अलग संस्कृतियों और सामाजो के रंग रूप को भी समझने में काफी मदद की है।

पश्चिमी देशों में अनुवाद को द्वितीय और सामान्य रचना मानी जाती है बल्कि भारत में अनुवाद को मुख्य और प्रारंभिक रचना मानी जाती है। श्री अरविंदो ने अपनी रचना “अनुवाद में स्वतंत्रता” में लिखा है – एक अनुवादक को किसी शब्दों और  अक्षरों के मूल अर्थ के साथ बंधना नहीं चाहिए, अनुवादक इससे अपनी कृति रचने के लिए स्वतंत्र है और यह अक्सर ही होता है।

भारत में अनुवाद के अनेक प्रकार देखे जा सकते है जिसमें से कुछ धार्मिक किताबों और धर्म से जुड़े होते है। अनेक आलोचकों ने इसे देखा, पढ़ा, समझा और इसे लिखा भी है। मिनी चंद्रन ने अपनी शोध में लिखा है – भारतीय अनुवादकों को दूसरी भाषा में अनुवाद करते वक़्त समान अर्थ को लेकर कुछ परेशानियाँ होती है। वास्तव में बिना यह जाने हुए की आप किसके लिए अनुवाद कर रहे है, अंग्रेज़ी का अनुवादक कुछ चीजों को जोड़ने के लिए विवश होता है जिससे संस्कृति का बंधनों से आना जाना निश्चत होता है।

पुराने समय में संस्कृत भारत ही मुख्य भाषा थी। लेकिन कालांतर में भारत में अन्य भाषाएं भी मुख्य धारा में आयीं। भारत में अनुवाद बस धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद तक ही नहीं रहा । यह क्षेत्रीय भाषाओं को वैश्विक स्तर पर लाने के लिए भी प्रयोग किया गया। इसलिए वृहत मात्रा में किताबों को संस्कृत भाषा से दूसरी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं और अन्य विदेशी भाषओं में परिवर्तित और पुनःरचना की गई।

अनुवाद हमेशा नई रचना के जैसा रहा इसलिए भी यह भारत में मुख्य रूप से एक नई लिखने की कला के जैसा रहा। प्रेम नंद कुमार के अनुसार भारतीय साहित्य समाज और इसकी सादगी ही नई लेखन प्रणाली की जननी रही। वह कहती है कि भारत का जड़ सनातन धर्म वेदों, उपनिषदों और हिन्दू धार्मिक ग्रंथों जैसे – रामायण, महाभारत, गीता इत्यादि से जुड़ा हुआ है और यह सभी मूल रूप से संस्कृत में ही लिखा गया है। इन सभी  के  अनुवाद रचनात्मक लेखन कहलाए।

भारीतय अनुवाद के तीन रूप है – रूपांतरण मतलब रूप का बदलना, भाषांतर मतलब भाषा का बदलना और अनुवाद जिसका मतलब के बाद या इसके बाद होता है । भारतीय अनुवाद का विकाश और महत्व समय समय पर बदलता ही गया है।  मध्यकालीन समय में संस्कृत भाषा बाहरी आक्रमणों और युद्धों के कारण अपने पतन की ओर अग्रसर रही और इसने सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और व्याकरणीय बदलाव लाएँ। उदाहरण के लिए – मुगलिया साम्राज्य ने पर्शियन भाषा पर जोड़ दिया और यह उस काल की मुख्य भाषा रही। बाबर की प्रसिद्ध जीवनी मौलिक रूप से चगताई में लिखी गई थी लेकिन बाद में बैरम खान ने इसे पर्शियन भाषा में अनुवादित किया। अकबर के समय में महाभारत अनुवाद को भी देखा जा सकता है। दारा शिकोह के प्रसिद्धि के पीछे उपनिषदों और भागवत गीता का पर्शियन भाषा में अनुवाद करना एक मुख्य वजह रहा। इन अनुवादों ने लोगों को अलग अलग भाषओं और संस्कृतियों को समझने में काफ़ी सुविधा प्रदान की।

