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कविता एक पेशा है

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नेरुदा के लिए कविता कोई शौक की चीज नहीं थी कि गाहे-बगाहे, स्वांतः सुखाय, जब मन में आया लिख लिया और जब इच्छा नहीं हुई, महीनों उसकी ओर झाँका भी नहीं। कविता उनके लिये जिन्दगी का दूसरा नाम थी। इसीलिए उन्होंने कविता को अपनी जीविका बताया। ‘ममायर्स’ के लगभग 75 पृष्ठों के एक लम्बे अध्याय का शीर्षक है : ‘कविता एक पेशा है।’

आइए, हम देखते हैं कि कविता से नेरुदा के सरोकार की असली सूरत क्या थी? कवि और कविता को समझने और समझाने के क्रम में उन्होंने क्या छोड़ा और क्या पाया।

नेरुदा ने अपने इस अध्याय का प्रारम्भ सांतियागो के एक सब्जी बाजार के कुलियों के सामने किये गए काव्य-पाठ के अनुभवों से किया है, जिसका यहाँ विस्तृत उद्धरण काफी दिलचस्प होगा। इस अध्याय की शुरूआत इस प्रकार की गई है : “युद्धों, क्रान्तियों और जबर्दस्त सामाजिक उथल-पुथल के चलते हमारे समय की यह विशेषता रही है कि जितनी किसी ने कल्पना न की होगी, उससे कहीं ज्यादा कविता के लिए जमीन तैयार हुई है।…

“मैंने जब अपनी पहली अकेली किताब लिखी, मेरे दिमाग में कभी भी यह बात नहीं आई थी कि मैं, बीतते वर्षों के साथ, अपनी कविताओं को पढ़ता हुआ चौराहों, सड़कों, कारखानों, भाषण के प्रेक्षागृहों, थियेटरों और बगीचों में देखा जाऊँगा। मैं अपने देश के लोगों के बीच बीज की तरह अपनी कविता को बिखेरते हुए वास्तव में चीले के हर कोने में गया।

“सांतियागो, चीले के सबसे बड़े और लोकप्रिय बाजार वेगा सेंटर में मेरे साथ क्या बीता, मैं यहाँ उसे रख रहा हूँ। इस भुख्खड़ राजधानी में तड़के सुबह इर्द-गिर्द के सभी शाक-सब्जियों के खेतों से सब्जियों, फलों और अन्य खाने की चीजों को लेकर आने वाली ठेलागाड़ियों, घोड़ागाड़ियों, बैलगाड़ियों और ट्रकों की अन्तहीन लाइन लगी रहती है। बाजार के एक विशाल यूनियन थी, जिसके सदस्यों को बहुत थोड़े पैसे मिलते थे और जो अकसर नंगे पैर हुआ करते थे-कॉफी की दुकानों, कच्चे घरों और वेगा के पड़ोस की सस्ते खाने की दुकानों में झुंड-के-झुंड घूमते रहते थे।

“एक दिन एक आदमी ने आकर मुझे गाड़ी में बैठाया और मैं बिना यह जाने कि मुझे कहाँ और क्यों जाना है, चल पड़ा। मेरी जेब में मेरी एक किताब Espana en el corazon (स्पेन मेरे हृदय में) की एक प्रति थी। गाड़ी में उन्होंने मुझे बताया कि मुझे वेगा मार्केट के कुलियों के यूनियन हॉल में एक भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया है।

“जब मैं उस फटीचर हॉल में घुसा तो मेरे अन्दर जोसे असुनसियन सिल्वा की कविता “निशाचर” की तरह की एक सिहरन दौड़ गई, सिर्फ इसलिए नहीं कि वहाँ इस कदर ठंडक थी, बल्कि इसलिए क्योंकि वहाँ के परिवेश से मैं सन्न था। लगभग पचास लोग वहाँ टोकरों पर अथवा कामचलाऊ बेंचों पर बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ ने अपनी कमर पर ऐप्रोन की तरह बोरा बाँध रखा था, अन्य पैबन्द लगी गंजियां पहने हुए थे, और बाकी लोग बिलकुल नंगे बदन चीले की जुलाई की ठंड की मार सह रहे थे। मैं एक छोटी-सी मेज के पीछे बैठ गया जो मुझे उन असामान्य श्रोताओं से अलगा रही थी। वे सभी मुझ पर, मेरे देश के लोगों की कोयले की तरह की काली आँखों को गाड़े हुए थे।

