भली सी एक शक्ल थी

भले दिनों की बात है भली सी एक शक्ल थी न ये कि हुस्न-ए-ताम हो न देखने में आम सी न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे मगर वो

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हमेशा देर कर देता हूँ

हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में ज़रूरी बात कहनी हो कोई वा’दा निभाना हो उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो हमेशा देर कर देता हूँ मैं

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आख़िरी दिन की तलाश

ख़ुदा ने क़ुरआन में कहा है कि लोगों मैं ने तुम्हारी ख़ातिर फ़लक बनाया फ़लक को तारों से चाँद सूरज से जगमगाया कि लोगों मैं ने तुम्हारी ख़ातिर ज़मीं बनाई ज़मीं के

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दाएरा

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ बार-हा तोड़ चुका हूँ जिन को उन्हीं दीवारों से टकराता हूँ रोज़ बसते हैं कई शहर नए रोज़ धरती

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फ़र्ज़ करो

फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़साने  हों फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता जी से जोड़ सुनाई हो फ़र्ज़ करो अभी

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अलाव

रात-भर सर्द हवा चलती रही रात-भर हम ने अलाव तापा मैं ने माज़ी से कई ख़ुश्क सी शाख़ें काटीं तुम ने भी गुज़रे हुए लम्हों के पत्ते तोड़े मैं ने जेबों से

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तन्हाई

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं राह-रौ होगा कहीं और चला जाएगा ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़ सो गई रास्ता तक तक

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