इस प्रकार अनुवाद के विस्तार ने भारत में अपनी सकारात्मक पथ हासिल कर लिया।

गुलामी से पहले ही भारत ने अनुवाद को एक नई रचना प्रणाली का दर्ज़ा दे दिया था लेकिन जब भारत अंग्रेज़ो का गुलाम बना यह अनुवाद के क्षेत्र में अंग्रेजी अनुवादकों और उनकी रचनाओं से लाभान्वित हुआ। एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक सर विलियम जोंस जब कलकत्ता आए उन्होंने संस्कृत सीखकर कालिदास की बहुत प्रसिद्ध किताब अभिज्ञानसकुन्तलाम का अनुवाद अंग्रेज़ी में किया।

कुछ श्रोतों के अनुसार चार्ल्स विल्किन्स वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने हिन्दू धार्मिक ग्रंथ भागवत गीता का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इन अनुवादों ने अंग्रेजों को भारत में हुकुमत करने में काफी सहायता की क्योंकि इन अनुवादों से उन्हें यहाँ की धार्मिक और सांस्कृतिक चीजों की समझ प्राप्त हुई।

अंग्रेज़ों का भारत में कॉलोनी बनाना उन्हें भारत में अंग्रेज़ी कर विस्तार करने में काफी मददगार साबित हुआ। लार्ड मैकॉले की मिनट ऑन एजुकेशन 1835 ई. के पॉलिसी के द्वारा अंग्रेजी सीखना जरूरी कर दिया गया जिसका भारतीयों पर सीधा – सीधा प्रभाव पड़ा। इसने अंग्रेजी भाषा में कई भारतीय अनुवादकों को जन्म दिया।

सन 1828 ई. में ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राम मोहन रॉय ने भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा के परिचय और प्राथमिकता में अपनी सहमति जताई वही हेनरी डिरोजियो ने अपनी कविता की किताब अंग्रेजी में द फ़क़ीर ऑफ जंगीरह के नाम से लिखी। सी. वी. रामास्वामी ने भी अपनी कृति डेक्कन पोएट्स और दूसरी रचनाओं के लिए सन 1829 में प्रसिद्धि कमाई। यह माना जाने लगा कि भारीतय क्षेत्रीय भाषाओं के अंग्रेज़ी अनुवादों से अंग्रेज़ी भाषा में प्रवीणता हासिल कर सकते हैं ।

भारतीय अनुवाद या अनुवाद के काम भारत में मुख्यतः अंग्रेज़ों ने 18वी सदी में प्रारम्भ किया लेकिन भारतीयों ने इसमें 19वीं सदी में अपनी रचनाओं के अनुवाद कर भाग लिया।

भारतीय अनुवाद का प्रयोग और इसका पाठ एक लंबे काल से करते हुए आ रहे हैं लेकिन अभी भी अनुवाद के क्षेत्र में भारतीय सिद्धान्त या नियमावली नही है।

इंद्रनाथ चौधरी अपने लेख अनुवाद की ओर भारीतय सिद्धान्त में लिखते हैं –  क्या कारण है कि एक बहुभाषीय देश जिसकी सभ्यता 5000 वर्षों से भी प्राचीन है उसने कभी अनुवाद के किसी सिद्धान्त की रचना क्यों नहीं की न ही कभी इसकी स्वस्थ चर्चा हुई, अगर बहुत विस्तार से नहीं तो कम से कम अनुवाद की प्रकृति, इसकी कार्य प्रणाली और नियमों की ही चर्चा।

