हम थोड़ा और अधिक झुठला सकते थे अपने होने को
किंतु हमने उतना होना भर झुठलाया
जितने में हम पूर्ण संत न बन सकें
पूर्णताओं की इच्छा रह-रह कर उबाले लेती हैं
मसकती है शरीर के भीतर भीतर
एक दिन फूटती है मुंह से चुप्पियों के गान में
अनबूझी चुप्पियों के गिरगिट रंग बदल कर लौटते हैं
किसी से कुछ न कह पाने की अदम्य लालसा
किसी को कुछ समझाने की इच्छा को भी मार देती है
हम चुप्पियों के भीतर जीते रहे हैं
शांत कोठरे में अकेले चूज़े की तरह
मिसमिसाकर बोलते हुए
इन चुप्पियों में माँओं की रसोई की चुप्पियाँ भी आन मिली इक दिन
और फिर सब चुप हो गया
सब कुछ एक लंबी और उदास चुप्पी में बदला
तो हमने जाना कि हमने क्या अधिक झुठलाया
और क्या झुठलाने से बचे!
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ज़ुबैर सैफ़ी
ज़ुबैर सैफ़ी (जन्म - 2 मार्च 1993) बुलंदशहर, उत्तरप्रदेश से हैं. इन दिनों आप नया सवेरा वेब पोर्टल में सह संपादक के रूप में कार्यरत हैं. आपसे designerzubair03@gmail.com पे बात की जा सकती है.