ये गलियाँ भी कुछ कहती हैं

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ये गलियाँ भी कुछ कहती हैं

“अरी ओ, ई का कान में ठूंसी रहती हो, कुछ पढ़ लिख लिया करो।”

“अरे दादी का कह रही हो” (कान से हेडफोन निकाल कर उर्मिला पूछती है)

“हम ई कह रहे हैं कि पढ लो कुछ नाहि तो देखत हउ ना इ झाड़ू वाले को एही करना तुम भी।”

“पर दादी झाड़ू मारने में का बुराई है  ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के बारे में ना सुनी हो का?”

“पढ़ाई न करने के पक्ष पर सौ बातें बोलत हो तुम”

“पर दादी हम तो इ बात झाड़ू मारने के पक्ष में बोल रहे हैं”

“जाओ‌, रहेन दो तुम, जाओ हमरी दवाई लेते आना, तुम्हारे पराबिट के पास है न, शर्मा डिस्पेंसरी.”

“ठीक है दादी।”

19 वर्ष की उर्मिला, हर काम के प्रति आकर्षित थी। चाय वाले को देखकर उसे चाय बेचने का मन करता था, फुचके वाले को देखकर उसे भी एक गोलगप्पे का स्टाल खोलने का मन करता था और वो स्टेशन के पास बैठने वाले मोची को बड़े ध्यान से चप्पलें सीते देखती है और उसे लगता था, “क्या कला है”और वो भी एक जोड़े चप्पलें सीलना चाहती थी और फिर उसे “स्वच्छ भारत अभियान” का भी हिस्सा बनना था।

वो शर्मा डिस्पेंसरी जाती है, दादी की दवाई लाने । वहां एक औरत बार बार कुछ कह रही थी दवाई वाले से, गोदी में एक बच्चा टांगें, वो कह रही थी, “अरे भाईया, हमे अंदर क्लिनिक पर बैठे डाक्टर साहब से बात करना, कांहे रोक रहे हैं?”

“पहले इसके बाप का नाम बताइए, फिर बात कीजिए!!!”

“आपको का लेना देना इसके बाप से,आप अंदर जाने दीजिए हमें।”

“चलिए निकलिए, पता नहीं ये कहां कहां से आ जाते हैं”, शर्मा डिस्पेंसरी वाला बड़े लापरवाही से कहता है।

फिर उर्मिला जल्दी से दवाई‌ लेकर उस औरत के पीछे जाती है। वो औरत‌ एक जगमगाते गली में चली जाती ‌है। उस गली के बारे में कुछ कुछ सुना‌ था उर्मिला ने, पता नहीं सब क्यों ‌फुसफुसा कर‌ उस गली के बारे में बात करते थे।

“क्या बात हो सकती है कि‌‌ उसने‌ उस औरत को‌ डाक्टर से मिलने नहीं दिया?” उर्मिला घर जाकर इस बारे में बहुत देर तक सोचती है। सुबह – सुबह वो अपनी नई स्कूटी को बाहर निकालती है और चिल्ला कर कहती है, “दादी हम थोड़ा घूम कर आते हैं!”

“अच्छा आते बकत दूध लेते आना‌”

“ठीक है दादी”

वो‌ उसी गली के पास जाती है और खड़े होकर देखती है, वहां का दृश्य।

एक औरत छोटे से गमले में लगे तुलसी मां को जल चढा रही थी, एक बच्चा चिल्ला – चिल्ला के रो रहा था और एक बूढ़ी औरत अपने सफेद बालों में तेल लगा रही थी। दो बड़े बड़े लम्बे घर, जिसमें अनगिनत छोटे – छोटे कमरे थे।

“हां दीदी बोलिए क्या काम है?”