सर कृष्णमूर्ति कहते हैं कि भारत एक व्याकरणीय गढ़ है और इसी के अनुसार कोई भी कह सकता है कि भारत एक अनुवाद गढ़ है। बहुभाषीय होने के कारण हम एक से कहीं ज्यादा भाषाओं में बोलते और सोचते हैं। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्यों एक भी अनुवाद की आलोचनात्मक किताब कला या विज्ञान का रूप धारण करते हुए पाणिनि के अष्टधायी या तोलकपिर की तोलकपिउम या भरत की नाट्यशास्त्र के बराबर नहीं है। यह माना जाता है कि भारत में एक मुख्य भाषा के लोग जिन्हें अपने मुख्य भाषा पर गर्व है वो लोग इसके दोषी हैं।

सुनीति कुमार चटर्जी के शब्दों में यह जाना बहुत ही महत्वपूर्ण और रोचक रहेगा।

अधीनता की छाप अभी भी हमारे ऊपर है और इसकी दाग अभी भी हमे प्रभावित कर रही है। आधीनता काल में भारत में तीन कारणों ने अनुवाद के प्रति झुकाव  बनाया – पश्चिमीकरण, नव- जागरण और राष्ट्रवाद। भारत में अनुवाद के कार्यों को राजनीतिक परिपेक्ष्य से भी देखा जा सकता है। आधुनिक भारीतय भाषाएँ ऐतिहासिक रूप से संस्कृत भाषा से जुड़ी हुई है। भारत की साहित्यिक परंपरा संस्कृत से संबंधित है जिसने आधुनिक अनुवाद के क्षेत्र में बहुत ही विशिष्ट कार्य किये है। उदाहरण के लिए आधुनिक समय में मराठी भाषा जनानेश्वरी एक मुख्य अनुवाद है। भारतीय अनुवाद का संबंध उनसे भी है जो भारीतय साहित्यिक पुरातत्वों को संजोने का कार्य कर रहे हैं। यह उनसे भी संबंधित है जो भारतीय भाषाओं को पश्चिमी तरीक़े से प्रस्तुत करना चाहते हैं और वे जो भारीतय भाषाओं से राष्ट्रवाद की भावना विकसित करना चाहते हैं। अधीनता काल में बहुत ही वृहद रूप से अंग्रेज़ी पुस्तकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ लेकिन आधीनता काल के बाद भारतीय क्षेत्रीय लेखकों और भारतीय क्षेत्रीय किताबों का अनुवाद भारत में हुआ।

इन चीजों ने विडंबना की स्थिति उत्पन्न की और इससे भारीतय अंग्रेज़ी लेखकों और भारीतय क्षेत्रीय लेखकों के मध्य दूरी और प्रतिस्पर्धा ने जन्म ले लिया। दोनों का दावा था कि वे अत्यधिक योग्य है और वे ही भारतीयता और भारत की संस्कृति को प्रस्तुत करते है। भाषा लेखकों ने अंग्रेज़ी के अनुवादकों और भारीतय अंग्रेज़ी लिखने वाले लेखकों की आलोचना आरम्भ कर दी क्योंकि अंग्रेज़ी एक विदेशी भाषा थी। वे मानते थे कि रचना का काम संस्कृत और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में होना चाहिए क्योंकि ये हमारी अपनी भाषा है।

वर्तमान समय में बहुत द्विभाषीय लेखक है जैसे कमला दास, जयंत महापात्रा, मनोज दास, मनोहर मालगोंकार इत्यादि। वे लेखक जिन्होंने स्वयं ही अपनी रचना का अनुवाद किया वे स्वयं अनुवादित कहलाये जैसे – रविन्द्र नाथ टैगोर, गोपीनाथ मोहते, विजय तेंडुलकर, यू. आर. अन्नमुर्ति और गिरीश कन्नड़। वर्तमान समय में भारत में अनुवाद और इसका क्षेत्र बहुत ही बड़ा है। भारीतय आलोचना सिद्धान्त ने अनुवाद के रूप को भारत में काफी प्रभावित किया है। भारीतय लेखन विधि जैसे रस, ध्वनि इत्यादि का सामान या बराबर अर्थ अन्य भाषाओं में नही मिलता है। भगवान श्री कृष्ण की रास क्रीड़ा का अनुवाद संभव नही लेकिन अगर इसका अनुवाद किया जाता है तो सही अर्थों में इसका रस और संगीत समाप्त हो जाएगा और बस एक नाम मात्र रह जाएगा ‘प्रेम खेल’ जो कि सही और उचित अनुवाद नहीं होगा।

