समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।
किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।
शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाए, विरह ने बुझाए।
भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाए, उषा ने सुलाए।
सुरभि की अनिल-पंख पर मोर भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
तुहिन-बिन्दु बनकर बिखर पर गए स्वर
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाए, लहर ने बहाए।
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शम्भुनाथ सिंह
शंभुनाथ सिंह (१७ जून १९१६-३ सितम्बर १९९१) का जन्म गाँव रावतपार, जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश में हुआ था वे नवगीत के एक प्रमुख प्रणेता माने जाते हैं। उनका जन्म गाँव रावतपार, जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश में हुआ था। वे नवगीत के प्रतिष्ठापक और प्रगतिशील कवि माने जाते हैं। उनका प्रमुख कार्य नवगीत के तीन ’दशकों’ का सम्पादन, ’नवगीत अर्द्धशती’ का सम्पादन तथा 'नवगीत सप्तक' का सम्पादन है।