मन बहुत सोचता है

1 min read

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?
शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए!
नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,
खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो —
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, न हो,
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए!

अज्ञेय

सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ (07/03/1911 – 04/04/1987) को कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित निबंधकार, संपादक और अध्यापक के रूप में जाना जाता है. आप ‘प्रयोगवाद’ एवं ‘नयी कविता’ को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं. आपको 1964 में साहित्य अकादमी और 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.

सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ (07/03/1911 – 04/04/1987) को कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित निबंधकार, संपादक और अध्यापक के रूप में जाना जाता है. आप ‘प्रयोगवाद’ एवं ‘नयी कविता’ को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं. आपको 1964 में साहित्य अकादमी और 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.

नवीनतम

मेरे मन का ख़याल

कितना ख़याल रखा है मैंने अपनी देह का सजती-सँवरती हूँ कहीं मोटी न हो जाऊँ खाती

तब भी प्यार किया

मेरे बालों में रूसियाँ थीं तब भी उसने मुझे प्यार किया मेरी काँखों से आ रही

फूल झरे

फूल झरे जोगिन के द्वार हरी-हरी अँजुरी में भर-भर के प्रीत नई रात करे चाँद की

पाप

पाप करना पाप नहीं पाप की बात करना पाप है पाप करने वाले नहीं डरते पाप

तुमने छोड़ा शहर

तुम ने छोड़ा शहर धूप दुबली हुई पीलिया हो गया है अमलतास को बीच में जो