उर्मिला अचानक कुछ कहने के चक्कर में कुछ नहीं बोल पाती मुश्किल से दो शब्द ही निकल पाते हैं, “नहीं कुछ नहीं”

फिर वो स्कूटी घूमा कर खटाल की ओर दूध लेने चली जाती है। वो घर जाकर जैसे ही फोन हाथ में लेती है, उसकी दादी चिल्लाने लगती है “गर्मी की इ छुट्टी में कुछ पढ़ लो,खाली ऐश करन वास्ते ई छूट्टी मिली है का”

उर्मिला कहती है ,”हां दादी पढ़ लेंगे”

तभी दरवाज़ा बजता है और मोहल्ले के अब्दूल चाचा आते हैं चीनी मांगने, उर्मिला उनके हाथों में चीनी की कटोरी देती है, और वो चले जाते हैं।
उनके जाने के बाद ‌दादी का लेक्चर शुरू हो जाता है, “इनकी लड़कियों को देखा है, कितने अदब में रहती है, ढंग से और इक तुम हो”

“दादी हमारो कान में हेडफोन है कुछ सुनाई नहीं दे रहा हमें, बाद में करना उनकी तारिफ।”

“ढूंसे रहो!”

उर्मिला शाम को फिर उन गलियों में जाती है, वो छुपकर देखती है। वहां काफी भीड़ है, कुछ लड़के मुंह पर रुमाल बांध कर जा रहे हैं और सिर पर टोपी पहने। पर वहां की हर औरत हर लड़की पूरे हिम्मत से खड़े होकर अपने भाव बता रही थी। जैसे उनका इस दुनिया में कोई नहीं जिससे वो डरे।

उर्मिला फिर उस औरत को देखती है, वो अपने गोद में बच्चे को टांगें एक‌ आदमी से कह रही थी,”साहब, 100 रूपए भी चलेंगे, आप आईये ना।” उसकी आवाज़ काफी थकी हुई थी।

उर्मिला ये देखकर सोच में पड़ जाती है वो औरत भिख नहीं मांग रही थी, फिर उस दृश्य में उर्मिला को वो स्त्री इतनी असहाय क्यों दिख रही थी।

उर्मिला उस औरत से बात करना चाहती थी, वो वहां कुछ देर तक खड़ी रही,‌ तभी वो उस गली से एक आदमी को निकलते देखा, मुंह तो छुपा था पर उसके हाथ में जो घड़ी थी, ये तो वही हाथ थे जिनको उर्मिला ने आज चीनी दी थी, अब्दूल चाचा!

इनके घर की बहू – बेटियां तो हमेशा पर्दे में रहती है, ये तो हमेशा शराफ़त के ढोल पीटते हैं, फिर इनको यहां क्या काम।
तभी वो औरत बाहर की ओर आ रही थी, एक पान दुकान की तरफ। उर्मिला उसके पास गयी और फिर कहा,”सुनिए दीदी।”

“आपका बच्चा कैसा है, आप उस दिन डाक्टर से नहीं मिल पायी थी।”

वो औरत कहती है, “इसे कुछ हुआ नहीं है, हम तो इसके जन्म सर्टिफिकेट के लिए वहां गए थे, उ का है न , इ घर में ही पैदा हुआ था, स्कूल में भर्ती करने वास्ते जन्म सर्टिफिकेट मांगते हैं न। जाने दीजिए, लगता है इसकी किस्मत में भी कुछ नहीं, मेरे जैसा ही अभागा है।”
वो औरत अंत में मुस्कराते हुए चली जाती है।

कुछ मुस्कराहटें कितने भारी होती हैं, उनमें कितना कुछ दबा होता है। ऐसी जीवन शक्ति की प्रेरणा कहां से मिलती होगी, शायद कुटज से, हां द्वावेदि जी कहते हैं, “जो लोग उपर से बेहाया दिखते हैं, कभी – कभी उनकी जड़ें काफी गहरी होती है।” कठोर गर्मी में हंसता हुआ कुटज क्या इनसे बहुत भिन्न होगा?

