‘तीसरी कसम’ के सेट पर तीन दिन

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पूरे चालीस घण्टे की लम्बी और ऊबभरी यात्रा का अन्त डेढ़ बजे दिन में दादर स्टेशन पर हुआ। प्लेटफार्म पर पैर रखते ही सूचना मिली के ‘तीसरी कसम’ की शूटिंग कमाल स्टूडियो में ‘चाल’ है और प्रोड्यूसर तथा डायरेक्टर साहब ने कहा है कि तनिक विश्राम करके मैं भी तीन बजे तक स्टूडियो पहुँच जाऊँ तो अच्छा…!

कमाल स्टूडियो के तीन नम्बर फ्लोर के फाटक पर मैं ठीक तीन बजे दिन में हाजिर था और ‘तीसरी कसम’ के डायरेक्टर नम्बर तीन, श्रीमान बाबूराम ‘इशारा’ ने पहली निगाह में मुझे पहचानने से साफ इन्कार कर दिया। मूक अभिवादन भरी मेरी मुस्कराहट पर उनकी मुख-मुद्रा और गम्भीर हो गयी, ‘शूटिंग देखना माँगता है यह आदमी !’ बाद में गले से लिपटकर बोले, ‘दादा, आप तो एकदम मेकअप बदलकर आये हैं. ..!’ (रेणु ने अब बाल लम्बे रख लिये हैं, पिछली बार जब वे बम्बई पधारे थे तब ऐसे नहीं थे। –सं.)

स्टूडियो के अन्दर कदम रखते ही डायरेक्टर (यंग ! ) बासु भट्टाचार्य का उच्च ग्राम में बँधा हुआ स्वर सुनायी पड़ा, ‘शैलेन्द्र ! उधर देखो –तुम्हारा गेस्ट !’

हाँ, बासु भट्टाचार्य ही नहीं-‘इमेज मेकर्स’ के प्रायः सभी लोग मुझसे नाराज, दुखी और रूठे हुए थे. ‘आधी तस्वीर बन चुकी है और अभी तक ‘राइटर साहब’ ने एक बार भी…!

मुझे भी इस बात का कम दुख नहीं था कि मैंने अभी तक अपनी तस्वीर की शूटिंग नहीं देखी । अपनी ही क्यों, किसी की, किसी भी तस्वीर की शूटिंग मैंने अब तक नहीं देखी !

…गीतकार शैलेन्द्र जब मुस्कराता है तो प्यार भरे गीत का कोई ‘मुखड़ा’ गूंज उठता है । ‘कौन कहता है कि हम पूरे ढाई साल के बाद मिले हैं ?’

एक ओर नौटंकी (दि ग्रेट भारत नौटंकी कम्पनी) का सेट लगा हुआ है और स्टेज के पीछे करीब आध दर्जन तम्बू तो, ‘लोकेशन’ देख आने का यह शुभ परिणाम है। हू-ब-हू वैसा ही स्टेज, जैसा पूर्णिया के गुलाब बाग मेले में-प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, कैमरामैन और असिस्टेण्ट्स देख आये हैं।

दूसरी ओर, गाड़ीवान, पट्टी के एक किनारे एक ‘टप्पर’ गाड़ी खुली पड़ी है। गाड़ी के पास गोबर, गोमूत्र के कीचड़ में घुटना टेककर, भक्तिभाव से गाड़ी की ‘बल्ली’ पर एक अभिनेता अपने हृदय की श्रद्धा बिछाये जा रहा है। ‘डॉयलॉग’ और ‘एक्शन’ का रिहर्सल कर रहा है, पलटदास?

…तो यह उस समय की बात है जब ‘जनाना जात और रातवाली बात’ सोचकर हिरामन ने पलटदास को चेतावनी देकर भेजा था। लेकिन तुम वहाँ अपना ‘भजन’ मत शुरू कर देना !’

‘लेकिन, टप्परगाड़ी के अन्दर तो सिर्फ एक तकिया चादर में लिपटा हुआ है और यह पलटदास उस तकिये को ही भक्ति-गद्गद स्वर में कह रहा : ‘ए सीता मैया। ‘सिया-सुकुमारी…?’

