दिल के ‘दाग़’

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दिल के 'दाग़'

“सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं
ख़त ग़ैर का पढ़ते थे जो टोका तो वो बोले
अख़बार का पर्चा है ख़बर देख रहे हैं…”

दाग़ से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी। ग़ज़ल के कायदे सीखते हुए ऐसे शेरों से तार्रुफ़ होना उन दिनों शर्तिया दिल को सुकून और कलम को रौशनाई देता था। जो कुछ दिलचस्पी बढ़ी तो फिर दाग़ को ढूँढना शुरू किया। मालूम करने पे मालूम हुआ कि दाग़ का मूल नाम नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ था और ‘दाग़’ तख़ल्लुस। बाद में इन्हें दाग़ देहलवी के नाम से जाना गया।

इस ख़ास तख़ल्लुस के पीछे क्या वज़ह थी ये उनकी निजी जिंदगी में झाँकने से और नुमायाँ हुआ। मसलन बचपन में ही उनके वालिद का गुज़र जाना, उनकी वालिदा का बहादुर शाह जफ़र के जाये से दूसरा निकाह करना, 1857 में हुए ग़दर के मंज़र और फिर दिल्ली का छूट जाना … दिल के दाग़ नहीं थे तो और क्या थे।

जो कुछ अच्छा हुआ दाग़ साहब के साथ वो थी उनकी संगत, उनकी तालीम। वालिदा के दुसरे निकाह ने दिल पे दाग़ तो जरूर छोड़े मगर उसके एवज़ में आर्थिक तंगी से निज़ात भी दिलाई। आगे चल के यही वजह भी बनी जौक, ग़ालिब और मोमिन के साथ उनके संगत की।

इसे मुश्किल ही जानिये कि पूरी दुनिया जब ग़ालिब से मुतास्सिर थी तो दाग़ अपनी अलग जमीन, अलग राह बना रहे थे। उर्दू भाषा के सरलीकरण का बहुत बड़ा श्रेय दाग़ को जाता है। उन्होंने आम बोल-चाल की भाषा का इस्तेमाल अपनी गज़लों में बख़ूबी किया। यही वज़ह भी रही कि ग़ालिब एक जगह कहते हुए मिलते हैं कि ‘दाग़ ने न सिर्फ भाषा को पढ़ा बल्कि उसे तालीम भी दी…’

हालाँकि उनकी शायरी पर सवाल भी ख़ूब उठे। उनकी ग़ज़लों को बाज़ारू और नफ्सयाती कहा गया। पर बाज़ शायर सामय-समय पर यह मानते रहे दाग़ की शायरी मसनूई नहीं है। दाग़ खुदरंग शायर हैं और उनकी शायरी में किसी की नक़ल नहीं मिलती। चकबस्त एक जगह लिखते भी हैं कि – दाग़ की शायरी दिल में चुटकियाँ लेता है एक ख़ास तरह की कैफ़ियत पैदा करता है

अच्छी सूरत की रहा करती थी अक्सर ताक-झाँक
रह गई आँखें, मगर वो देखना जाता रहा

दाग़ को अच्छी सूरत से इश्क था और जब कभी वो ऐसे किसी हसीं चेहरे को अपने इर्द-गिर्द न पाते तो उन्हें इज़्तिराब-सी मालूम होने लगती। कहते हैं तवायफों को वो 150-200 रूपये मासिक पर कनीज़ रखते। साइबजान, उम्दाजान, अख्तरजान आदि कुछ ख़ास नाम शुमार थे इनमें। हाँ मगर जब यही तवायफें इनका दामन झटककर किसी ग़ैर के पहलू को सजाने लगतीं तो इनके ग़म में दाग़ साहब बेचैन हो उठते। उनकी शायरी ऐसी ही औरतों के इश्क़-ओ-हिज्र के जिक्र से लबरेज़ है। एक वाक़या है – अख्तरजान इनकी नौकरी छोड़कर एक सेशन जज के यहाँ नौकरी करने लगीं। ये सुन कर एक रोज़ दाग़ साहब ने उनको बुलावा भेजा। मगर वो आने को तैयार न हुईं। उन्होंने मुलाज़िम से कहलवाया – मेरी बला भी नहीं आती मुलाज़िम ने यही जुमला आ कर दाग़ साहब को बतला दिया। दाग़ साहब बार-बार उस से दरियाफ्त करते रहे उसने क्या कहा, उसने क्या कहा और मुलाज़िम उसी जुमले को दोहराता रहता। इसी कैफ़ियत में उन्होंने शेर कहा –