“मुझे बूढ़े लाफरेत की याद आ गयी। ऐसे बिलकुल प्रशान्त दर्शकों को, जो अपने चेहरे की शिराओं को जरा भी नहीं हिलाते बल्कि अपनी आँखों को आप पर गाड़ देते हैं, उसने एक नाम दिया था, उसे याद कर मैं अन्दर ही अन्दर मुस्कुराया। एक बार एक नाइट्रेट के पैंपा में, उसने मुझसे कहा था : “देखो, हॉल के अन्त में, उस पंक्ति में उझक कर, दो मोहम्मडन हमें घूर रहे हैं। उन्हें सिर्फ उन चोगों की जरूरत हैं और वे रेगिस्तान के निडर जेहादी दिखाई देने लगेंगे।

“मैं कैसे ऐसे श्रोताओं से निपटू ? मैं उनसे क्या बात करूँ? मेरी जिन्दगी की ऐसी कौन-सी चीज है, जिसमें उनकी दिलचस्पी होगी ? मैं तय नहीं कर पाया, लेकिन वहाँ से भाग खड़े होने की अपनी इच्छा को छिपाते हुए मैंने अपने साथ लायी हुई किताब को निकाला और उनसे कहा : “मै कुछ दिनों पहले स्पेन में था। वहाँ काफी लड़ाई और गोलीबारी चल रही है। सुनिये, मैंने उसके बारे में क्या लिखा है।”

“मैं कहूँ कि खुद मुझे मेरी किताब ‘स्पेन मेरे हृदय में’ कभी कोई सरल किताब नहीं लगी। उसमें स्पष्ट होने की कोशिश है, लेकिन वह दुर्दमनीय और वेदनादायी घटनाओं के तूफान में निभज्जित है।

“बहरहाल, मैंने सोचा कि मैं चन्द कविताएँ सुनाऊँगा, थोड़ी-सी बात कहूँगा और अलविदा कहके चल पढूँगा। लेकिन वैसा हुआ नहीं। एक के बाद एक कविता को पढ़ते हुए, मौन के गहरे कुएँ को सुनते हुए जिसमें मेरे

शब्द गिर रहे थे, मेरी कविताओं को इतनी गम्भीरता से पकड़ती उन आँखों और गहरी भवों को निहारते हुए मुझे लगा कि मेरी किताब सही निशाने पर लग रही है। अपनी खुद की कविता की ध्वनि से प्रभावित, उस चुम्बकीय शक्ति से मुग्ध जो मेरी कविताओं और उन परित्यक्त आत्माओं को बाँधे हुए थी, मैं एक के बाद एक कविता पढ़ता ही चला गया।

“घंटे भर तक यह पाठ का कार्यक्रम चलता रहा। जब मैं जाने वाला था, उन लोगों में से एक खड़ा हुआ। वह उनमें से एक था जिसकी कमर में बोरा लपेटा हुआ था। उसने कहा, “मैं आपको हम सबकी ओर से धन्यवाद देना चाहता हूँ। मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूँ कि आज तक किसी और चीज ने हमें इतना प्रभावित नहीं किया।”

“उसने जब अपनी बात को खत्म किया, वह अपनी सुबकी को रोक नहीं सका। और भी कई रो रहे थे। मैं नम आँखों और खुरदुरी हथेलियों के बीच से बाहर सड़क पर आया।

“आग और बर्फ की ऐसी परीक्षाओं से गुजरने के बाद भी क्या कोई कवि पहले जैसा ही रह सकता है ?”