उर्मिला ने‌ आज‌ तक किसी काम की किसी से तुलना नहीं ‌की थी और न ही किसी ‌काम का तौहीन किया‌ था‌, फिर आज ये धंधा उसे अजीब क्यों लग रहा था, वो इतनी असमंजस में क्यों थी।

वो घर जाकर दादी के आंखों में दवाई डालती है और फिर अपने कमरे में चली जाती है। वो पूरी रात इस विषय पर सोचती है, कुछ भी तो भिन्न नहीं, फिर वो गलियां हमारे समाज से क्यों नहीं जुड़ पाईं है, उनके के हिस्से का सुख तो हम ही भोग लेते होंगे, क्योंकि प्रकृति तो किसी को अलग नहीं करती, सूरज की किरणें तो वहां जाने से नहीं कतराती, फिर इस वातावरण में उनकी सांसो का दबा रह जाना, आश्चर्य सा लगता है।

भीख मांग रहे भिखारियों पर हमें जितनी दया आ जाती है, क्या उतना ही सम्मान , जीवन के हर परिस्थिति को झेले जा रही है, इन जीवों को नहीं मिलना चाहिए जो सिर्फ अपने बल पर भरोसा करती है , उसी के सहारे जीती हैं।

उर्मिला फिर दूसरी शाम उस गली के पास के पान दुकान पर खड़ी रहती जैसे वो कुछ जानना चाहती हो। वहां एक जवान लड़की आती है,एक पान लेने।

तभी उर्मिला उससे कहती है, “दीदी आप थोड़ा सुनिए न।”

“कुछ काम चहिए तेरे को?”

“नहीं दीदी आपसे कुछ बात करनी थी।”

“बोल!”

“आपका नाम क्या है?”

“मां ने क्या नाम रखा था, वो तो याद नहीं, इधर सब चमेली बुलाते हैं।”

“आप खुश हो यहां?”

“इधर खाने‌ पीने की कोई तकलीफ़ नहीं, देखो जिन्दा हूं, सुना है इस देश के बहुत बच्चे भूखे मर जाते हैं, उनसे तो अच्छी है अपनी लाइफ, भूख से तो नहीं मरेंगे न।”

“हममममम।”

“चलो‌ धंधे का टाईम है ,चलती हूँ।”

चमेली चली जाती है। उर्मिला सोचते सोचते घर आती है।

उस गली का एक भी जीव सम्मान का भूखा नहीं, वो जीते हैं, अपने ही दम पर बिना किसी से कुछ आस लगाए, फिर इनके हिस्से का सम्मान कहां चला जाता है, कौन इसे अपने हिस्से में ले रहा है, शायद अब्दूल चाचा जैसे लोग ….. दोहरे चेहरे!

उर्मिला अगले एक हफ्ते अपने घर पर ही रहती है, दादी की तबीयत खराब थी। उनके दो घर भाड़े पर हैं , उन्हीं से उनका सबकुछ है।
वो एक हफ्ते बाद फिर उस गली की ओर चल देती है ।

उर्मिला के मन में अनगिनत प्रश्न उठ रहे थे, वो पूरी तरह उलझ गई थी इन सवालों में। जैसे कोई तो बात थी, उर्मिला उनकी ओर खींची जा रही थी। वो औरतें, वो लड़कियां, वो बच्चे और वो बूढ़ी औरत वो कैसे जी रहीं हैं, उर्मिला को उनपर दया नहीं आ रही है, वो शायद दया के पात्र नहीं, वो तो सम्मान की पात्र है, आश्चर्य होता है, पर यही सच है।

देश में तो अनगिनत ऐसी गलियां है, जहां लोग जाते भी हैं, फिर भी बाहर की कितनी लड़कियों के साथ बलात्कार होता है …. बताइये ये हम कैसे न माने कि अगर ये गलियां न होती तो बेशक लोग हर उस स्त्री को नोच लेते जो थोड़ा भी जीना चाहती हो। हम क्यों न माने!! ये तैयार खड़ी है, आपके हवस को मिटाने के लिए फिर भी वो स्त्रिया रौंदी जा रही है जिनका कोई कसूर नहीं। दुनिया में तो बहुत से काम है, फिर इस काम को करने का क्या मतलब हो सकता है …

वो स्कूटी लिए शाम को 6 बजे के आसपास फिर वहां जाती है….

