हमारी रीढ़ मुड़ चुकी है
“मैं” के बोझ से
खड़े होने की कोशिश में
औंधे मुंह गिर जाएंगे,
खड़े होने की जगह पर
खड़ा होना ही मनुष्य होना है।
हमने मनुष्यता की परिभाषा चबाई है।
सबकी अपनी-अपनी मनुष्यता है
और अपना-अपना स्वाद है।
जिसने भी मुट्ठी बांधकर हाथ हवा में लहराया
उसपर हजार रंगों की मनुष्यताऍं थूकी गईं।
कोई तो है जो
सभी रंगों को मिलाकर इंद्रधनुष बनाएगा।
यह हमारे मरने की रेखा है
और हमारे उठ खड़े होने की जिद्द-ओ-जहद।

रुपेश चौरसिया
रुपेश खगड़िया, बिहार से हैं। आप साहित्य की नयी और मुखर आवाज़ों में से एक हैं। आपसे chaurasierupesh123@gmail.com पे बात की जा सकती है.