नेरुदा ऐसे ही तमाम अनुभवों और चुनौतियों से गुजर कर नेरुदा बने थे।

नेरुदा ने इस अध्याय में इटैलियन क्रान्तिकारी और एक असाधारण फोटोग्राफर टिना मोडोत्ती का जिक्र किया है जिसे अपनी जिन्दगी और मौत पर भी कितनी सारी बदनामियों को झेलना पड़ा था। नेरुदा बताते हैं कि किस प्रकार उसकी मौत के पश्चात् लिखी गई उनकी कविता ‘टिना मोडोत्ती मर चुकी है’ ने झूठी बदनामी करने वाले सब लोगों के मुँह को बन्द कर दिया था। इस कविता के बाद मेक्सिको के अखबारों में उसके खिलाफ एक शब्द नहीं लिखा गया था।

कैसे नेरुदा की कविता ‘स्तालिनग्राद के लिए नए प्रेम गीत’ ने लोटा के हजारों खदान मजदूरों को झुमा दिया था। कैसे, जवानी के दिनों में ही एक कवि के रूप में उनकी पहचान ने उन्हें गुंडों के हाथों पिटने से बचाया। जो गुंडा पाब्लो की पिटाई के लिए उद्धत था, उसी ने जब उन्हें पहचान लिया तो खुद को कोसने लगा और अपनी प्रेमिका की तस्वीर थमाते हुए कहने लगा कि “वह मुझसे तुम्हारी वजह से प्यार करती है, डान पाब्लितो। तुम्हारी कविताओं को हम दोनों ने दिल में बसाया है।” और यह कहता हुआ वह उनकी कविताएँ सुनाने लगा।

अपने ऐसे कई अनुभवों को दोहराने के बाद पाब्लो कविता के बारे में लिखते हैं :

“इतनी सारी कलाकृतियाँ …दुनिया में अब उन्हें रखने की जगह नहीं है।…उन्हें कमरों के बाहर लटकाना होगा।…कितनी किताबें…कौन पढ़ेगा…दुनिया किताबों की बाढ़ में डूब रही है…कविता अपने पाठकों से अपना सम्पर्क गँवा चुकी है, वह उसकी पहुँच के बाहर है…उसे वापस लाना है…उसे अँधेरे में चलते हुए आदमी के हृदय का, औरत की आँखों का, सड़क के अनजान राहगीरों का सामना करना है जो गोधूलि में अथवा तारों भरी रात के मध्य में कविता की कम-से-कम एक पंक्ति की तमन्ना करते हैं…अनपेक्षित तक की यह यात्रा तमाम दूरियों को तय करने, हर पढ़े-गुने से ज्यादा उपयोगी है…हमें उन लोगों के बीच में खो जाना है जिन्हें हम जानते नहीं हैं, ताकि वे अचानक सड़क से, धूल से, उसी जंगल में हजारों वर्षों से गिर रहे पत्तों से हमारा कुछ उठा लें…और हमने जो चीज बनायी उसे सहेजें…तभी हम सच्चे अर्थ में कवि होंगे…कविता उस चीज में जिन्दा रहेगी…।”

नेरुदा आगे भाषा के सवाल पर आते हैं और कहते है कि किस प्रकार स्पैनिश भाषा सर्वान्तीस के बाद एक मुलम्मा चढ़ी हुई दरबारी भाषा हो गई है। “उसने गोनजालो द बर्सिओ और हिता के आर्कप्रीस्ट की वहशियाना ताकत को गँवा दिया है, क्यूवेडो में जो जननांगियों की आग अब भी जल रही है, उसे खो दिया है। यही चीज इंगलैंड में, फ्रांस में, इटली में हुई है। चौसर और साथ ही रेबेलाइस के बेतुकेपन का बंध्याकरण कर दिया गया है; पेट्रार्क से विरासत में मिली मूल्यवान शैली ने पन्ने और हीरे में चमक पैदा की, लेकिन महानता का स्रोत खुद सूखने लगा है।”