पान दुकान से एक आवाज आती है, “ओ दीदी, मैं चमेली!!!!”

“हां दीदी!”

“आज फिर यहां , क्या बात है?”

“आपसे कुछ बात करनी थी।”

“बोलो।”

“आपने कभी दूसरा काम नहीं ढूंढा?”

“मैं जब 18 की थी तो काम करने के लिए निकली थी, पहले बाई का काम पकड़ा, वहां के जो साहब थे उसने जबरदस्ती की मेरे साथ।
फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी मैंने एक होटल मे काम पकड़ा तो उसने बोला बोडी सर्विस देनी पड़ेगी। फिर एक जूट मिल में गई तो कुछ कागज नहीं थे ,कोई सर्टिफिकेट नहीं तो उसने काम नहीं दिया!!!!!

“आपका कोई साथी नहीं ?”

चमेली मुस्कराई और कहा, “क्या दीदी आपको लगता है हमें कोई अपनाएगा, वैसे हम सबको अपना मानते हैं।”

“अच्छा दीदी चलती हूं” उर्मिला ये कहकर बिना बात खत्म किये स्कूटी की चाभी घुमाती है और चल देती है। उसका ह्रदय इतना मजबूत नहीं था जो उन्हें सुन सके या फिर इतना साहस नहीं था।

जिन्हें सुनने के लिए भी साहस की जरूरत हो, उनको समझ पाना तो फिर कोई साहसी के वश में ही होगा, हम और आप में इतना साहस कहां जो इन्हें समझ लें , हमें शिकायत करना आसान लगता है , सो करते हैं , इससे ज्यादा कुछ कर सकते हैं का?

फिर तो जैसे उर्मिला का वहां आना जाना लगा ही रहता था।

वो एक दिन वहां कि एक औरत से मिलती है।

वो औरत उर्मिला को बता रही थी, “पता है, मेरी बेटी को फैशन डिजाइनर बनने का शौक़ है वो खूब मेहनत करती है और कहती है कि एक दिन वो जब कुछ बन जाएगी तो मेरे सारे पैसे लौटा देगी।”

फिर वो हंसने लगी।

सपने यहां भी जन्म लेते हैं, पूरे भी होते होंगे शायद!

उर्मिला भारी कलेजा ‌लिए वहां से वापस ‌घर आती है।

“दादी‌, आप इस दुनिया में किसे सबसे साहसी मानती हैं?.. आपने‌ तो दुनिया देखी है।”

“सुनो बेटी, जो जो इस दुनिया में जी रहे हैं , वो सभी साहसी है .. यहां जीना आसान नहीं ..”

“फिर तो सभी साहसी हुए न!!!”

“हां जो जी रहे हैं, वो सभी साहसी।”

“दादी, लेकिन सभी तो जी रहे हैं।”

“सब नहीं जी रहे हैं उर्मिला, कुछ लोग तो जीना जानते ही नहीं और फिर जिसकी सिर्फ सांस चले, वो जी रहा है , ये ज़रूरी तो नहीं न। कुछ लोग सिर्फ घुट रहें हैं, कुछ लोगों की सांसें तो दूसरों के भरोसे चल रही है, जो कब रुक जाए वो खुद नहीं जानते … इनकी तो सिर्फ सांसें चल रही है, ये कहां जी रहे हैं….…।

“दादी क्या आपने अपने दिनों में जिया है?”…..
(लम्बी ख़ामोशी)

“जाओ सो जाओ.. सुबह उठके कल योगा करते हैं।”

“ठीक है दादी।”

उर्मिला सो गयी।

सुबह उठ कर आज वो दादी के साथ योगा करती है और शाम को वो निकल पड़ती है, वहीं जहां उसे कुछ अपना सा लगता है , अकारण ही।
चमेली तो जैसे उसकी राह देख रही थी , उसने कान के झुमके खरीदें थे वही दिखाने के लिए।

“देखिए दीदी, कैसे लगे बताईए .. ये मैंने मीना बाजार से खरीदे हैं ”

“ये तो काफी खूबसूरत है ..!”

