मैं कूर्सकी रेलवे स्टेशन पहुँचा जहाँ से ठीक नौ बजे सिम्फिरापोल्स्की एक्सप्रेस ट्रेन को छूटना था। टी.टी. ने मेरा टिकट देखा और मैं डिब्बे में घुस गया। वहाँ पहले से ही एक अधेड़ व्यक्ति, एक लड़का और लड़की बैठे थे। लड़की का नाम नास्त्या था।

जैसा कि यात्रा के दौरान हमेशा होता है, हम जल्दी ही एक दूसरे से घुल-मिल गये। अधेड़ उम्र का व्यक्ति जीवविज्ञान का प्रोफेसर था और लड़का-भाषा शास्त्री। ट्रेन अबाध गति से चली जा रही थी। खिड़की के बाहर अंधेरा था प्रोफेसर ने कहा कि उसे यह रास्ता बहुत अच्छी तरह याद है।

— मैं साल में दो-तीन बार इस रास्ते से जाता हूँ।

— क्यों ? लड़के ने पूछा

— मैं सिम्फिरापोल का रहने वाला हूँ। वहाँ अभी भी मेरे रिश्तेदार रहते हैं। मैं कभी छुट्टियाँ बिताने तो कभी कुछ काम से वहाँ जाता रहता हूँ।

कन्डक्टर आया। उसने हमारे बर्थ पर बिस्तर रखा और हमें चाय पिलाई। हमने नास्त्या को भी चाय पिलायी। वह ऊपर की बर्थ पर सोने चली गई। मैं डिब्बे के गलियारे में सिगरेट पीने निकला और जब वापस कूपे में लौटा तब तक सब लोग सो चुके थे। मैंने नीले लैम्प को बुझाया और सो गया।

मैं सुबह जल्दी ही उठ गया। कूपे में नास्त्या और प्रोफेसर नहीं थे। नास्त्या गलियारे में खिड़की के पास खड़ी रास्ते में गुजर रहे गाँवों, धीरे-धीरे बहती नदियों और खेतों के ऊपर फैले नीले आसमान को निहार रही थी। सिगरेट पीने के बहाने प्रोफेसर भी खिड़की के बाहर देख रहे थे।

— आप इतनी जल्दी क्यों उठ गये? – मैंने प्रोफेसर से पूछा।

— एक जगह छूट जाने का मुझे डर रहता है, उन्होंने जवाब दिया। रात में भी जब कभी ट्रेन इस जगह के पास से गुजरती है तो हमेशा मेरी नींद खुल जाती है और मैं खिड़की से बाहर देखने लगता हूँ।

— यहाँ जरूर कभी आपका अपना घर रहा होगा ? मैंने पूछा।

— नहीं यह जगह बिल्कुल अनजान है। मैं वहाँ कभी नहीं गया। यह एक लम्बी कहानी है जो क्रान्ति के पहले शुरू हुई थी जब मैं छोटा बच्चा था। मैं अपने पिता के साथ सिम्फिरापोल से मास्को जा रहा था और इसी लड़की-नास्त्या की तरह सारा दिन खिड़की के पास खड़ा रहा था। मैंने सूखे मैदान के बीच एक अकेली झोपड़ी देखी थी और सोचने लगा था — “वहाँ कौन रहता है इस झोपड़ी में ? जाड़े में इसमें रहना कितना भयावह होता होगा ?” हर बार ट्रेन उसके पास से तेज़ी से गुज़र जाती थी, लेकिन मैं हमेशा वहाँ कुछ न कुछ परिवर्तन देखता था।

एक दिन मैंने झोपड़ी के पास एक औरत को देखा, वह अंगीठी जला रही थी और पास ही उसका बच्चा लेटा था। बाद में मेरी इस झोपड़ी के इर्द-गर्द दूसरी झोपड़ियाँ आ गईं, और धोरे-धीरे इस अकेली टूटी-फूटी झोपड़ी की तरह एक छोटा गाँव विकसित हो गया। बच्चे दिखाई पड़ने लगे। रेल की पटरियों के पास खड़े होकर वह चिल्लाते थे – “बाबूजी ! ब्रेड फेंक दो।” हम उन्हें ब्रेड फेंक देते थे जो बालू में गिर जाती थी। बच्चे झपटते हुये उन्हें उठाकर गाँव की ओर भाग जाते थे। जब क्रान्ति शूरू हुई तो कई सालों तक मैंने उस गाँव को नहीं देखा। अन्त में मैंने उसे देखा। अब गाँव के चारों ओर सूर्यमुखी के खेत थे। अपनी झोपड़ी के पास मैंने लाल स्कार्फ पहने एक लड़की देखी।