कैमरामैन सुब्रतबाबू भ्र-कुंचित करके एक ओर असंतुष्ट और तटस्थ खड़े थे, ‘मेला में हम जैसा फॉगी-ईवनिंग (कुहरा-भरी सन्ध्या) देखा है वैसा इफेक्ट कहाँ…?’

तीनों डायरेक्टर एक साथ चिल्ला उठे, धूप लोहवान डालो ! गुग्गुल !! डालो !’

तुरत सुब्रत मित्रा के ‘मन के माफिक’ कुहरा भरी साँझ (पवित्र सुगन्धमयी सन्ध्या ! ) घिर आयी-गाड़ीवान पट्टी के उस कोने पर। ऐसे वातावरण में पीछे से एक भद्र महिला सिलेटी रंग की फूलदार-साड़ी में-झुकी निहुरी (भले घर की बहू-बेटी जैसी ! ) प्रकट हुई ! – बासु भट्टाचार्य सेट पर ही नहीं-सेट के बाहर भी किसी बात पर तनिक अधिक जोर डालकर बोलते हैं। और, खास-खास मौके पर उनकी बात ‘दुधारी’ मार करती है । बोले, ‘देखून राइटर साहब ! आपनार हीराबाई ।’

(… देखून हीराबाई ! आपनार राइटर साहब।’)

हीराबाई टप्पर के अन्दर जाकर बैठ गयी। गाडीवान की ‘आसनी’ पर उसके दोनों पैर! पैरों में चाँदी के पाजेब, उँगलियों में चाँदी के छल्ले ! . . ‘मुझे, न जाने क्यों किसी प्रिय कवि’ की किसी कविता की एक पंक्ति, बार-बार याद आने लगी : ‘ये शरद के चाँद से उजले धुले से पाँव…!!’

उधर, पलटदास इन चरणों की सेवा करने को आतुर ! डाइरेक्टर साहब पैरोंक पोज के लिए परेशान, कैमरामैन ‘फ्रेम और पोजीशन’ ठीक करने में व्यस्त और असिस्टेण्ट काण्टीन्यूटी खोज रहे थे । और, मेरे पास बैठा हुआ गीतकार-प्रोड्यूसर शैलेन्द्र, दूर से ही पैरों के रिदम की बात सोच रहा था। पौन घण्टे के बाद सभी एक साथ सन्तुष्ट हुए और तब ‘संवाद’ और अभिनय का रिहर्सल शुरू हुआ।

‘क्या है ? बोलो ‘हाँ-हाँ-कहो अरे; क्या ? बाजा बजाना चाहता है ?’

‘जी चरणसेवाआप सिया सुकुमारी मैं सेवक…!’

हीराबाई तमककर पैर छुड़ाती है, अरे, भाग ! .. भाग जा यहाँ से । पलटदास देखता है ‘सिया सुकुमारी की आँखों में चिनगारी? वह भागता है । हीराबाई मुस्कराकर बुदबुदाती है, ‘पागल !’

“ठीक है। रेडी फॉर टेक.।”

किन्तु, सुब्रत बाबू किसी कारणवश जरा ‘बिब्रत’ हैं, “ऐंगिल ठो तो ठीक है लेकिन ? · . ‘अच्छा ठीक है ! पलटदास का पीछू’ में माने ‘पेंदी’ में एक छै इंची का देना पड़ेगा!”

तीनों डायरेक्टर चिल्लाये, ‘लगाओ छै इंची !’..यह छै इंची क्या है राम ? देखा, लकड़ी का एक पीढ़ा पलटदास के नीचे डाल दिया गया।

इसी बीच असिस्टेण्ट डायरेक्टर बासु चटर्जी ने मेरे पास आकर धीरे से कहा, “चलिए, जरा कैमरा के ‘व्यू फाइण्डर’ में आँख सटाकर देखिए, तब पता चलेगा कि गाड़ी में कैसा ‘चम्पा का फूल’…!”

