मैं फ़िलॉसफ़र नहीं हूँ

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मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं लिख नहीं सकता, क्योंकि दिमाग में ख़यालात इतने बारीक आते हैं कि जिनको जाहिर करने के लिए मुझे भाषा नहीं मिलती। आप खुद जानते हैं, कि जिस दुपहर को आपको नींद नहीं आती और न पढ़ने-लिखने में मन लगता है, तब ख़यालात गजब की बेतरतीबी से दिमाग में आते-जाते रहते हैं। और न जाने क्यों उनकी इस हालत से मन व्याकुल हो उठता है, और चाहता है कि वह घर के शीतल और अँधेरे कोने के एकान्त के समान किसी शान्त गहराई में डूब जाये, रम जाये। जब मन में ऐसी शीतल शान्त और अगाध गहराई में मुक्तमग्न हो जाने के ख़यालात आते हैं, तब चिलचिलाती धूप बाहर चराचर कर अपने गरम-गरम स्पर्शों से जलाये डालती है, भूने डालती है। तब मन का अकेला पंछी अपनी नीड़ खोजने के लिए बेतरतीब ख़यालात की ममी में से होकर निकलता है, और उड़ता चलता है, और उड़ता चलता है। और सूरज की तेजी से व्याकुल होती हुई, बिस्तर पर पड़ी हुई आदमी की देह पंखा करती रहती है अपन को। तभी घर की कॉरनिश में छायादार जगह पर रहनेवाली कबूतरों की टुऊ-दुऊ घर के सूने में समाये हुए मौन को चीर डालती है, फाड़े डालती है।

उजड़े हुए घर में रहनेवाली अशरीर आत्मा के समान एक अजीब वेदना हृदय के सूने को करुणान्त स्वर से गुंजाती रहती है। तब हृदय भागना चाहता है, अपने से ही, किसी ऐसी जगह की तलाश में जहाँ उसे आश्रय मिल सके, जहाँ अपने जर्र-जर्र जीवन को वह टिका सके।

और, जनाब, मुआफ कीजिए, मैं कोई ले मैन – साधारण आदमी नहीं हूँ। मैं कालेज में प्रोफेसर हूँ, और घर में जनक हूँ। और थियॉसॉफिकल लाज में फिलॉसफर के नाम से मशहूर हूँ। और, कुछ मत पूछिए, मैं कुछ-कुछ क्रान्तिकारी भी हूँ और थोड़ा-सा साम्यवादी हूँ। कवि मैं जन्म से ही हूँ, पर अब मैंने कविता लिखना छोड़ दिया है, क्योंकि राजनीति के अभ्यास में दत्तचित्त हूँ। मैं हमेशा मेटीरियलिस्ट हूँ, घर में ऐथीस्ट हूँ। फिलॉसॉफिकल क्लब में प्रैग्मेटिस्ट हूँ। इसीलिए सब-कुछिस्ट हूँ।

सो, साहब, मैं साधारण आदमी नहीं हूँ, असाधारण हूँ, और साहित्य में युगधर्म का पक्षपाती हूँ। पर क्यों जी, यह तो बतलाओ, कि दुनिया की जिस रूप में वह है उस रूप को अत्यन्त सत्य मानते हुए मन क्यों उचट जाता है। उस माने हुए सत्य की भयंकर व्यर्थता का भान क्यों जीवन के फल को अन्दर से कुरेदने लगता है?

जितना अधिक, जनाब, मैं इस बात को फील करता हूँ उतना ही अधिक वास्तव सत्य से चिपटकर रहता हूँ। यानी जिस तरह देवदास शराब को पीकर अपने दिल के घाव को भुलाये रखता था, वैसे ही मैं भी अपने इस गहरे सन्ताप को कतई भूल जाने के निमित्त स्वयम् को विस्तृत संसार के कर्मों में लीन कर देता हूँ। सांसारिक सत्यों की व्यर्थता के सन्ताप को अपने दिल से दूर रखने की चेष्टा किया करता हूँ। क्योंकि मेरा ख़याल है कि जगत् में जगत् का होकर रहना चाहिए।

लेकिन यार, कोई अपने को कहाँ तक बचाये। वैसे तो मैं अकेला रहना बिल्कुल पसन्द नहीं करता और मन को भी किसी-न-किसी काम में जुटाये रहता हूँ। परन्तु कभी-कभी किसी एकाध मित्र के साथ बाहर निकलना ही पड़ता है। और कभी-कभी जब इसी तरह मैं बाहर प्रकृति के आँगन में निकल पड़ता हूँ अपने एकाध मित्र के साथ, तब मजेदार बातचीत तो एक ओर रह जाती है, और मेरा मन उस निसर्ग सौन्दर्य को देखकर अपने से ही उचट जाता है।

तब कभी-कभी मैं चाहने लगता हूँ कि प्रकृति की रंगबिरंगी संवेदनाओं को अपने मन के दरवाजे के बाहर ठेलकर फेंक दूँ। और हमेशा को उनके लिए दरवाजा बन्द कर दूँ।

पर ये संवेदनाएँ, क्या कुछ कम शक्तिशाली होती है? मैं जितनी सरलता से कह जाता हूँ उतनी ही सरलता से कर नहीं सकता, और मन उचटता ही रहता है। जिस तरह लोग अपना मन रमाने के लिए जगत् के कोलाहल से फटे हुए कान के परदों को कोकिल के स्वर के स्पर्श से ज्वलन्त करने के लिए आते हैं, वही निशाकुल संध्या के समय जबकि नदी के सुदूर किनारे पर लगी हुई वृक्षावलियाँ अन्धकारमय होकर पीले श्यामल नभ में कजरारी, दिखने लगती हैं, और उस कजरारेपन की गहन गम्भीरता नदी के लहरिल जल में मग्न हो जाती है, मैं उस अत्यन्त शान्त बेला में नदी के छोटे से घाट पर पानी पीता हुआ अपने से कितना विरक्त अनुभव करता हूँ?

