हरगोबिन को अचरज हुआ – तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गांव गांव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक खबर भेज सकता है और वहां का कुशल संवाद मँगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई है?

हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पार कर अंदर गया। सदा की भाँति उसने वातावरण को सूंघकर संवाद का अंदाजा लगया। निश्चय ही कोई गुप्त संवाद ले जाना है। चाँद-सूरज को भी नहीं मालूम हो! परेवा-पंछी तक न जाने!

‘‘पांवलागी बड़ी बहुरिया!’’

बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आँख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा … बड़ी हवेली अब नाम-मात्र को ही बड़ी हवेली है!

जहां दिन-रात नौकर-नौकरानियों और जन-मजदूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहां आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूप में अनाज लेकर झटक रही है। इन हाथों में सिर्फ मेंहदी लगाकर ही गांव की नाइन परिवार पालती थी। कहां गए वे दिन? हरगोबिन ने एक लंबी सांस ली।

बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल खत्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू कर दिया। रैयतों ने ज़मीन पर दावे करके दखल किया। फिर, तीनों भाई गांव छोड़कर शहर जा बसे। रह गयी अकेली बड़ी बहुरिया। कहां जाती बेचारी! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते? बड़ी बहुरिया की देह से जेवर खींच-खींच कर बँटवारे की लीला हुई, हरगोबिन ने देखी है अपनी आंखों से द्रौपदी-चीरहरण लीला! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दयी भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया!

गांव की मोदिआइन बूढ़ी न जाने कब से आंगन में बैठकर बड़बड़ा रही थी – ‘‘उधार का सौदा खाने में बड़ा मीठा लगता है और दाम देते समय मोदिआइन की बात कड़वी लगती है। मैं आज दाम लेकर ही उठूंगी।’’

बड़ी बहुरिया ने कोई जवाब नहीं दिया।

हरगोबिन ने फिर लम्बी सांस ली। जब तक यह मोदिआइन आंगन से नहीं टलती, बड़ी बहुरिया हरगोबिन से कुछ नहीं बोलेगी। वह अब चुप नहीं रह सका, ‘‘मोदिआइन काकी, बाकी-बकाया वसूलने का यह काबुली कायदा तो तुमने खूब सीखा है!’’

‘काबुली कायदा’ सुनते ही मोदिआइन तमककर खड़ी हो गई, ‘‘चुप रह, मुंहझौंसे! निमोंछिये!

‘‘क्या करूँ काकी, भगवान ने मूँछे-दाढ़ी दी नहीं, न काबुली आगा साहब की तरह गुलज़ार दाढ़ी!

‘‘फिर काबुल का नाम लिया तो जीभ पकड़कर खींच लूंगी।’’

हरगोबिन ने जीभ बाहर निकालकर दिखलाई। अर्थात् – ‘‘खींच ले।’’

पांच साल पहले गुल मुहम्मद आगा उधार कपड़ा लगाने के लिए गांव आता था और मोदिआइन के ओसारे पर दुकान लगाकर बैठता था। आगा कपड़ा देते समय बहुत मीठा बोलता और वसूली के समय जोर-जुल्म से एक का दो वसूलता। एक बार कई उधार लेनेवालों ने मिलकर काबुली की ऐसी मरम्मत कर दी कि फिर लौटकर गांव में नहीं आया। लेकिन इसके बाद ही दुखनी मोदिआइन लाल मोदिआइन हो गयी। काबुली क्या, काबुली बादाम के नाम से भी चिढ़ने लगी मोदिआइन! गांव के नाचवालों ने नाम में काबुली का स्वाँग किया था: ‘‘तुम अमारा मुलुम जाएगा मोदिआइन? अम काबुली बादाम-पिस्ता-अकरोट किलायगा!’’

मेदिआइन बड़बड़ाती, गाली देती हुई चली गई तो बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन से कहा, “हरगोबिन भाई, तुमको एक संवाद ले जाना है। आज ही। बोलो, जाओगे न ?”

‘‘कहां?’’

‘‘मेरी मां के पास!’’

हरगोबिन बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आंखों में डूब गया, “कहिए, क्या संवाद?”

संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकियां लेने लगी। हरगोबिन की आँखें भी भर आईं। बड़ी हवेली की लछमी को पहली बार इस तरह सिसकते देखा है हरगोबिन ने। वह बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।’’

‘‘और कितना कड़ा करूँ दिल?’’ मां से कहना मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूंगी। बच्चों के जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहां अब नहीं अब नहीं रह सकूंगी। कहना, यदि मां मुझे यहां से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूंगी। बथुआ साग खाकर कब तक जीऊं? किसलिए किसके लिए?’’