बासु चटर्जी असिस्टेण्ट डायरेक्टर के अलावा बम्बई का एक मशहूर ‘कार्टूनिस्ट’ है, जो हर सप्ताह अपनी बाँकी निगाह से दुनिया को देखता है और दिखलाता है। इसलिए उसकी किसी बात पर पहली बार, गम्भीरतापूर्वक मैं कभी नहीं ध्यान देता । मैंने कहा, ‘नहीं चटर्जी मोशाय ! मैंने जिस चश्मे से हीराबाई को देखा है, देख रहा हूँ !’

तब चटर्जी मोशाय को यह कहना पड़ता है, ‘मैं सीरियसली कह रहा । चलून ना, एक बार देखून तो !’

एक बात कह दूं, मैं सुब्रत बाबू के कैमरे को सुब्रत बाबू को देह से भिन्न नहीं—उनका सजीव अंग मानता हूँ। मेरे दिल में इस व्यक्ति (कैमरा सहित) के लिए असीम श्रद्धा है। मुझे याद है, आज से तीन वर्ष पहले जब आउट डोर के लिए ‘लोकेशन’ देखने और गुलाबबाग मेले की शूटिंग के लिए ‘तीसरी कसम’ की यूनिट पूर्णिया गयी थी. . ‘पथेर पांचाली’, ‘जलसाघर’, ‘अपराजितो’, ‘अपूर संसार’ को सेल्यूलाइड पर अंकित करने वाले व्यक्ति (और मशीन) को निकट से देखने का सुअवसर मिला था। हम करीब एक सप्ताह एक साथ रहे थे। वे मेरे गाँव-मेरे घर में कई दिन ठहरे ही नहीं थे—मेरी हवेली के अन्दर (कथांचल के लोगों के चलनेफिरने, बोलने-बतियाने के ढंग को चित्रबद्ध करने के लिए !) परिवार की महिलाओं का ‘चलचित्र’ लिया था। तीन दर्जन बैलगाड़ियों को दौड़ आम के बाग की ढलती हुई छाया’ सिन्दूरी-साँझ की पृष्ठभूमि में उड़ते हुए बगुलों की पातियाँ ‘इन सारे दृश्यों को ‘ग्रहण’ करते समय सुब्रत बाबू के चेहरे पर एक अद्भुत चमक खेल जाती थी।…

इसके बावजूद, मैं उनकी आज्ञा के बिना उनके कैमरे को छूने का साहस नहीं कर सकता। सुब्रत बाबू मुस्कराये (बहुत बड़ी बात है !) और मैंने आँख सटाकर देखा और देखकर उसी तरह भड़का जैसे टप्परगाड़ो में झाँककर पलटदास भड़का था : ‘अरे आप !’ कम्पनी की औरत? कम्पनी का बाघ? आँखें-बाघ की या औरत की?

व्यू फाइण्डर से देखा कि एक जोड़ी घुड़कती हुई आँखें मुझे घूर रही हैं । सिया सुकुमारी की आँखों से चिनगारी निकल रही है ?

कई बार कट-कूट करने के बाद-अन्तिम ‘टेक’ हुआ। डाइरेक्टर ने ‘ओके’ बोल दिया । मगर कैमरामैन से जब प्रोड्यूसर साहब ने पूछा तो जवाब मिला, “कुछ कह नहीं सकता। ठीक हुआ है शॉट, किन्तु हम आखिरी डॉयलॉग के समय वाहिदाजी का चेहेरा ‘मन का माफिक’ नहीं पाया !”

‘रिटेक !’.. ‘ओके !’

मेरे अन्दर में किसी ने ‘डॉयलॉग’ दुहराया : ‘इस्स ! इतना तेज जेहन ? ..’और बोली भी हू-ब-हू फेनूगिलासी ?’

कल हीराबाई के नाच का ‘पिक्चराइजेशन’ होगा स्टेज पर । मैं, टेकरिटेक-एनजी-ओके-ऑल, लाइट-बेबी-पंजा-कटर-एलकटर-नेट-फ्लोरा-ज़म और छै इंची जैसे शब्दों को रटता हुआ अपने निवास स्थान पर लौटा।

सामने, स्टेज पर पनघट का सेट लगाया जा रहा है। दोनों ओर विग्स में आधे दर्जन जलते हुए पेट्रोमेक्स लटक रहे हैं । नृत्य निर्देशक लच्छू महाराज सपत्नीक स्टेज पर खड़े डाइरेक्टर बासु को अंग-प्रत्यंग नचाकर कुछ समझा रहे हैं । और, एक रुपया वाले ‘क्लास’ में एक बेंच पर बैठकर मैं, गीतकार शैलेन्द्र के मुंह से गीत की पंक्तियाँ सुन रहा हूँ : हाय गजब कहीं तारा टूटा…!!

