जब बिखरी हुई यादें पड़ी होती हैं
काली रौशनी के मानिंद
तो ग़ैर-जरूरी चीजें साथ देती हैं
मसलन खुली सड़क को ताकना
ठंडी चाय की छाली हटा कर पीना
और फिर सब की याद में बारी-बारी से खो जाना
अंत में अपना ठहराव खोजने में भी असफल हो जाता हूँ
जीवन में यादों के कितने हिस्से लगेंगे
किस दीवाल के सहारे में
ख़ुद को पाऊंगा, पता नहीं
डर यादों को अंदर से चाटते हुए
न जाने कब आ जाता है जबान पर
ख़ुद ही को ख़ामोश करने के लिए
पता नहीं चलता।

हिमांशु
हिमांशु पटना से हैं और हिंदी साहित्य के सुधी विद्यार्थी और पेशे से बैंकर हैं. इन दिनों आप 'उम्मीदें' वेब पत्रिका में सह-संपादक के रूप में भी अपनी सेवाएं दे रहे हैं. आपसे himanshurkstar025@gmail.com पे बात की जा सकती है.