रातों को जो
घरों से बाहर नहीं निकलती हैं
वो स्त्रियाँ
उगा लेती हैं
आकाशगंगा छतों पर।
दीवारों पर खिला देती हैं वसंत
खिड़की में टांग देती हैं चाँद
और उनकी पलंग की सिलवटों में बहने लगती हैं
न जाने कितनी
प्रतीक्षा की नदियाँ
पर्दों में होता है
दुनिया का भूगोल
झिंगुरों के गीतों में
तल लेती हैं
न जाने कितनी ही पूरियाँ
और नींद की पगडंडियों पे
चलती रहती हैं निर्विघ्न
धूप की बाहें
थामकर।
संबंधित पोस्ट:
![](https://www.ummeedein.com/wp-content/uploads/2021/01/WhatsApp-Image-2021-01-30-at-1.35.23-PM-150x150.jpeg)
गुँजन उपाध्याय पाठक
गुँजन उपाध्याय पाठक हिंदी कविता में नयी मगर समर्थ व् सशक्त कवियित्रियों में से एक हैं। आप इन दिनों पटना में रहती हैं। आपसे gunji.sophie@gmail.com पे बात की जा सकती है।