आज, इस शूटिंग के तीसरे दिन, तीन तारे टूटनेवाले हैं। पहला तारा — अटरिया पर, दूसरा फूलबगिया में, तीसरा — बीच बजरिया में !

कल वाली हीराबाई, भले घर की बहू-बेटी जैसी, थकी सिया सुकुमारी-सी हीराबाई कहाँ चली गयी ?

मुझे फुटबाल के एक मैच की याद आयी। मोहन बागान टीम का कैप्टन चुन्नी गोस्वामी तथा उसकी टीम के अन्य खिलाड़ी मैदान में उतरने के पहले अपनी-अपनी देह के हर जोड़ को तोड़-मरोड़ और झकझोर रहे हैं। किन्तु मेरी निगाह सिर्फ चुन्नी गोस्वामी पर है। वह खंजन की चाल में कुछ दूर दौड़कर हठात् दायें-बायें तिरछी चाल चलता है फिर कमर पर हाथ रखकर लगातार कूद रहा है…!

धाधरी और घंघरू ! चन्द्रहार और बाजूबन्द और कंगना और नकबेसर और यह खिलखिलाहट ? चुन्नी गोस्वामी खंजन की चाल में कुछ दूर दौड़कर फिर तिरछी चाल चलता है ! मैदान में उतरने के पहले देह के हर जोड़ को तोड़-मरोड़ रहा है । किन्तु सबकुछ एक ताल पर हो रहा है। ‘हीराबाई स्टेज पर लापरवाही से चलती है, हँसती है, बतियाती है और हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाती है । मेकअप करती है, घुघरू बाँधती है। और सबकुछ एक लय में बँधा हुआ है।

सीटी बजी । म्यूजिक शुरू हुआ और धुंघरुओं ने गीत के बोल का स्पष्ट उच्चारण कर दिया । लच्छू महाराज के मुंह से बरबस निकल पड़ा : ‘जीयो ! जीयो !’

एक-डेढ़ घण्टे के घनघोर-रिहर्सल के बाद पहली पंक्ति और नाच के पहले टुकड़े की ‘टेकिंग’ के लिए क्षणिक विश्राम दिया गया : ‘लाइटस आफ !’

तब, हम दोनों भाइयों (कथाकार और गीतकार) ने मिलकर नौटंकी का एक गीत गुनगुनाना शुरू किया :

‘अरे तेरी बाँकी अदा पर मैं खुद हूँ फिदा,
तेरी चाहत की दिलवर बयाँ क्या करूँ।
यही खाहिश है कि तू मुझको देखा करे—
और दिलोजान मैं तुझको देखा करूँ।’…

किर्रर्र-र-र-किर-किर-घन-घन-घन-घडाम । घन-घन-घन-घड़ाम !!

…पिछले तीन वर्षों से हम दोनों किसी बात पर जब एक साथ अतिप्रसन्न होते हैं तो नौटंकी की इन्हीं पंक्तियों को इसी तरह गाते हैं और एक-दूसरे को कई मिनट दिलोजान देखते रहते हैं, फिर हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते हैं । हाँ, हम सैकड़ों योजन दूर बैठकर अपनी चिट्ठियों में भी इस गीत को गाते हैं !

गीता का मुखड़ा और नृत्य का पहला टुकड़ा सकुशल ‘चित्रित’ (पिक्चराइज) हुआ। आश्चर्य ! ‘लंच’ शब्द के साथ ही इतनी जोर की भूख जग पड़ती है ! अथक और सार्थक पनिश्रम के बाद भोजन में यों भी बहुत स्वाद मिलता है।

उस दिन लच्छू महाराज के पास जितने नुकीले टुकड़े थे (तीर, तलवार, कटार, खंजर, बल्लम, बी, भाला !!) वासु भट्टाचार्य एक-एक कर मांगता गया और वयोवृद्ध कथक-आचार्य ने प्रसन्नचित्त सबकुछ दिया !

