प्रतिजैविक

1 min read
हिंदी कविता प्रतिजैविक गुंजन उपाध्याय पाठक

मेरे हाथ टटोलते हुए अपने ही गले को
कर लेना चाहते हैं अपनी पकड़ मजबूत

कि तुम्हारी ऐनक वाली आंखें चमक उठती हैं
और यक-ब-यक दोनों हथेलियां नाभी पर रख
याद करती हूँ तुम्हारी सिरफिरी बातें

अस्फूट मंत्रोचार सी फूट पड़ती हैं बतकहियां हमारी
और किसी एंबुलेंस की तीखी गंध को
अपनी ही शिराओं से बहते हुए महसूस करती
औचक सी देखती हूँ तुम्हें

दूर कोई सायरन की आवाज़ सुनकर
पुकारती हूँ तुम्हें और प्रतिउत्तर में
उभर आए मेरे नाम से चिमटकर मुस्कुरा उठती हूँ
हसरत का एक टुकड़ा जो चखा था कभी
अब भी प्रतिजैविक की तरह मुझमें फलता फूलता है

हालांकि ईश्वर की बेबसी
चिपकी हुई रहती है किसी दुआ मांगते होठों पर
और बच्चों की सिसकियां उसे चुभती है रात भर

गुँजन उपाध्याय पाठक
+ posts

गुँजन उपाध्याय पाठक हिंदी कविता में नयी मगर समर्थ व् सशक्त कवियित्रियों में से एक हैं। आप इन दिनों पटना में रहती हैं। आपसे gunji.sophie@gmail.com पे बात की जा सकती है।

गुँजन उपाध्याय पाठक हिंदी कविता में नयी मगर समर्थ व् सशक्त कवियित्रियों में से एक हैं। आप इन दिनों पटना में रहती हैं। आपसे gunji.sophie@gmail.com पे बात की जा सकती है।

नवीनतम

फूल झरे

फूल झरे जोगिन के द्वार हरी-हरी अँजुरी में भर-भर के प्रीत नई रात करे चाँद की

पाप

पाप करना पाप नहीं पाप की बात करना पाप है पाप करने वाले नहीं डरते पाप

तुमने छोड़ा शहर

तुम ने छोड़ा शहर धूप दुबली हुई पीलिया हो गया है अमलतास को बीच में जो

कोरोना काल में

समझदार हैं बच्चे जिन्हें नहीं आता पढ़ना क, ख, ग हम सब पढ़कर कितने बेवकूफ़ बन

भूख से आलोचना

एक मित्र ने कहा, ‘आलोचना कभी भूखे पेट मत करना। आलोचना पेट से नहीं दिमाग से