“इ का दीदी, आपके कान हमेशा खाली क्यों रहते हैं .. लीजिए इ आप पहनिए !”

“नहीं चमेली, तुम पहनो तुम पर अच्छे लगेंगे..”

“अरे दीदी पहनिए न”..

फिर वो जबरन , बड़े प्यार से उर्मिला को झुमके पहना देती है और दौड़कर एक टूटा आइना लाकर उर्मिला को दिखाती है … इस दृश्य को देखने वाली आंखो को कितना सुख मिला होगा….

फिर उर्मिला उससे पूछती है, “अगर कोई तुम्हें बाहर काम देगा तो तुम करोगी?”

“नहीं दीदी, हमारे यहां एक साहब आए थे, काम दिलाने की बातें करके एक बहन को ले गए यहां से, फिर चार मर्दों ने मिलकर उनके साथ जबरदस्ती की … और पता है दीदी उसके सारे कपड़े छीन कर उसे नंगे बाहर निकाल दिया ….. बेचारी रंगोली दीदी .. एक सुबह वह‌ इसी चौखट पर पड़ी मिली हमें – नंगे … पता है दीदी तब से वो किसी से नहीं बोलती, खाली रोती है।”

“तुमने पुलिस में शिकायत नहीं की?”

“दीदी, सुना है हमने आपके वहां सिर्फ बातें घुमाई जाती है, लड़की को दस बार अदालत में खड़ा किया जाता है और उसे बार बार जलील किया जाता है, वैसे हिम्मत तो बहुत है दीदी पर पैसों से भी लाचार हैं ”

“हममममम!”

“पता है दीदी, हम यहीं महफूज है, अपनी मर्जी से जीते हैं हम और फिर किसी ग्राहक की मजाल है जो बिना मर्जी के हाथ लगा दे … दीदी सुना है आजादी के लिए हमारा देश खूब लड़ा था .. उस लड़ाई में लड़कियां नहीं थी क्या?”

“अरे चमेली ! बिल्कुल थी, प्रीतिलता वादेकर, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और हां बहुतों अज्ञात वीरांगनाएं…”

“फिर दीदी, आजादी तो आपके दुनिया के औरतों के हिस्से में भी होनी चाहिए न?”

“होनी तो चहिए, पर नहीं है..!”

“देखा दीदी, इससे अच्छा तो हमारी दुनिया है….”

“हां चमेली…!”

घर जाकर उर्मिला दादी के गोद में सिर रखकर रोने लगती है और फिर पूछती है,”ऐसा क्यों है दादी?”

“सुनो उर्मिला …ऐसी ही एक गली से निकली हो तुम ..  मैं उन्हीं औरतों जैसी थी .. स्वतंत्र….! सबके जीवन में एक ऐसा पल आता है जो उसे वहां जाने पर मजबूर करता है … फिर ऐसा पल भी आता है जो उसे वहां से निकलने को कहता है .. मेरे लिए वो पल तुम थी… तुम्हारी मां के मर जाने के बाद .. तुम मेरे साथ रही वहां .. २ साल तक .. फिर मैं तुम्हें वहां से ले आई …”

“तभी मैं सोचूं दादी , मुझमें इतनी हिम्मत कहां से आई….”

“देखना उर्मिला एक दिन सम्मान उनके भी हिस्से में आएगा …समय अभी शेष है …थोड़ी और लड़ाई बाकी है …. कुछ तर्क अभी सुनने को शेष हैं…….!”

धुंधली शिकायतें उमा भगत
उमा भगत

उमा भगत पश्चिम बंगाल से हैं और आपने अभी हाल ही में बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की है। आपसे umabhagat143@gmail.com पे  बात की जा सकती है।

उमा भगत पश्चिम बंगाल से हैं और आपने अभी हाल ही में बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की है। आपसे umabhagat143@gmail.com पे  बात की जा सकती है।

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