1) मेज़ की दराज में एक तिल का बोसा,
तुम्हारे लिए संभाल रखा था,
बीती सर्दी में दराज फूलों से भर गई थी,
और मेरा चेहरा मुंहासों से!
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2) हम दोनों के इश्क़ अलग अलग थे,
तुम जिस शहर में थीं,
उस शहर में समंदर बहता है,
कितना अजीब है ना,
एक शहर के नसीब में आंखें और एक शहर में समंदर,
जो मुद्दत से बह रहे हैं!
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3) तुम्हारी एड़ियों से कोई सोता नहीं फूटा,
ये कितना बड़ा झूठा सच है,
तुम्हारे पैर चूमे थे जिस दिन नींद में,
उस पल से भीतर झरना बहता है!
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4) मेमनों सी मुलायम तुम्हारी हंसी,
मुझ मज़दूर के खुरदुरे हाथों में आ ना सकी,
कितना अफ़सोस है,
कि मैं मज़दूर हूँ।
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5) नज़्म लिख के अंगूठे से स्याही पे मैनें,
इक शाम छू लिया था तेरा बदन,
घर जाओ तो ख़ुद को ताकना,
मेरी हर छुअन पे तिल उग आए हैं।

ज़ुबैर सैफ़ी
ज़ुबैर सैफ़ी (जन्म - 2 मार्च 1993) बुलंदशहर, उत्तरप्रदेश से हैं. इन दिनों आप नया सवेरा वेब पोर्टल में सह संपादक के रूप में कार्यरत हैं. आपसे designerzubair03@gmail.com पे बात की जा सकती है.