असंगत नाटकों का सफ़र : एक नज़र

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असंगत नाटकों का सफ़र

नाटकों के क्षेत्र में असंगत नाटकों का खेला जाना हमेशा से ही एक दिलचस्प विषय रहा है. न सिर्फ इसे खेलने के लिहाज़ से वरन समझने के लिहाज़ से भी इसे एक नए प्रयोग के रूप में देखा जाता रहा है. पश्चिम में इसकी शुरुआत १९२०-१९३० के आस-पास होती है जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपने पूर्ण स्वरुप में महसूस किया गया. एक ख़ास तरह की निराशा और अंधकार ने लोगों को घेर लिया. ये महसूस किया जाने लगा कि जीवन अपने अंतस में एक निरर्थकता समेटे हुए है जिसे मनुष्य अब तक जीता आ रहा है. लोगों के पास कोई ख़ास वजह नहीं है जीने की. उनका आन्तरिक और बाह्य यथार्थ एक दूसरे से बिलकुल अलग है.

रंगमंच ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई. पाश्चात्य नाटककारों ने कथ्य और शिल्प में खूब प्रयोग किये. पारम्परिक कलारूपों और मानकों की वैधता ख़त्म होने लगी. नया रंगमंच कथानक रहित था. संवाद की पुरानी शैली पे भी जम के प्रहार हुए. पारंपरिक भाषा की जगह वास्तविक भाषा ने ले ली. यहाँ तक कि भाषा की तुलना में वस्तुएं अधिक महत्वपूर्ण होने लगी. भाषा के परे जाने का प्रयास किया जाने लगा जो कि अपने आप में एक अद्भुत प्रयोग था. असंगत नाटकों ने तर्क की रूढ़ियों को भी तोड़ दिया.

नाटक अब गीतात्मक थे, संगीत के करीब, काव्य छवियों से लैस. दृश्य तत्वों और प्रकाश के उपयोग को भी नकारा जाने लगा. माइम, बैले, कलाबाज़ी, संगीत आदि की संगत ने इसे एक नया आयाम दिया.

सैमुएल बेकेट, इओनेस्को, एडवर्ड आलबी, हैरोल्ड पिंटर आदि के असंगत नाटकों की खूब धूम रही. बेकेट के नाटक ‘वेटिंग फॉर गोडो’ को तो १९५२ में नोबल पुरस्कार भी मिला. आगे इसी श्रृंखला में बेकेट के नाटक ‘एन्डगेम’, इओनेस्को की ‘दि चेयर्स’ और ‘दि लेसन’ की भी खूब चर्चा रही.

जहाँ पश्चिम में असंगत नाटकों की परिभाषा द्वितीय विश्व युद्ध से उपजी विसंगतियों ने रची वहीँ पूर्व में इसकी बड़ी वजह बेरोजगारी, गैरबराबरी और समाजवाद का उदय रही. राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन से उपजी सामाजिक संरचना ने भी इसकी दिशा तय करने का काम किया.

हिंदी भाषा पट्टी में ये जिम्मा भुवनेश्वर उठाते हैं. एक ओर जहाँ ‘प्रतिभा का विवाह’, ‘श्यामा – एक वैवाहिक विडम्बना’ जैसे एकांकी नाटक उनके पहले से ही मशहूर थे वहीँ दूसरी ओर ‘ताम्बे के कीड़े’ लिख कर उन्होंने भारत में भी असंगत नाटकों के प्रयोग को परिचर्चा में शामिल कर लिया. शिल्प की दृष्टि से इसे न सिर्फ सराहा गया बल्कि सर्वश्रेष्ठ भी माना गया. संकेतों और प्रतीकों का सुन्दर सामंजस्य दर्शकों पे अमिट छाप छोड़ने में सफल रहा.

बाद के दिनों में ‘नुक्कड़ नाटकों’ ने असंगत नाटकों की भूमिका को बखूबी संभाला जहाँ रौशनी, परिधान, कॉस्मेटिक्स आदि का प्रयोग नहीं के बराबर हुआ जाने लगा. इस तरह के नाटकों का मंचन सामाजिक और राजनैतिक संदेशों को पहुंचाने के काम में लाया जाने लगा. पूरा का पूरा नाटक अभिनेता के हाव-भाव, आवाज के उतार-चढ़ाव और आँखों से खेला जाता था.

बादल सरकार और सफ़दर हाशमी इस तरह के नाटकों के प्रणेता माने गए. बादल सरकार को ‘तीसरे थिएटर’ की स्थापना के लिए भी जाना जाता है. उन्होंने थिएटर ग्रुप ‘शताब्दी’ की भी स्थापना की.  भुवनेश्वर की तरह उनका भी मानना था कि अभिनेता और दर्शकों में किसी तरह की दूरी नहीं होनी चाहिए. सीधा संवाद सबसे जरुरी माना गया ऐसे में.

सफ़दर हाशमी ने भी १९७३ में ‘जन नाट्य मंच’ की स्थापना की. उनका मकसद भी थिएटर को दर्शकों तक ले जाने का था. ‘मशीन’ जैसे नाटक के द्वारा वो पूंजीवाद की समस्याओं को उजागर करते हैं. १९८९ में ‘हल्लाबोल’ का मंचन भी इसी कड़ी के तहत किया गया जहाँ ट्रेड यूनियनों में काम करने वाले मजदूरों, पूंजीवादियों और सरकार के बीच के संघर्ष को दर्शाया गया.

असंगत नाटकों के प्रारूप और प्रयोजन ने इसे दुनियाभर में प्रासंगिक बनाये रखने का काम किया है.

कुमार राहुल
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कुमार राहुल, ‘उम्मीदें’ वेब पत्रिका के संपादक हैं. आपसे kumarrahul9699@gmail पे बात की जा सकती है.

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