जीवन में रंगों के चयन असीमित होने चाहिए
उससे भी अधिक होना चाहिए जीवन का विस्तार
जिन्होंने माना ग्रे हो जाना है अंततः सभी रंगों को
उन्होंने छला सभी को और दृष्टि कर दी कुंद
मेघ वैसे ही आते रहे, बरसते रहे अनवरत
तितलियों ने ठीक सही समय पर किया कायांतरण
मधुमक्खियों ने खिलाए पत्थरों पर फूल
नन्हे पतंगों ने भी नाप डाली मीलों धरती
सुरख़ाब ने इस साल भी डाला है झील पर डेरा
लेकिन जो हो गए हैं ठूँठ उन्होंने स्थगित कर दिया बसंत
जिन्होंने देखा नहीं फूलों को कभी खिलते
उन्होंने किया इत्र का कारोबार
जिन्होंने सुना नहीं घास का मद्धम संगीत
उन्हीं संगीत विशारदों ने छेड़ रखा है राग दरबारी
जो दर्पण में नहीं देख पाते ख़ुद को
वो जगा रहे हैं लोगों की तीसरी नेत्र
ऐसे समय में रंग बांटने वालों को
बढ़ाना पड़ेगा अपना व्यवसाय
इस बाजार की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में
बिछानी होगी अपनी प्रकृतिस्थ आत्मा और देह
ठूंठों में भले न खिले फूल या आए सुगंध
लेकिन अपनी संगत से उनमें चढ़ा दी जाए एक हरी परत
और तख़्ते बनाकर लिख दिया जाए
प्रकृतिः रक्षति रक्षितः
या बसंत आगमन की सूचना
धरती के कायांतरण के लिए अब
हम रेंगने वाले कीड़ों को
अपनी खोल में छिपे पतंगों को
समय रहते तितली में बदल जाने चाहिए!
(तितली के पंख फड़फड़ाने से भी तूफ़ान आते हैं)
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संजय पयासी
संजय पयासी मूलतः मध्यप्रदेश से हैं। आपकी कविताएँ ही आपकी पहचान हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में भी आपका योगदान उल्लेखनीय है। आपसे sanjaysailaani@gmail.com पे बात की जा सकती है।