मुझे तुम्हारा होना प्रिय है
जितने अपने दौर के नग़्मे
रम की बहक
भोर की नींद
ठिठुरते जाड़े में गर्माते अलाव
और ज़बान पर घुल चुके खजूरी गुड़ का स्वाद।
एक रोज़ अचानक
जो गूँगी हो जाएँ सारी धुनें
गुसलखाने में गुनगुनाते हुए दरकने लगे आवाज़
बन्द हो जाएँ तमाम मयख़ाने
उड़ जाए आँखों से सुबह की नींद
बर्फ़ीली सर्दियों में दूर तक कहीं आग न हो
और खजूरी गुड़ में उतर आए कसैलापन।
जब मेरी पसंद का कहीं कुछ बाक़ी न रहे
तो भी तुम रहना
चाहे चुप हो जाएँ सारे गीत
लग जाएँ ताले सब मयख़ानों में
आँखों में पड़ी रहे हमेशा को जाग
बुझ जाएँ एक साथ सब दहकते अलाव
या खजूरी गुड़ खो बैठे अपना स्वाद
मगर तुम रहना।
तुम रहना कि सर्दियां फिर आएँगी
ज़बान को चाहिए होगी
तुम्हारे एक बोसे की मिठास
तुम रहना
कि आँखों में चमक और हँसी में ख़नक को
तुम लाज़िम हो
तुम रहना क्योंकि मुझे लिखने हैं
कभी न बूढ़े होने वाले किस्से
और न मरने वाली कुछ कविताएँ।

विजयश्री तनवीर
विजयश्री तनवीर ग़ाज़ियाबाद, दिल्ली से हैं। आपकी दो कृतियाँ ‘तपती रेत पर’ और ‘अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार’ इन दिनों अपने पाठकों के बीच है। आपसे vijayshriahmed@gmail.com पे बात की जा सकती है।