नयी कविता एवं मेरी रचना प्रक्रिया

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यह विषय मेरे लिए नया है। कोई सोच नहीं सकता कि वह किस तर्ज से लिखता है। आधुनिक काव्य की जो रचना-प्रक्रिया है उस पर निर्णय लेना पाठकों का कार्य है। आधुनिक यथार्थ के कुछ बिम्ब आधुनिक काव्य-प्रक्रिया के अंग हैं। जिस तरह की काव्यधारा चली या जैसी शैली चली उसका प्रभाव मुझ पर भी पड़ा, कारण कुछ भी हो कह नहीं सकता, शायद इसलिए कि हिन्दी साहित्य के बड़े-बड़े केन्द्रों से मेरा निकट का सम्बन्ध रहा या और भी कुछ। फिर सारी स्थितियों के घात-प्रतिघात भी रचना-प्रक्रिया का अंग बनता है।

सामाजिक संवेदन का प्रभाव शैली पर पड़ता है। आधुनिक काव्य-प्रक्रिया पर भी यह प्रभाव है ऐसा मैं मानता हूँ। अद्यतन प्रवृत्ति उसमें है कि नहीं, कह नहीं सकता। जिनका प्रभाव हम सब पर होता है उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया लेखक पर, कवि पर भी होती है । वह प्रतिक्रिया न केवल मेरी कविता बल्कि नयी काव्यप्रक्रिया पर भी है।

शैली आदि की बात छोड़ दीजिए। साधारण तौर पर मेरे मन में यदि किसी बात की प्रतिक्रिया होती है तो क्षण-दो-क्षण के लिए होती बल्कि वह परिस्थिति काफी देर तक बनी रहती है, एक विशेष प्रकार का परिवेश बना रहता है। मैं काफी दिनों तक चिन्तन एवं संवेदनात्मक स्थिति में डूबा रहता हूँ। उदाहरण के तौर पर गत वर्ष मेरी एक पुस्तक जब्त हो गयी। तत्काल कोई गहरी प्रतिक्रिया नहीं हुई। मुझ पर तुरन्त कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती और होती भी है तो काव्य-रूप में नहीं और यदि मैं उसे काव्य-रूप में प्रगट करूँ तो असफल हो जाऊँगा। पुस्तक जब्त होने की प्रक्रिया अभी कुछ दिन पूर्व अकस्मात हुई और कविता की कुछ पंक्तियाँ बनी –

जल रही है लाइब्रेरी
पार्सिपालिस की
मैंने सिर्फ नालिश की
मैंने सिर्फ नालिश की
अँधेरी जिस अदालत में…

उक्त कविता अधूरी है। अभी अधूरी है बन जायेगी तो काव्य के पूरे पहलू सामने आयेंगे। पुनः लिखने पर सारी सुसुप्त भावनाएँ जाग्रत हो जाती हैं। जब कभी भूल जाता हूँ तो कविता अधूरी रह जाती है। उसी तरह जब कभी कोई अधूरी कविता छः महीने-साल भर में उठाता हूँ तो सूत्र मिल जाता है और पूरा स्ट्रक्चर बन जाता है । कविता के पूर्ण हो जाने पर पूर्ण शान्ति मिलती है।

लेकिन जब तक यह विश्वास नहीं हो जाता कि जो कुछ मुझे कहना था वह कविता में कह सका हूँ तब तक शान्ति नहीं मिलती। यही कारण है कि मेरी बहुत-सी कविताएं प्रकाशित नहीं हुई। बहुत-सी रचनाएं अधूरी पड़ी हैं। जिन्हें जानता हूँ कि व्यर्थ हैं उन्हें खत्म करता जाता हूँ।

मानव-मन या मानव-मूल्य पर चोट पहुंचानेवाली कोई बात होती है तो संवेदनशील चिन्तन मन-ही-मन चलता रहता है । बिम्ब रूप पूरा कैसे होगा, कह नहीं सकता पर डूब जाऊँ तो शाखा-प्रशाखा अपने आप निकलती जाती है और पूरी बात, पूरा चित्र आ जाता है, कहाँ तक प्रभावोत्पादक है – मैं नहीं जानता। इस सम्बन्ध में मेरी स्थिति बहुत दुविधाजनक है क्योंकि मैं कवि के साथ-ही-साथ आलोचक भी हूँ और जो कवि आलोचक भी होता है उसकी ऐसी की तैसी हो जाती है।

कुछ कमजोरियाँ भी हैं, कभी-कभी लगता है यह कमजोरी नहीं है। वस्तुतः मैं बिना चित्र प्रस्तुत किये, लिखता नहीं। यदि लगता है कि मेरा चित्र यथार्थ नहीं है तो नहीं लिखता। कोई भी विचार यदि अभिभूत कर देता है तभी ठीक से लिख पाता हूँ।

मैं कविता में लय को आवश्यक मानता हूँ। इससे कुछ-न-कुछ नियन्त्रण रहता है। कविता में विन्यास बड़ी बात है, बिम्ब से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है, विन्यास कथ्य शृंखलाबद्ध रूप से आना चाहिए। विन्यास तब तक ठीक नहीं होगा जब तक शृंखला न हो । कवि-कर्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विन्यास से अंकुश रहता है। भाव इधर-उधर भटकते नहीं। अंकुश इसलिए जरूरी है कि सही-सही बिम्बों को वाँधकर रखता है। कविता पूरी हो जाने के बाद विन्यास किया जा सकता है। मेरा यह अपना ख़याल है। मैं तो उसे एक स्तर से देखता हूँ। विन्यास का वास्तविक स्वरूप सामने सुसुप्त अवस्था से जाग्रत अवस्था में आने पर आता है। मेरी बहुत-सी कविताएँ मुझे अधूरी लगती हैं । ढूंढ़ता हूँ तो लगता है कोई बात और थी जो इसमें नहीं है, इसी प्रक्रिया को कुछ आलोचकों ने कृत्रिमता बतायी है, मैं इस आरोप को नहीं मानता। तत्त्वगत, आकारगत संवेदना आ जाय तभी कविता पूर्ण होती है।

[जबलपुर समाचार, 5 जनवरी 1964 में प्रकाशित। नवलेखन हिन्दी साहित्य ‘संगम’ द्वारा 17 दिसम्बर 1963 को आयोजित परिसंवाद गोष्ठी में दिया गया वक्तव्य]

गजानन माधव 'मुक्तिबोध'

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (1917 - 1964) की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है. हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी. उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है.

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (1917 - 1964) की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है. हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी. उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है.

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