हरगोबिन का रोम-रोम कलपने लगा। देवर-देवरानियां भी कितने बेदर्द हैं। ठीक अगहनी धान के समय बाल-बच्चों को लेकर शहर से आएँगे। दस-पंद्रह दिनों में कर्ज-उधार की ढेरी लगाकर, वापस जाते समय दो-दो मन के हिसाब से चावल-चूड़ा ले जाएंगे। फिर आम के मौसम में आकर हाजिर। कच्चा-पक्का आम तोड़कर बोरियों में बंद करके चले जाएंगे। फिर उलटकर कभी नहीं देखते राक्षस हैं सब!

बड़ी बहुरिया आँचल के खूंट से पांच रूपए का एक गन्दा नोट निकालकर बोली, ‘‘पूरा राह खर्च भी नहीं जुटा सकी। आने का खर्चा मां से मांग लेना। उम्मीद है, भैया तुम्हारे साथ ही आवेंगे।’’

हरगोबिन बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया, राह खर्च देने की जरूरत नहीं। मैं इन्तजाम कर लूँगा।’’

‘‘तुम कहां से इन्तजाम करोगे?’’

‘‘मैं आज दस बजे की गाड़ी से ही जा रहा हूं।’’

बड़ी बहुरिया हाथ में नोट लेकर चुपचाप, भावशून्य दृष्टि से हरगोबिन को देखती रही। हरगोबिन हवेली से बाहर आ गया। उसने सुना, बड़ी बहुरिया कह रही थी, ‘‘मैं तुम्हारी राह देख रही हूं।’’

संवदिया! अर्थात् संवादवाहक!

हरगोबिन संवदिया! संवाद पहुंचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से ही संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना, सहज काम नहीं। गांव के लोगों की गलत धारणा है कि निठल्ला, कामचोर और पेटू आदमी ही संवदिया का काम करता है। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। बिना मजदूरी लिए ही जो गांव-गांव संवाद पहुँचावे, उसको और क्या कहेंगे? औरतों का गुलाम। ज़रा-सी मीठी बोली सुनकर ही नशे में आ जाए, ऐसे मर्द को भी भला मर्द कहेंगे? किन्तु, गांव में कौन ऐसा है, जिसके घर की मां-बहू-बेटी का संवाद हरगोबिन ने नहीं पहुंचाया है। .लेकिन ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है वह।

गाड़ी पर सवार होते ही हरगोबिन को पुराने दिनों और संवादों की याद आने लगी। एक करूण गीत की भूली हुई कड़ी फिर उसके कानों के पास गूँजने लगीः

‘‘पैयां पड़ूं दाढ़ी धरूं….

 हमरी संवाद लेले जाहु रे संवदिया या-या!…’’

बड़ी बहुरिया के संवाद का प्रत्येक शब्द उसके मन में काँटे की तरह चुभ रहा है – किसके भरोसे यहां रहूँगी? एक नौकर था, वह भी कल भाग गया। गाय खूंटे से बंधी भूखी-प्यासी हिकर रही है। मैं किसके लिए इतना दुःख झेलूं?

हरगोबिन ने अपने पास बैठे हुए एक यात्री से पूछा, ‘‘क्यों भाई साहेब, थाना बिहपुर में सभी गाड़ियाँ रूकती हैं या नहीं?’’

यात्री ने मानो कुढ़कर कहा, “थाना बिहपुर में सभी गाड़ियाँ रूकती हैं।”

हरगोबिन ने भांप लिया यह आदमी चिड़चिड़े स्वभाव का है। इससे कोई बातचीत नहीं जमेगी। वह फिर बड़ी बहुरिया के संवाद को मन ही मन दुहराने लगा। लेकिन, संवाद सुनाते समय वह अपने कलेजे को कैसे संभाल सकेगा! बड़ी बहुरिया संवाद कहते समय जहां-जहां रोई है, वहां भी रोएगा!

