मेरे रब की मुझ पर इनायत हुई

मेरे रब की मुझ पर इनायत हुई कहूँ भी तो कैसे इबादत हुई हक़ीक़त हुई जैसे मुझ पर अयाँ अलम बन गया है ख़ुदा की जुबां मुख़ातिब है बंदे से परवरदिगार तू

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इस बस्ती के इक कूचे में

इस बस्ती के इक कूचे में इक ‘इंशा’ नाम का दीवाना इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना उस नार में ऐसा रूप न था जिस रूप

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मेरी उमरा बीती जाए

सईउ नी मेरे गल लग रोवो नी मेरी उमरा बीती जाए उमरा दा रंग कच्चा पीला निस दिन फिट्टदा जाए सईउ नी मेरे गल लग्ग रोवो नी मेरी उमर बीती जाए ।

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रात सुनसान है

रात सुनसान है तारीक़ है दिल का आंगन आसमां पर कोई तारा न जमीं पर जुगनू टिमटिमाते हैं मेरी तरसी हुई आँखों में कुछ दीये तुम जिन्हें देखोगे तो कहोगे : आंसू

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एक सहेली की नसीहत

तुम अकेली नहीं हो सहेली जिसे अपने वीरान घर को सजाना था और एक शायर के लफ़्ज़ों को सच मानकर उसकी पूजा में दिन काटने थे तुमसे पहले भी ऐसा ही इक

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बर्गे गुल के नाम

एक लड़की, उदास लड़की, बला की उदास लड़की! .. जिसके नाज़ुक होंटों से गिर पड़ती है कोई रूमानी नज़्म, बोलते हुए, एक नज़्म , रूमानी नज़्म, बला की रूमानी नज़्म! … जिसकी

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दोस्ती का हाथ

गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलीं उदास तुम भी हो यारो उदास हम भी हैं फ़क़त तुम्हीं को नहीं रंज-ए-चाक-दामानी कि सच कहें तो दरीदा-लिबास हम भी हैं तुम्हारे बाम की

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मुर्शिद प्लीज़ आज मुझे वक़्त दीजिये

मुर्शिद प्लीज़ आज मुझे वक़्त दीजिये मुर्शिद मैं आज आप को दुखड़े सुनाऊँगा मुर्शिद हमारे साथ बड़ा ज़ुल्म हो गया मुर्शिद हमारे देश में इक जंग छिड़ गयी मुर्शिद सभी शरीफ़ शराफ़त

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जिसके गालों में टिप्पे पड़ते हैं

ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दाँ अपना (ग़ालिब) ‘ज़िक्र परीवश का-’ जिसके गालों में टिप्पे पड़ते हैं जिसके दाँतों में बर्क़ रखी है

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