“इन प्रारम्भिक प्रसिद्धजनों को सम्पूर्ण आदमी, उसकी स्वतंत्रता, विस्तार की उसकी प्रकृति, उसकी अतियों, सबकी फिक्र थी।

नेरुदा कहते हैं : “मेरी कविता का यदि कोई अर्थ है तो वह बिना किसी बाधा के अन्तरिक्ष तक में फैलने की यही प्रवृत्ति है, कमरे के अन्दर बन्द रह कर खुश होने की नहीं। मुझे खुद अपनी सीमित दुनिया को तोड़ कर फैलना है, इसकी झलक दूरदराज की संस्कृति के किसी ढाँचे में भी नहीं मिलती है। मुझे खुद जैसा ही रहना है, जिस धरती पर मैं पैदा हुआ उसी की एक शाखा के रूप में फैलना है। इसी गोलार्द्ध के एक और कवि, मैनहटन के मेरे कामरेड, वाल्ट व्हिटमैन ने इस पथ पर मेरी सहायता की है।”

इस प्रकार नेरुदा ने भाषा के सन्दर्भ में अपनी कविता के बुनियादी उद्देश्यों पर, मनुष्य को हर लिहाज से मुक्त करने और विस्तार देने पर प्रकाश डाला। इस अध्याय में एक हिस्से का उपशीर्षक है : आलोचक भुगते।

इसके शुरू में ही नेरुदा ने कवि के बारे में आलोचकों द्वारा बनायी गई उस अवधारणा को आड़े हाथों लिया है कि कवि हमेशा “खपरैल वाले मकान में रहने वाला, फटे जूतों वाला, अस्पताल और मुर्दाघर’ में पाया जाने वाला जीव होता है।” नेरुदा कहते हैं कि वे दिन अब नहीं रहे। नेरुदा लिखते हैं : “कवियों को खुश रहने का अधिकार है, जब तक कि वे हमारे देश की जनता के करीब हैं और उनकी खुशियों की लड़ाई में शामिल हैं।

‘पाब्लो मेरी पहचान के लोगों में से एक सुखी आदमी है,’ इल्या एहरेनबुर्ग ने एक जगह लिखा है। मैं वही पाब्लो हूँ, और एहरेनबुर्ग गलत नहीं था।” जिन आलोचकों को कवियों के बेहतर जीवन-स्तर से गुरेज था, उनसे नेरुदा ने कहा कि वे शुक्र मनाएँ कि इन कवियों ने उन्हें काम करने और उस पर ईमानदारी से जिन्दा रहने के लिए कुछ सौंपा है।

कविता में छोटी और लम्बी पंक्तियों की तरह की फिजूल की नुक्ताचीनी पर टिप्पणी करते हुए नेरुदा लिखते हैं : “दूसरे लोग मेरी पंक्तियों की लम्बाई को यह साबित करने के लिए मापते हैं कि मैं उनकी बोटी-बोटी काट देता हूँ या उन्हें काफी लम्बा खींच देता हूँ। इसका कोई अर्थ नहीं है। छोटी अथवा लम्बी, संकरी या चौड़ी, पीली या लाल लाइनों के लिए किसने नियम बनाया है? कवि जो लिखता है, वही तय करता है कि क्या क्या हों। वही इसे अपनी सांसों और अपने लहू से, अपनी बुद्धि और अपनी अज्ञानता से तय करता है, क्योंकि यह सब कविता की रोटी को बनाने में लगता है।”