कटिहार जंक्शन पहुँचकर उसने देखा, पन्द्रह-बीस साल में बहुत कुछ बदल गया है। अब स्टेशन पर उतरकर किसी से कुछ पूछने की कोई जरूरत नहीं। गाड़ी पहुंची और तुरन्त भोंपे से आवाज़ अपने-आप निकलने लगी – थाना बिहपुर, खगड़िया और बरौनी जानेवाली यात्री तीन नम्बर प्लेटफार्म पर चले जाएं। गाड़ी लगी हुई है।

हरगोबिन प्रसन्न हुआ-कटिहार पहुंचने के बाद ही मालूम होता है कि सचमुच सुराज हुआ है। इसके पहले कटिहार पहुँचकर किस गाड़ी में चढ़ें और किधर जाएं, इस पूछताछ में ही कितनी बार उसकी गाड़ी छूट गई है।

गाड़ी बदलने के बाद फिर बड़ी बहुरिया का करूण मुखड़ा उसकी आंखों के सामने उभर गयाः ‘हरगोबिन भाई, मां से कहना, भगवान ने आंखें फेर ली, लेकिन मेरी मां तो है किसलिए किसके लिए मैं बथुआ की साग खाकर कब तक जीऊं ?’

थाना बिहपुर स्टेशन पर जब गाड़ी पहुंची तो हरगोबिन का जी भारी हो गया। इसके पहले भी कई भला-बुरा संवाद लेकर वह इस गांव में आया है, कभी ऐसा नहीं हुआ। उसके पैर गांव की ओर बढ़ ही नहीं रहे थे। इसी पगडंडी से बड़ी बहुरिया अपने मैके लौट आवेगी। गांव छोड़ चली आवेगी। फिर कभी नहीं जाएगी!

हरगोबिन का मन कलपने लगा – तब गांव में क्या रह जाएगा? गांव की लक्ष्मी ही गांव छोड़कर चली आवेगी! किस मुंह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ साग खाकर गुजर कर रही है। सुननेवाले हरगोबिन के गांव का नाम लेकर थूकेंगे, कैसा गांव है, जहां लक्ष्मी जैसी बहुरिया दुःख भोग रही है।

अनिच्छापूर्वक हरगोबिन ने गांव में प्रवेश किया।

हरगोबिन को देखते ही गांव के लोगों ने पहचान लिया – जलालगढ़ गांव का संवदिया आया है! न जाने क्या संवाद लेकर आया है!

‘‘राम-राम भाई! कहो, कुशल समाचार ठीक है न?’’

‘‘राम-राम भैया जी। भगवान की दया से सब आनन्दी है।’’

‘‘उधर पानी-बूँदी पड़ा है?’’

बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पहले हरगोबिन को नहीं पहचाना। हरगोबिन ने अपना परिचय दिया, तो उन्होंने सबसे पहले अपनी बहिन का समाचार पूछा, “दीदी कैसी हैं?”

‘‘भगवान की दया से सब राजी-खुशी है।’’

मुंह-हाथ धोने के बाद हरगोबिन की बुलाहट आंगन में हुई। अब हरगोबिन कांपने लगा। उसका कलेजा धड़कने लगा – ऐसा तो कभी नहीं हुआ? बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आँखें! सिसकियों से भरा हुआ संवाद! उसने बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता को पांवलागी की।

बूढ़ी माता ने पूछा, “कहो बेटा, क्या समाचार है?”

‘‘मायजी, आपके आर्शीवाद से सब ठीक है।’’

‘‘कोई संवाद?’’

‘‘एं? संवाद? जी, संवाद तो कोई नहीं। मैं कल सिरसिया गांव आया था, तो सोचा कि एक बार चलकर आप लोगों का दर्शन कर लूं।’’

बूढ़ी माता हरगोबिन की बात सुनकर कुछ उदास-सी हो गई, तो तुम कोई संवाद लेकर नहीं आए हो?’’

‘‘जी नहीं, कोई संवाद नहीं। ऐसे बड़ी बहुरिया ने कहा है कि यदि छुट्टी हुई तो दशहरा के समय गंगाजी के मेले में आकर मां से भेंट-मुलाकात कर जाऊंगी।’’ बूढ़ी माता चुप रही। हरगोबिन बोला, ‘‘छुट्टी कैसे मिले! सारी गृहस्थी बड़ी बहुरिया के ऊपर ही है।’’

बूढ़ी माता बोली, “मैं तो बबुआ से कह रही थी कि जाकर दीदी को लिवा लाओ, यहीं रहेगी। वहां अब क्या रह गया है? ज़मीन-जायदाद तो सब चली ही गई। तीनों देवर अब शहर में जाकर बस गए हैं। कोई खोज-खबर भी नहीं लेते। मेरी बेटी अकेली!’’