यह क्या कहा कि मेरी बला भी न आएगी
क्या तुम न आओगे तो कज़ा भी न आएगी

दाग़ को अपनी जिन्दगी में जो शोहरत नसीब हुई शायद ही किसी और को हुई। वज़ह उनकी जबान में सादगी, उनका अंदाज़-ए-बयान और एक ख़ास क़िस्म की फ़साहत का होना।

नहीं खेल ऐ ‘दाग़’ यारों से कह दो
कि आती है उर्दू जबाँ आते-आते

लहज़े की इस शोख़ी के सबब ही उनके चाहनेवालों की तादाद भी अच्छी ख़ासी रही। कहते हैं रामपुर के मुशायरे में जब वो पढ़ लेते तो उनके शागिर्द उठ कर ये देखते कि लोगों की जबाँ पर किसका शेर है। इस दौरान वो अक्सर पाते कि ज्यादातर शेर दाग़ साहब के ही हैं। रामपुर का ही एक और वाक़या है कि एक रोज़ जब दाग़ साहब वहाँ ग़ज़ल सुना रहे थे तो वहाँ के पठान उन्हें गलियाँ देने लगे। पता किया गया कि ऐसा क्यूँ हो रहा है तो मालूम हुआ कि उनके कलाम का असर ही कुछ ऐसा था पठान कहते – ‘उफ़ जालिम मार डाला’, ‘ओफ़्फोह! गला हलाल कर दिया’, ‘उफ़-उफ़ सितम कर दिया’, ‘गज़ब ढा दिया’।

वोह आदमी कहाँ है वोह इन्सान है कहाँ
जो दोस्त का हो दोस्त उदू का उदू न हो

सुनते हैं दाग़ के अपने समकालीनों (जिनमें अमीर, जलाल, जहीर जैसे कुछ प्रमुख नाम थे) से भी बेहद दोस्ताना संबंध थे। उन्होंने कभी भी किसी को हेच की नज़र से नहीं देखा न कभी उनकी मुखालिफ़त ही की। वे ताउम्र उनका एहतराम करते रहे और बदले में वैसा ही एहतराम पाते भी रहे। उनके शागिर्दों में भी कुछ मशहूर नाम पढ़ने को मिलते हैं मसलन – इकबाल, सीमाब, जिगर, जोश और न जाने कितने ही ऐसे नाम। उस ज़माने में दाग़ का शागिर्द कहलाना फ़ख्र की बात होती थी। इस बात का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके बाद उनके शागिर्द ख़ुद को ‘जा-नशीने-दाग़’ लिखने लगे थे।

दाग़ की वफ़ात पर जैसे उर्दू संसार में मातम छ गया। हैदराबाद, सन १९०५ में उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली। इकबाल भी अपने उस्ताद की मौत पर खूब रोए। गो कि इस बज़्म-ए-अदब से दाग़ अब उठ गए हैं पर उनका दम अब भी बरक़रार है। उनके कलाम में अब भी वही तासीर है। अब भी वही जादू है।

उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं ‘दाग़’
सारे जहाँ में धूम हमारी जबाँ की है

 

कुमार राहुल

कुमार राहुल, ‘उम्मीदें’ वेब पत्रिका के संपादक हैं. आपसे kumarrahul9699@gmail पे बात की जा सकती है.

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