जनाब, मैंने बी.ए. में फिलॉसफी ली थी, और फर्स्ट क्लास में पास हुआ। एम.ए. में फिलॉसफी ली और युनिवर्सिटी में फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया। तभी मेरा एक मित्र कहने लगा, “चश्मे के काँच में से झाँकती हुई तुम्हारी आँखें अब अधिक गम्भीर मालूम होने लगी है।” लेकिन मैं सच कहता हूँ जब मैंने दिमाग से पूछा, “क्या सचमुच तुम गम्भीर हो गये हो?”

तो, दिमाग से उत्तर आया, “नहीं, मैं बिल्कुल कोरा हूँ, टैब्यूला रासा।”

मैं चुप रहा और मुस्कुराते हुए लोगों के अभिवादन स्वीकार करने लगा। मैं रिसर्च-स्कॉलर हो गया। “फिलॉसफर्स ने ऑन्टॉलॉजी, एपिस्टेमॉलॉजी और एक्श्यॉलॉजी में कनफ्यूजन कर दिया,” मैंने खोज करना आरम्भ कर दिया। “शंकराचार्य का ऐब्सोल्यूट, हैगेल के ऐब्सोल्यूट से भिन्न है, हाँ है तो,” और मेरी विचारधारा चलने लगी।

जब मैं डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की डिग्री लेकर युनिवर्सिटी का गाऊन पहिने हुए बाहर निकला तो पता चला कि इतने सालों की मेहनत और बुद्धि-व्यय के बाद मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ। मैंने धीरे से अपने से पूछा, “कहो, भाई, अब तो तुम पढ़-लिख गये हो।”

और एक आवाज आयी, “मैं बिल्कुल कोरा हूँ, टैब्यूला रासा!”

मैंने देखा युनिवर्सिटी के मैदान पर अपार जनसमूह मेरा अभिवादन करने के लिए उत्सुक खड़ा है। किन्तु वह मेरे लिए प्राणहीन, नि:स्पन्द और कोरा है। सब ओर मुझे कोरा सूनापन दिखलायी दिया। मैं गरदन नीची डाले हुए भीड़ में एक ओर गुम हो जाना चाहता था कि मेरे एक मित्र खुशी के सागर में तैरते हुए मेरे समीप आये, और लगे कॉन्ग्रेच्युलेशन्स देने।

मैंने कहा, “जनाब, चलिये इधर, चाय पी आयें।” उसने कहा, “जनाब मैं बनारसी हूँ मिठाई खाऊँगा।” मैंने कहा, “तो हटिये, मुझे जाने दीजिये। चाय की तलब लग रही है।”

मेरे चेहरे पर की उदासी अब क्रोध में परिवर्तित होते देखकर हमारे मित्रवर बोले, “अच्छा तो, डाक्टर के.एल. राय कह रहे थे कि प्रो. त्रिमूर्ति की खाली जगह पर आपको हेड ऑफ दी डिपार्टमेण्ट ऑफ फिलॉसफी नियुक्त किया गया है।”
मैं उछल पड़ा, उदासी भाग गयी, क्रोध हट गया।
मैंने कहा, “अच्छा तो तुम मिठाई खाओ, मैं चाय पियूँगा।” मैंने सोचा, “अभी मैं कितना उदास था, अब कितना खुश हूँ। सचमुच जीवन बिलकुल लॉजिकल नहीं है।”

मैं अपने विद्यार्थियों को मेटाफिजिक्स पढ़ाया करता हूँ। लोग मेरी बहुत तारीफ करते हैं। प्रान्त भर में मैं प्रसिद्ध हूँ। लेकिन, जनाब, मैं आपसे सच कहता हूँ कि पढ़ाते-पढ़ाते ऐसा जी होता है कि, कप-भर चाय पी लूँ और उनसे साफ-साफ कह दूँ कि “मुझे कुछ नहीं आता है। मुझ पर विश्वास मत करो। मेरी विद्वत्ता इन्द्रजाल है। इसके साथ फंसोगे तो जीवन-भर धोखा खाओगे, और मुझे नहीं भूलोगे।” तब मुझे ऐसा लगता है मानो मेरे दिल में खून बह रहा हो।

[कर्मवीर, खण्डवा, 30 सितम्बर 1939 में प्रकाशित।]

गजानन माधव 'मुक्तिबोध'

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (1917 - 1964) की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है. हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी. उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है.

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (1917 - 1964) की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है. हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी. उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है.

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