उदास औरत

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उदास औरत

(एक)

जब तय था कि समझ लिया जाता
मोह और प्रेम कोई भावना नहीं होती
रात को नींद देर से आने की
हज़ार जायज़ वजहें हो सकती हैं
ज़रा सा रद्दोबदल होता है
बताते हैं साइंसगो,
हार्मोन्स जाने कौन से बढ़ जाते हैं
इंसान वही करता है
जो उसे नहीं करना चाहिए
गोया कुफ़्र हो

जब दीवार पर लगे कैलेंडर पर
दूध और धोबी का हिसाब भर हो तारीखें
उन तारीखों का रुक जाना
क्या कहा जायेगा ?

साल के बारह महीने एक सा
रहनेवाला मौसम अचानक
बदल जायेगा तेज़ बारिश में,
जब ऐसी बरसातों में वो पहले
भीग कर जल चुकी थी,
जब मान लिया जाना चाहिए
कि ज्यादा पढ़ना दिमाग पर करता है
बुरा असर
ये तमाम किताबें और रिसाले
वक़्त की बर्बादी भर हैं
जो इस्तेमाल किया जा सकता था
पकाने-पिरोने-सजाने-संवारने में
और बने रहने में तयशुदा

जब समझ लिया गया था
चाँद में महबूब की शक़्ल नहीं दिखती
न प्यार होने से हवाएँ
सुरों में बहती हैं
न धूप बन जाती है चाँदनी
न आँसू ढल सकते हैं मोतियों में
न जागने से रातें छोटी होती हैं

उस उम्र में अब ऐसा नहीं होना था
उन उदासी से भरे दिन-दुपहरों में
हल्दी और लहसन की गंध में
डूबी हथेलियों वाली
औरत को उस दिन
महसूस हुआ कि उसके पाँव
हवा में उड़ते रहते हैं।
उसने कैलेंडर पर एक और
कॉलम डाला है –
रोने का हिसाब….

(दो)

उस बेकार, मनहूस औरत ने
कई दिनों से आइना नहीं देखा था
उसे हुक़्म था कि फ़ालतू के कामों में
वक़्त जाया न किया जाए
बेध्यानी में एक दिन
उस औरत ने कैलेंडर पर
एक तारीख़ के नीचे
लिख दिया था कि ‘रोना है’

वो तारीख़ कब की बीत गयी थी
बीत गयी बारिशों की तरह
उसे फ़ुरसत का एक दिन चाहिए था
जब वो रोने का हिसाब करे
दिन बीत जाते थे
तवे पर पड़ी पानी की बूंदों से
ऐसे में उसने एक दिन आइना देखा
रातों की स्याही आँखों के नीचे देखी
उसने वो कैलेंडर उतारकर
कल रात हाथ सेंक लिया
और अपने बदन की कब्र में
कुछ और आँसू दफ़्न किये।

(तीन)

औरत की पीठ पर एक तिल था
और एक था उसकी दाईं कान के नीचे
दुनिया के सब हसरतें
उन दो हिस्सों में कैद थीं

औरत अक़्सर जोर-जोर से हँसती
और बदले में सुनती
‘कैसे हँसती हो तुम’ के ताने
आँखों में पढ़ती ‘पागल औरत’

औरत डरती नहीं थी पिंजड़ों से
सदियों से साथ रहकर
वो जानती थी जंजीर भी
उसकी ही तरह बेबस है
पीठ के तिल से जरा नीचे
कोई नीला निशान नहीं होता था
न ही दाएं कान के पास
होती थी कोई खरोंच
दोनों हाथ उठाकर जूड़ा बाँधते हुए
औरत अक्सर बुदबुदाती थी
शायद कोई प्रार्थना या
किसी बिसरे यात्री का नाम

उपासना झा

उपासना झा (जन्म - 15 अगस्त) मूलतः समस्तीपुर, बिहार से हैं। आप इन दिनों समस्तीपुर कॉलेज में हिंदी की अतिथि शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पर देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे upasana999@gmail.com पे बात की जा सकती है।

उपासना झा (जन्म - 15 अगस्त) मूलतः समस्तीपुर, बिहार से हैं। आप इन दिनों समस्तीपुर कॉलेज में हिंदी की अतिथि शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पर देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे upasana999@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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