भारतीय रचनाएँ मूलतः तब अनुवादित होती है जब लोग मूल भाषा की रचना को काफी पसंद करते है और बाकी भाषाओं के लोग भी इसके प्रति अपनी रूचि प्रस्तुत करते है।

दृढ़ रचनाओं को अनुवादित किया जाता है जिससे कि पाठक आसानी से रचनाकार की भावना को समझ सके। एक बार रामानुजन ने कहा था –

“अनुवाद कभी सम्पूर्ण या पूरा नहीं होता , यह हमेशा परित्यक्त रहता है।”

भारत में अनुवाद की क्रिया को मुख्य कला के रूप में लिया जाता है और अनुवादकों को कलाकार का दर्ज़ा मिलता है। विदेशी भाषाओं की शिक्षा में अनुवाद की विधि एक मुख्य भूमिका निभाती है और भारत में प्राथमिक शिक्षा देने में भी अनुवाद का योगदान रहता है। दूसरी महत्वपूर्ण अवलोकन से यह भी मालूम चलता है कि भारतीय विश्विद्यालय अनुवाद की शिक्षा एक विषय के रूप में जाहिर कर रही है जिसे स्नातक और परास्नातक कि शिक्षा में हम देख सकते है यही नही शोध के विषयों में भी लोग अनुवाद को चुन रहे है। वर्तमान समय में भारत में अनुवाद की परंपरा बहुत ही मजबूत रूप में है।

कुछ प्रसिद्ध प्रकाशक भी है जो अनुवाद की क्रिया को बहुत ही बड़े पैमाने पर चला रहे हैं मकमिल्लन और कथा इसके मुख्य उदाहरण हैं। अतः भारतीय अनुवादक मूल रूप से रचनात्मक है। बहुत सी खाने पीने की भारतीय वस्तुओं के नाम दूसरी विदेशी भाषाओं में है। भारत जैसे देश में अनुवाद भाषा, विचार, संस्कृति, रीत – रिवाज़ इत्यादि को एक भाषा से दूसरी भाषा में जोड़ने का सबसे मुख्य स्तंभ है। भारतीयों के लिए बिना अनुवाद वैश्विक स्तर पर संबंध स्थापित करना असंभव है। अनुवाद में भारतीय साहित्य में मुख्य योगदान है। यह अनुवाद ही है जिसके कारण हमारे ऐतिहासिक साहित्यिक धरोहर जो कि संस्कृत, प्राकृत और अपभाषा में थे आज संग्रहित और सुरक्षित है। यह अनुवाद ही है जिसके कारण भारतीय साहित्य अब लगभग सभी मुख्य भाषाओं में उपस्थित है और भारतीय साहित्य और संस्कृति को कोई भी पढ़ सकता है। क्रांति, कला, जीवन शैली, अविष्कार, खोज इत्यादि सब अनुवाद से जुड़े हुए हैं।

भारतीय अनुवाद पश्चिमी सिद्धांतों पे आश्रित है लेकिन आज भी भारतीय अनुवाद परम्परागत विधियों को ही अनुसरण कर रहा है। भारतीय अनुवाद मुख्य है और यह किसी से कम नहीं है यह पश्चिमी अनुवाद के बराबरी में ही अपनी उपस्थिति रखता है।

सत्यम सोलंकी
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सत्यम सोलंकी मूलतः दलसिंहसराय, बिहार से हैं। आपकी  पहचान एक युवा कवि व अनुवादक के रूप में है। आपसे satyamsholankey@gmail.com पे बात की जा सकती है।

सत्यम सोलंकी मूलतः दलसिंहसराय, बिहार से हैं। आपकी  पहचान एक युवा कवि व अनुवादक के रूप में है। आपसे satyamsholankey@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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