‘‘नहीं, मायजी। जमीन-जायदाद अभी भी कुछ कम नहीं। जो है, वही बहुत है। टूट भी गई है, तो आखिर बड़ी हवेली ही है। ‘स्वांग’ नहीं है, यह बात ठीक है। मगर, बड़ी बहुरिया का तो सारा गांव ही परिवार है। हमारे गांव की लछमी है बड़ी बहुरिया। गांव की लछमी गांव को छोड़कर शहर कैसे जाएगी? यों, देवर लोग हर बार आकर ले जाने की जिद्द करते हैं।’’

बूढ़ी माता ने अपने अपने हाथ हरगोबिन को जलपान लाकर दिया, ‘‘पहले थोड़ा जलपान कर लो, बबुआ।’’

जलपान करते समय हरगोबिन को लगा, बड़ी बहुरिया दालान पर बैठी उसकी राह देख रही है- भूखी, प्यासी! रात में भोजन करते समय भी बड़ी बहुरिया मानों सामने आकर बैठ गई…कर्ज-उधार अब कोई देते नहीं। एक पेट तो कुत्ता भी पालता है। लेकिन, मैं? माँ से कहना!!

हरगोबिन ने थाली की ओर देखा – भात-दाल, तीन किस्म की भाजी, घी, पापड़ अचार। बड़ी बहुरिया बथुआ साग उबालकर खा रही होगी।

बूढ़ी माता ने कहा, ‘‘क्यों बबुआ, खाते क्यों नहीं?’’

‘‘मायजी, पेट भर जलपान जो कर लिया है।’’

‘‘अरे, जवान आदमी तो पांच बार जलपान करके भी एक थाल भात खाता है।’’

हरगोबिन ने कुछ नहीं खाया। खाया नहीं गया।

संवदिया डटकर खाता है और ‘अफर’ कर सोता है, किन्तु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है। यह उसने क्या किया? क्या कर दिया? वह किसलिए आया था? वह झूठ क्यों बोला? नहीं, नहीं, सुबह उठते ही वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा- अक्षर-अक्षर: ‘मायजी, आपकी एकलौती बेटी बहुत कष्ट में है। आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिए। नहीं तो वह सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर, किसके लिए वह इतना सहेगी! बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों के जूठन खाकर वह एक कोने में पड़ी रहेगी !’

रात-भर हरगोबिन को नींद नहीं आई।

आँखों के सामने बड़ी बहुरिया बैठी रही-सिसकती, आँसू पोंछती हुई। सुबह उठकर उसने दिल को कड़ा किया। वह संवदिया है। उसका काम है सही-सही संवाद पहुंचाना। वह बड़ी बहुरिया का संवाद सुनाने के लिए बूढ़ी माता के पास जा बैठा। बूढ़ी माता ने पूछा, ‘‘क्या है बबुआ, कुछ कहोगे?’’

‘‘मायजी, मुझे इसी गाड़ी से वापस जाना होगा। कई दिन हो गए।’’

‘‘अरे इतनी जल्दी क्या है! एकाध दिन रहकर मेहमानी कर लो।’’

‘‘नहीं, मायजी, इस बार आज्ञा दीजिए। दशहरा में मैं भी बड़ी बहुरिया के साथ आऊंगा। तब डटकर पंद्रह दिनों तक मेहमानी करूंगा।’’

बूढ़ी माता बोली, ‘‘ऐसा जल्दी थी तो आए ही क्यों! सोचा था, बिटिया के लिए दही-चूड़ा भेजूंगी। सो दही तो नहीं हो सकेगा आज। थोड़ा चूड़ा है बासमती धान का, लेते जाओ।’’

चूड़ा की पोटली बगल में लेकर हरगोबिन आंगन से निकला तो बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पूछा, ‘‘क्यों भाई, राह खर्च है तो?’’

हरगोबिन बोला, “भैयाजी, आपकी दुआ से किसी बात की कमी नहीं।’’

स्टेशन पर पहुँचकर हरगोबिन ने हिसाब किया। उसके पास जितने पैसे हैं, उससे कटिहार तक का टिकट ही वह खरीद सकेगा। और यदि चौअन्नी नकली साबित हुई तो सैमापुर तक ही। बिना टिकट के वह एक स्टेशन भी नहीं जा सकेगा। डर के मारे उसकी देह का आधा खून गया।

गाड़ी में बैठते ही उसकी हालत अजीब हो गई। वह कहां आया था? क्या करके जा रहा है? बड़ी बहुरिया को क्या  जवाब देगा?

यदि गाड़ी में निरगुन गाने वाला सूरदास नहीं आता, तो न जाने उसकी क्या हालत होती! सूरदास के गीतों को सुनकर उसका जी स्थिर हुआ, थोड़ा –

कि आहो रामा!

नैहरा को सुख सपन भयो अब,

देश पिया को डोलिया चली…ई…ई….ई,

माई रोओ मति, यही करम गति…!!