बाद में हर बार मैंने यहाँ नई-नई चीजें देखीं। ताजे अंगूर के बाग। नई-नई ख़ूबसूरत झोपडियाँ। हर झोपड़ी के पास लाल और पीले फूल। एक दिन मैंने स्कूली बच्चों को देखा। वे बस्ते लिये भागे जा रहे थे। फिर बिजली घर दिखाई पड़ा। इस तरह एक गाँव का जन्म हुआ। मैं बूढ़ा हो रहा था और मेरे इर्द-गिर्द ज़िंदगी जवान।

— शीघ्र ही मेरा गाँव आने वाला है।

दूर से ही हमने बिजलीघर; बागों में फूल और ताजे भुट्टे के खेत देखे।

— आपकी झोपड़ी कहाँ है ? मैंने प्रोफेसर से जोर से पूछा।

— अभी आती है। वह रही ! वह !

झोपड़ी के आस-पास बहुत से पेड़ व फूल थे । मैंने ओवरकोट पहने और हल्का स्कार्फ बांधे एक औरत को झोपड़ी के पास खड़े देखा।

— तालाब, देखिये ! प्रोफेसर ने मुझसे जोर से कहा। यह पहले नहीं था। सूरज की रोशनी में एक बड़ा, गहरा तालाब चमक रहा था। बच्चे उसमें नहा रहे थे। यह सब कुछ जल्दी ही पीछे छूट गया।

— सच,प्रोफेसर ने कहा – मैं बूढ़ा हो रहा हूँ और मेरे इर्द-गिर्द ज़िंदगी जवान हो रही है। लेकिन फिर भी मैं इस सहकारी फार्म में अवश्य जाऊंगा। मैं अपनी इस झोपड़ी में जाऊंगा और इस महिला से कहूंगा कि मैं उसे कई सालों से जानता हूँ। मैं उसकी माँ को भी जानता हूँ और उसके गाँव के पूरे इतिहास को भी।

वह चुप हो गया। पर मेरे मन में आने वाले पहले ही स्टेशन पर उतर कर उस गाँव में लौटने और लहलहाते गेहूँ के खेत में गर्म मैदान के बीच स्थित उस छोटी झोपड़ी में रहने की इच्छा जाग्रत हो गई।

[ अनुवाद – पंकज मालवीय ]

कोन्स्टेंटिन जोर्जिएविच पेस्तोव्स्की
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कोन्स्टेंटिन जोर्जिएविच पेस्तोव्स्की (1892 - 1968) प्रसिद्ध रूसी लेखक थे जिन्हें 1965 में नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था. कारा-बुगाज़ (1932) और कोलिफ़िडा (1934) के लघु उपन्यासों ने उन्हें व्यापक लोकप्रियता दिलाई। उनका मुख्य कार्य, पोवेस्ट ओ ज़िज़नी (1946–62; द स्टोरी ऑफ़ ए लाइफ), कई संस्करणों में प्रकाशित यादों का एक आत्मकथात्मक चक्र है।

कोन्स्टेंटिन जोर्जिएविच पेस्तोव्स्की (1892 - 1968) प्रसिद्ध रूसी लेखक थे जिन्हें 1965 में नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था. कारा-बुगाज़ (1932) और कोलिफ़िडा (1934) के लघु उपन्यासों ने उन्हें व्यापक लोकप्रियता दिलाई। उनका मुख्य कार्य, पोवेस्ट ओ ज़िज़नी (1946–62; द स्टोरी ऑफ़ ए लाइफ), कई संस्करणों में प्रकाशित यादों का एक आत्मकथात्मक चक्र है।

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