मैंने भी माँग की, ‘शैलेन्द्र भाई ! कोण-त्रिकोण-त्रिभुज तो बहुत लिये गये । किन्तु, कुछ बृत्त और चक्र भी चाहिए…- हिरामन के मन को चख: पर चढ़ाने के लिए कुछ स्पिनिंग’ . . . ! ‘

शैलेन्द्रजी को बात भा गयी और वे उठकर डाइरेक्टर और कैमरामैन से कह आये । और तब सुब्रत बाबू ने मेरी ओर जिस मीठी निगाह से देखा, उसे मैं कभी नहीं भूल सकता। उन्होंने सोत्साह पुकारकर कहा, ‘क्रेन माँगता है !’

‘पुरइन के पात की तरह खिली हुई घाँघरियाँ !!’

और, उसी दिन सेट पर एक डॉयलॉग सुना, जिसे मैंने नहीं लिखा। रिहर्सल के बाद डाइरेक्टर ने कहा, ‘टेक !’

वहीदा रहमान ने कहा, ‘नो टेक विदाउट टेप !’

रिहर्सल के सिलसिले में धुंघरू बाँधने की जगह छाले पड़ जाते हैं तब ‘ल्युकोप्लास्ट’ नामक फीते का टुकड़ा काटकर चिपका दिया जाता है । किन्तु, पैरों की गति के ‘क्लोजअप’ लेने में कैमरामैन को इससे थोड़ी असुविधा होती है। इसलिए बासु बाबू ने कहा, ‘नो टेप ! . . नौटंकी की लड़कियाँ इतनी नाजुक नहीं होतीं।’

‘नाजुक न हों, इन्सान तो होती हैं,” वहीदा के इस जवाब ने मार्क्सवादी बासु भट्टाचार्य के मुंह पर ताला जड़ दिया।

चाय के समय पूर्णिया से आये मेरे मित्र अरुण भारती ने विशुद्ध मैथिली में पूछा, ‘साँझुक की प्रोग्राम अछि ?’ और मैंने उन्हें शाम को जिस स्थान पर मिलने को कहा-वह बम्बई में नहीं, भट्टाबाजार पूर्णिया में है। अरुण अवाक् होकर मुझे कुछ क्षण देखता रहा, तो मुझे होश हुआ कि मैं गुलाबबाग मेला में नहीं – कमाल स्टूडियो में हूँ !

तीसरे दिन लंच के बाद शैलेन्द्रजी कहीं चले गये तो मैं अकेला पड़ गया। गीत और नाच की अन्तिम कड़ी के कई ‘रिटेक’ हो चुके थे। मुद्राओं के क्लोजअप लिये जा रहे थे। स्टिल-कैमरामैन राकेश इधर-उधर घूमकर अपना फ्लेश चमका रहा था। इसी समय मेरे पासवाली खालो कुर्सी पर वहीदा रहमान की ‘हेयर ड्रेसर’ आकर बैठी। उसकी मुस्कराहट से लगा, वह मुझसे कुछ पूछना चाहती है।

उसने पूछा, “एक्सक्यूज मी यह कहानी आपने लिखी है ?”

“जी हाँ !”

“और आप भी इस फिल्म में उतर रहे हैं !”

“नहीं तो?”

“ओ ! …तो, फिर आपने ये बाल क्यों ‘उपजाये’ हैं ? कोई धार्मिक कारण है या…?”

“थोड़ा धार्मिक और थोड़ा शौक भी! गंजा होने के पहले एक बार बालों की बागवानी…?”

“नाइस ! “कौन-सी क्रीम व्यवहार करते हैं ?” “पिछले तीस साल से कोई तेल या क्रीम कुछ नहीं डाला।”

भद्र महिला अचरज में पड़ गयी, “सिर चकराता नहीं ? केश झड़ते नहीं ? रंग तो किन्तु…!”