सूरदास चला गया तो उसके मन में बैठी हुई बड़ी बहुरिया फिर रोने लगी – ‘किसके लिए इतना दुःख सहूं ?’

पांच बजे भोर में वह कटिहार स्टेशन पहुंचा। भोंपे से आवाज़ आ रही थी- बैरगाछी, कुसियार और जलालगढ़ जाने वाली यात्री एक नम्बर प्लेटफार्म पर चले जाएं।

हरगोबिन को जलालगढ़ स्टेशन जाना है, किन्तु वह एक नम्बर प्लेटफार्म पर कैसे जाएगा? उसके पास तो कटिहार तक का ही टिकट है। जलालगढ़! बीस कोस! बड़ी बहुरिया राह देख रही होगी। बीस कोस की मंजिल भी कोई दूर की मंजिल है? वह पैदल ही जाएगा।

हरगोबिन महावीर-विक्रम-बजरंगी का नाम लेकर पैदल ही चल पड़ा। दस कोस तक वह मानो ‘बाई’ के झोंके पर रहा। कसबा शहर पहुँचकर उसने पेट भर पानी पी लिया। पोटली में नाक लगाकर उसने सूंघा: अहा! बासमती धान का चूड़ा है। मां की सौगात-बेटी के लिए। नहीं, वह इससे एक मुठ्ठी भी नहीं खा सकेगा। किन्तु वह क्या जवाब देगा बड़ी बहुरिया को!

उसके पैर लड़खड़ाए। उंहूं, अभी वह कुछ नहीं सोचेगा। अभी सिर्फ चलना है। जल्दी पहुँचना है, गांव। बड़ी बहुरिया की डबडबाई हुई आँखें उसको गांव की ओर खींच रही थीं – ‘मैं बैठी राह ताकती रहूँगी!’

पन्द्रह कोस! मां से कहना, अब नहीं रह सकूँगी। सोलह…सत्रह…अठ्ठारह…जलालगढ़ स्टेशन का सिग्नल दिखाई पड़ता है, गांव का ताड़ सिर ऊंचा करके उसकी चाल को देख रहा है। उसी ताड़ के नीचे बड़ी हवेली के दालान पर चुपचाप टकटकी लगाकर राह देख रही है बड़ी बहुरिया- भूखी-प्यासी: ‘हमरो संवाद लेले जाहु रे संवदिया…या…या…या!!’

लेकिन, यह कहां चला आया हरगोबिन? यह कौन गांव है? पहली सँझा में ही अमावस्या का अंधकार! किस राह से वह किधर जा रहा है? नदी है? कहां से आ गई नदी? नदी नहीं, खेत है। ये झोंपड़े हैं या हाथियों का झुंड? ताड़ का पेड़ किधर गया? वह राह भूलकर न जाने कहां भटक गया, इस गांव में आदमी नहीं रहते क्या? कहीं कोई रोशनी नहीं, किससे पूछे? वहां, वह रोशनी है या आँखें? वह खड़ा है या चल रहा है? वह गाड़ी में है या धरती पर?

‘‘हरगोबिन भाई, आ गए?’’ बड़ी बहुरिया की बोली या कटिहार स्टेशन का भोंपा बोल रहा है?

‘‘हरगोबिन भाई, क्या हुआ तुमको?’’

‘‘बड़ी बहुरिया?’’

हरगोबिन ने हाथ से टटोलकर देखा, वह बिछावन पर लेटा हुआ है। सामने बैठी छाया को छूकर बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया?’’

‘‘हरगोबिन भाई, अब जी कैसा है? लो, एक घूंट दूध और पी लो। मुंह खोलो…हां…पी जाओ। पीयो!!’’

हरगोबिन होश में आया। बड़ी बहुरिया दूध पिला रही है?

उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर बड़ी बहुरिया का पैर पकड़ लिया, ”बड़ी बहुरिया। मुझे माफ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका। तुम गांव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी मां, सारे गांव की मां हो! मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूँगा। तुम्हारा सब काम करूँगा । बोलो, बड़ी मां तुम गांव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो….!!’’

बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुठ्ठी बासमती चूड़ा डालकर मसकने लगी। …संवाद भेजने के बाद से ही वह अपनी गलती पर पछता रही थी!

फणीश्वरनाथ 'रेणु'

फणीश्वरनाथ 'रेणु' (1921 - 1977) हिंदी भाषा के प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। इनके पहले उपन्यास मैला आँचल को बहुत ख्याति मिली जिसके लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।  उन्होंने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी।

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