“ये कहानी है?”…. नव्या की लिखी रचना को प्रकाशक फेंकते हुए बोला।
“ना कोई रस ना आकर्षण।”
“मैं समझी नहीं सर …कैसा आकर्षण?”
“एक सच्चे प्रेम पर कुछ लिखने की कोशिश की है और एक लेखक हैं उनको भी दिखाया था।”
“प्लीज़ सर अपने अख़बार में जगह दीजिए ना एक बार।” नव्या ने कहा।
“बकवास……तुम क्या प्रेम के बीच प्रकृति को लाई हो और नायिका का चित्रण ! कम से कम नायिका के सौंदर्य का चित्रण तो ठीक करती। ये क्या लिखा है … आँखें चितचोर होंठ अंगारे ….जुल्फें रेशमी। ये क्या चित्रण हुआ।”
“शरीर के उन अंगों का चित्रण छोड़ दिया जिससे पुरूष उत्तेजित हो …”
“प्रेमालाप करते दिखा रही हो और फूल और चाँद का साहारा ले रही हो …। कम से कम उनके प्रेम की व्याख्या तो करती … काम को प्रदर्शित करना जरुरी है..।”
“लोलुपता दिखाने के लिए कम से कम नायक के मन में कामवृत्ति तो दिखाती …. मिलन दिखा रही हो और उपमा का सहारा ले रही हो, संसर्ग तो ठीक से दिखाती .. तुम्हारी रचना को पाठक नहीं मिलेंगे, क्योंकि तुम विचारों को विस्तृत नहीं कर पा रही हो …. ऐसी रचना छाप कर हमें अपना नाम ख़राब नहीं करना ।”
शांति से सुनती नव्या फट पड़ी….
“तो सर प्रेम की भावनाओं को दिखाने के लिए मैं अश्लीलता भरे शब्दों का सहारा लूँ ?”
“माफ कीजिएगा सर ..जब कोई आपसे पूछता है, कि आप किसकी संतान है, तो आप ये नहीं कहते कि मैं मेरे पिता द्वारा माता के गर्भ में रोपित बीज हूँ ….. आप सिर्फ नाम बताते हैं, आप स्थान बताते है ये नहीं बताते कि बच्चे दो टाँगों के बीच से पैदा हुआ, आप ये नहीं बताते की माता के किस अंग से पैदा हुए।”
“फिर मैं कैसे व्याख्या करूँ कि वो प्रेम कैसे कर रहे हैं ?… कथा लिखी है, विधि नहीं ! और ना मिले पाठक और ना मिले प्रसिद्धि। इसके लिए मैं स्त्री के अंगों का मसालेदार वर्णन नहीं कर सकती।”
“बहुत देखी है तुम जैसी! इस बदतमीज़ी के बदले मैं तुम्हारा कैरियर ख़राब करवा सकता हूँ।”
“डर किसे है? मैं तो साधारण हूँ। प्रसिद्धि तो आपके पास है।”
संबंधित पोस्ट:

दिव्या शर्मा
दिव्या शर्मा देहरादून, उत्तराखंड से हैं। आप इन दिनों विश्व भाषा अकादमी, हरियाणा में महासचिव व युग-युगांतर पत्रिका में सह-संपादिका के रूप ने सेवारत हैं। आपको रचनाएँ समय समय पे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे sharmawriterdivya@gmail.com पे बात की जा सकती है।