अंग्रेजी भाषा में दो-चार गज से ज्यादा बात करते मेरा दम फूलने लगता है । इसलिए मौका पाते ही सवालों का सूत्र मैंने अपने हाथ लिया, “आप स्टुडियो की ‘हेयर ड्रेसर’ हैं ?”

“नहीं, सिर्फ (एक्सक्लूसिवली) वहीदा रहमान की।”

“ओ !”

“बेतरतीब होने के बावजूद, आपके बाल सुन्दर लगते हैं। खूब घने हैं, नरम भी होंगे।”

(‘काले भी हैं !’ मैं कहना चाहता था।)

”मेमसाहब के गंगा-जमुनी केश पर नजर पड़ते ही मैंने बात बदल दी, “मैं बहुत दिनों से किसी ‘हेयर ड्रेसर’ की सलाह लेना चाहता था।”

वह हँसकर बोली, “हेयर ड्रेसिंग के अलावा मैं वेस्टर्न-म्यूजिक कम्पोज करती हूँ। मैंने अपना दो कम्पोजीशन पर्ल बक को भेजा है। उन्होंने लिखा है, किसी फिल्म में उपयोग करेंगी।”

इस तरह बात केश-प्रसाधन से शुरू होकर पश्चिमी संगीत पर आयी, फिर वहीदा रहमान की ओर मुड़ गयी। वह बोली, “मिस्टर राय (सत्यजीत) की वहीदा रहमान के बारे में क्या राय है, जानते हैं ?”

“हाँ, किसी बंगला-सिने-पत्रिका में पढ़ा था। ‘आनेवाले पच्चीस साल में इस कलाकार से फिल्म बनानेवाले कितना और क्या वसूल सकते हैं यह उनकी प्रतिभा और शक्ति ..!”

उधर स्टेज पर अचानक काम रुक गया। किसी ने किसी से हल्की आवाज में कहा, ‘लुक ! लुक ! ह्वाट ए नाइस पेयर !’ डाइरेक्टर, असिस्टेण्ट्स, कैमरामैन, आर्टिस्ट्स सभी खामोश हो गये, किन्तु हम बातचीत में मशगूल रहे। और उधर स्टिल कैमरामैन राकेश को किसी ने इशारा किया। फ्लैश की चमक पर हमारा ध्यान भंग हुआ और फ्लोर पर बहुत देर तक हँसी और ठहाके और कहकहों का आर्केस्ट्रा बजता रहा।

शाम को लौटते समय मुझे लगा—वर्षों से मेरी छाती पर बैठकर मूंग दलनेवाले हिरामन, लालमोहर, पलटदास और लहसनवाँ–सभी देवदानव एक साथ उतरकर कहीं चले गये। सिर्फ चक्की की घरघराती हुई, घूमती हुई एक रागिनी मेरे मन में मँडरा रही थी। मैंने गीतकार की ओर देखा। उनकी मुखमुद्रा से लगा वह फिर ‘तेरी बाँकी अदा पर’ शुरू करेंगे। मैंने कहा, “नहीं भाई, वह ‘वह’ बन्दिनी का वह गीत…।’

गाड़ी घोड़बन्दर रोड छोड़कर लिंकिंग रोड की ओर मुड़ रही थी। गीतकार गुनगुना रहा था : ‘अबकी बरस बाबुल भैया के भेजऽऽ…।’

मेरा ‘भैया-मन’ दूर अपने गाँव की गलियों की राह ढूँढ़ने लगा। जहाँ मेरी बहनें मिल-जुलकर गा रही थीं : सुनु मोरी सखिया—सावनभादव केरि ठमड़लि नदिया—भैया अइले बहिनी बुलावे लाहे—सुनु सखिया-या-या।’

[धर्मयुग/26 अप्रैल, 1964]

फणीश्वरनाथ 'रेणु'
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फणीश्वरनाथ 'रेणु' (1921 - 1977) हिंदी भाषा के प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। इनके पहले उपन्यास मैला आँचल को बहुत ख्याति मिली जिसके लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।  उन्होंने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी।

फणीश्वरनाथ 'रेणु' (1921 - 1977) हिंदी भाषा के प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। इनके पहले उपन्यास मैला आँचल को बहुत ख्याति मिली जिसके लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।  उन्होंने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी।

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