1. रसोईघर माँ के हाथ जब भी मेरे कपड़े पर पड़ते उनमें से आटे, हल्दी और खड़े मसालों की ख़ुशबू आने लगती मैंने उसे तेईस सालों से रसोईघर के आस-पास ही देखा है कभी दाल में छौंक लगाते तो कभी पिता के लिए चाय बनाते बिना बताए रसोई में किसी और का जाना माँ को नहीं सुहाता ना ही सलीके से रखे गए उन समानों को एक अनजान छुअन के भय से बिना छुए भी गिर जाते हैं डिब्बे जब तक कोई रसोई में होता वह सबकुछ एकटक निहारती रहती जैसे सामान नहीं उसके स्पर्श से पोषित बच्चे हों बनारस से जब इलाहाबाद गया तब साथ कुछ नहीं था माँ के हाथ में लगी हल्दी सफ़ेद शर्ट पर मेरे साथ आई थी शहर से दूर एक अनजान शहर में मुझे घर से ज़्यादा रसोई घर की याद आती उन पकवानों की जिन्हें खुद बनाने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाऊंगा बना भी पाया तो वह इंसान पास नहीं होगा जिसे होना चाहिए था गलतियाँ गिनाने को हमेशा ये डर बना रहता कि क्या मैं भी कभी मसालों और अनाजों से माँ की तरह सलीके से पेश आने का सलीका सीख पाऊंगा मैं जब भी रसोई में जाता माँ की स्मृति साथ होती हाथ से बनी पहली रोटी के स्वाद के जैसे ! 2. मानचित्र का अधूरापन जब तुम्हें देखते हुये सोचने लगता था कि तुम्हारी कमर की दाहिनी ओर ये कैसी रेखाएँ खींची गई हैं किस देश का मानचित्र बना रहा था ईश्वर? मैं रेखा-विद्या से अपरिचित रहा जीवनपर्यंत तुम्हारे प्रेम ने मुझे कवि से जिज्ञासु शिशु बना दिया था जिसे स्मरण होने लगे थे नदियों, झीलों और पर्वतों के नाम एक के बाद एक चुम्बनों की गणना कर पाना इतना कठिन था कि हर बार शुरू से शुरू करना पड़ता है सबकुछ जैसे जान बूझ कर किया जा रहा कोई अक्षम्य अपराध हो कितना कठिन हो जाता है सांस लेना जब कण्ठ का पानी सूखता चला जाता है सब समाप्त होने के बाद देखता हूँ कि कुछ अपरिचित क्षैतिज रेखाओं ने मेरी सादी देह पर जन्म ले लिया है लगता है हम दोनों किसी अज्ञात देश के दो अधूरे मानचित्र बन गए हैं 3. अवगुणों से भरा हुआ अनेक अवगुणों से भरा मैं तुमसे मिला तुम्हारे प्रेम से गुणी बना तुम्हारे स्पर्श ने सिखलाया फूल के टूटने पर पौधे को पीड़ा होती है किसी का नाम पुकारो तो ऐसे पुकारो कि तुम्हारे जाने के बाद भी तुम्हारी पुकार बची रहे इतना कुछ कहाँ पता होता है प्रेम में पड़े लड़के को उसे फुर्सत कहाँ होती है लड़कपन से जब-जब तुम मिली एक लड़का उम्र से पहले बड़ा होता चला गया किसी के दूर जाने का क्षण जब उसके पास रहने से अधिक लम्बा होता है हम उसके दूर जाने को जीने लगते हैं! 4. लौटना मैं तुम्हें वैसे ही देखता हूँ जैसे किसी पिंजरे में कैद कबूतर देखता है आसमान में उड़ते पंछियों का झुण्ड हमारा प्रेम हवा में तैर रहा था जबकि हमें ज़मीन पर रहना चाहिए था एक दूसरे का हाथ पकड़े जैसे-जैसे साँझ हुई झुण्ड एक-एक कर के आँखों से ओझल होते चले गये बच गया तो मैं तुम्हें पुनः देखने की प्रार्थना में पंख फड़फड़ाता हुआ उस पिंजरे में हमें पता नहीं होता जो गये थे पिछली साँझ अगली सुबह वही लौटकर आएंगे या कोई और एक समय के बाद हम इंसान के लौटने से ज़्यादा उस स्मृति के लौटने की कल्पना करते हैं जिसको हम उस इंसान के साथ जी चुके होते हैं!

सूरज सरस्वती
सूरज सरस्वती हिंदी कविता के उभरते हुए नाम हैं. आप इन दिनों इलाहबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से मीडिया स्टडीज में स्नातक कर रहे हैं. आपसे 01suraj.maac@gmail.com पे बात की जा सकती है.