नाचती हुई स्त्री घूमती हुई पृथ्वी है
जिसके पैरों में बँधे हैं दिन और रात
जिसके हाव-भाव और मुद्राओं के साथ बदलते हैं मौसम
पृथ्वी का केंद्रबिंदु है बैली डांस करती स्त्री की नाभि
एक साथ नज़र आते हैं उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव पोल डांस करती स्त्री में
कंटेम्पररी के लिए बाँहें फैलाकर संगीत के साथ बहती स्त्री हवा-सी लगेगी तुम्हें
हिपहॉप करती बिजली-सी स्त्री लॉक कर सकती है संसार की तमाम गतिविधियाँ अपनी पॉपिंग से
प्रेम में डूबी कालिदास की नायिका है सालसा करती स्त्री
ग़ौर से देखना प्रकृति को स्त्री देह में शास्त्रीय नृत्य करते हुए
सत्व रजस् और तमस का सुन्दर संतुलन है वह
गिरते हुए पल्लू को भूलकर
ढ़ोलक की थाप में मग्न लोकगीतों पर झूमकर नाचती स्त्री के भीतर पूरे वेग से बह रही होती है
सारी लोक-लाज बहा ले जाने को आतुर एक नदी
एक आँख दबाकर सीटीमार बॉलीवुड ठुमके लगाती स्त्री महाकाली प्रतीत होती है मुझे
समाज की छाती पर पैर रख जीभ चिढ़ाकर ताण्डव करती महाकाली
आश्चर्य है व्याकरण की इस सुन्दरतम क्रिया के सर्वश्रेष्ठ कर्ता की प्रतिमा गढ़ते हुए उन्हें शिव याद रहते हैं शिवा नहीं
जबकि मुझे विश्वास है अर्द्धनारीश्वर की आधी नारी देह भी ताण्डव में उतनी ही निपुण होगी
जितनी बाक़ी आधी पुरुष देह।

पायल भारद्वाज
पायल भारद्वाज बुलंदशहर, उत्तरप्रदेश से हैं। आपकी रचनाएँ ही आपकी पहचान हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पर देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे payalbhardwajsharma1987@gmail.com पे बात की जा सकती है।