“जो कवि यथार्थवादी नहीं वह मृत है। और जो कवि सिर्फ यथार्थवादी है वह भी मृत है। जो कवि सिर्फ अतार्किक है उसे वह खुद और उसके प्रिय ही समझेंगे, और यह काफी दुखजनक है। जो कवि पूरी तरह तार्किक है उसे तो गधे भी समझ लेंगे और यह भी भयावह रूप से दुखदायी है। इसके कोई निश्चित कायदे-कानून नहीं है, ईश्वर अथवा शैतान द्वारा सुझाये गए निश्चित तत्त्व नहीं है, लेकिन ये दोनों महोदय कविता के क्षेत्र में हमेशा युद्ध छेड़े रहते हैं, और इस युद्ध में कभी एक जीतता है तो कभी दूसरा, लेकिन कविता को खुद को कभी परास्त नहीं किया जा सकता है।”

इसी अध्याय में आगे नेरुदा यह भी लिखते हैं कि वे मौलिकता के कायल नहीं है। “यह भी हमारे समय का एक भ्रम है, जो अब तेजी के साथ टूट रहा है।”

इसमें नेरुदा अनेक लोगों के बारे में अपने संस्मरणों और अपनी अवधारणाओं का उल्लेख करते हैं। उनमें से कइयों के बारे में हम पहले ही जिक्र कर आए हैं, जैसे स्तालिन, फिदेल अथवा चे ग्वारा। ऐसे और भी अनेक लोग हैं। यहाँ हम अब सिर्फ चीले की कम्युनिस्ट पार्टी से नेरुदा के सरोकार की चर्चा करेंगे कि किस प्रकार नेरुदा ने उससे अपने जीवन में सादगी का पाठ पढ़ा था। इसका वर्णन करते हुए ये लिखते हैं कि गैब्रियल गार्सिया मारमचेजने उन्हें बताया था कि कैसे मास्को में उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘चन हे स ईयर्स आफ सालीच्यूड’ के कुछ कामुक प्रसंगों को काट दिया गया था। जब उन्होंने प्रकाशक से इसकी शिकायत की तो प्रकाशक ने मासूमियत से जवाब दिया कि इससे उपन्यास का कुछ नहीं बिगड़ा है। इस घटना पर नेरुदा की टिप्पणी थी।

“कैसे इन चीजों को ठीक किया जा सकता है? हर दिन, मेरा समाजशास्त्र का जान कम होता जाता है। अपने सामान्य मावर्सवादी सिद्धांतों, पूँजीवाद के प्रति अपनी नापसन्दगी और समाजवाद के प्रति आस्था के साथ ही मुझे मनुष्यता के निरंतर चले आ रहे अन्तर्विरोध कम समझ में आने लगे हैं।”

वे आगे लिखते हैं, “हम, इस युग के कवियों को एक चयन करना पड़ा था। यह चयन फूलों का बिस्तर नहीं है। भयानक, अन्यायपूर्ण युद्ध, अनवरत दबाव, धन की आक्रामकता, हर दिन हर अन्याय को अधिक-से-अधिक सघनता से हम भोगते हैं। पुरानी क्षयिष्णु व्यवस्था ने सशर्त ‘स्वतंत्रता’, सेक्स, हिंसा और आसान मासिक किश्तों के भुगतान पर दिए जाने वाले सुखों को अपने फंदे में लगा रखा है।

“आज के कवि ने अपनी यंत्रणा से निकलने का रास्ता खोजा है। कुछ रहस्यवाद में पलायन कर गए हैं अथवा विवेक के स्वप्न में। बाकी नौजवान स्वतःस्फूर्त और विध्वंसक हिंसा से मुग्ध हैं; वे तत्कालवादी हो गए हैं बिना इस बात को समझे कि आज की संघर्षपूर्ण दुनिया में इस अनुभव ने हमेशा दमन और निर्बीज यंत्रणा की ओर धकेला है।

“मेरी पार्टी, चीले की कम्युनिस्ट पार्टी में मुझे सादे-सीधे लोगों का एक बड़ा समूह मिला है जो अपनी अहम्मन्यता, स्वेच्छाचार और भौतिक हितों को काफी पीछे छोड़ आए हैं। ऐसे आम शालीनता, न्याय के लिए लड़ रहे ईमानदार लोगों को जानकर मुझे खुशी हुई।

“मुझे अपनी पार्टी से कभी कोई परेशानी नहीं हुई, जो काफी विनम्र रही है, फिर भी चीले की जनता, मेरे लोगों के लिए उसने असाधारण जीतें हासिल की है। इससे अधिक मैं और क्या कह सकता हूँ? मेरी सिर्फ यही उम्मीद है कि मैं अपने कामरेडों जितना ही सीधा-सादा रहूँ, उनके जितना ही दृढ़ और अजेय रहूँ। हमने कभी भी सारी विनम्रता नहीं जान ली है। मुझे कभी भी व्यक्तिगत घमंड की तरह की किसी चीज की कोई शिक्षा नहीं मिली। घमंड पलायनबाद में शरण लेता है ताकि मानवीय यंत्रणा के हित की बात को न उठाना पड़े।”

[ अनुवाद – अरुण माहेश्वरी ]

पाब्लो नेरुदा
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पाब्लो नेरूदा (१२ जुलाई १९०४-२३ सितंबर १९७३) का जन्म मध्य चीली के एक छोटे-से शहर पराल में हुआ था। उनका मूल नाम नेफ्ताली रिकार्दो रेइस बासोल्ता था।[1] वे स्वभाव से कवि थे और उनकी लिखी कविताओं के विभिन्न रंग दुनिया ने देखे हैं। एक ओर उन्होंने उन्मत्त प्रेम की कविताएँ लिखी हैं दूसरी तरफ कड़ियल यथार्थ से ओतप्रोत। कुछ कविताएँ उनकी राजनीतिक विचारधारा की संवाहक नज़र आती हैं। उनका पहला काव्य संग्रह 'ट्वेंटी लव पोयम्स एंड ए साँग ऑफ़ डिस्पेयर' बीस साल की उम्र में ही प्रकाशित हो गया था। नेरूदा को विश्व साहित्य के शिखर पर विराजमान करने में योगदान सिर्फ उनकी कविताओं का ही नहीं बल्कि उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का भी था। वो सिर्फ़ एक कवि ही नहीं बल्कि राजनेता और कूटनीतिज्ञ भी थे और लगता है वो जब भी क़दम उठाते थे रोमांच से भरी कोई गली कोई सड़क सामने होती थी। चिली के तानाशाहों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के बाद उन्हें अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़ना पड़ा। इटली में जहां शरण ली वहां भी प्रशासन के साथ आंख मिचौली खेलनी पड़ी।

पाब्लो नेरूदा (१२ जुलाई १९०४-२३ सितंबर १९७३) का जन्म मध्य चीली के एक छोटे-से शहर पराल में हुआ था। उनका मूल नाम नेफ्ताली रिकार्दो रेइस बासोल्ता था।[1] वे स्वभाव से कवि थे और उनकी लिखी कविताओं के विभिन्न रंग दुनिया ने देखे हैं। एक ओर उन्होंने उन्मत्त प्रेम की कविताएँ लिखी हैं दूसरी तरफ कड़ियल यथार्थ से ओतप्रोत। कुछ कविताएँ उनकी राजनीतिक विचारधारा की संवाहक नज़र आती हैं। उनका पहला काव्य संग्रह 'ट्वेंटी लव पोयम्स एंड ए साँग ऑफ़ डिस्पेयर' बीस साल की उम्र में ही प्रकाशित हो गया था। नेरूदा को विश्व साहित्य के शिखर पर विराजमान करने में योगदान सिर्फ उनकी कविताओं का ही नहीं बल्कि उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का भी था। वो सिर्फ़ एक कवि ही नहीं बल्कि राजनेता और कूटनीतिज्ञ भी थे और लगता है वो जब भी क़दम उठाते थे रोमांच से भरी कोई गली कोई सड़क सामने होती थी। चिली के तानाशाहों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के बाद उन्हें अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़ना पड़ा। इटली में जहां शरण ली वहां भी प्रशासन के साथ आंख मिचौली खेलनी पड़ी।

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