1.
फिर नफ़रतों ने इश्क़ की मीनार तोड़ दी
दरवाज़ा जब न टूटा तो दीवार तोड़ दी
फूलों से उसको प्यार है तोड़ा नहीं उन्हें
उसने कली मेरे लिए इक बार तोड़ दी
फिर इक ज़ुबाँ से बह रहे थे किर्चियों से लफ़्ज़
ख़ामोशियों ने शीशे की वो धार तोड़ दी
औलाद से नहीं है मुहब्बत किसे बताओ
किसने ये डाल पेड़ की फलदार तोड़ दी
मुमकिन है कुछ भी, साथ मिले अपनों का अगर
चूहों ने मिल के शेर की इक ग़ार तोड़ दी
उनसे मेरा यक़ीन कभी टूटता नहीं
लेकिन उन्होंने करके ही हद पार तोड़ दी
ख़ुद अपने फ़ैसले से वही मुतमइन नहीं
मुंसिफ ने आगे बढ़ के तभी दार तोड़ दी
2.
क़शमक़श के किसी जाले में न पाले मुझको
उसको कह दे कि ख़यालों से निकाले मुझको
मुझसे हो जाएगा अब तुझको निभाना मुश्किल
ज़िन्दगी तेरे हवाले हूँ निभा ले मुझको
एक मुद्दत से मुलाक़ात नहीं है ख़ुद से
इल्तिज़ा तुझसे है कर मेरे हवाले मुझको
मेरे कमरे में बनी कांच की अलमारी से
ताकते रहते हैं हसरत से रिसाले मुझको
साथ में रहती हूँ मशअल की हिमायत के लिए
देखते क्यों हैं हिक़ारत से उजाले मुझको
छोड़ कर जाऊं कहाँ ख़ाके वतन तुझ को मैं
अपनी परतों के तले सब से छुपा ले मुझको
फिक्र में अपनी मुझे कोई तो शामिल कर ले
अपने अशआर के सांचे में ही ढाले मुझको
3.
अंजान इक जहां में उतारा गया मुझे
पहना के सुर्ख जोड़ा सँवारा गया मुझे
आँखों को मूंद कर मैं गुज़रती चली गयी
जिन रास्तों से जैसे गुज़ारा गया मुझे
डरने लगा था मुझसे ही मेरा वज़ूद तब
जब एक शय की तरह निहारा गया मुझे
आया क़रार दिल को न ज़ुल्मो सितम से तो
अल्फ़ाज़ के शरर से भी मारा गया मुझे
बाहर निकलना चाहा कभी दायरे से जो
क्या क्या न कह के फिर तो पुकारा गया मुझे
जब उलझनों के हाल से घबरा गयी थी मैं
माज़ी ही मेरा दे के सहारा गया मुझे
लेता रहा है इम्तिहाँ हर दौर ही मेरा
त्यागी गई कहीं, कभी हारा गया मुझे
आने को हैं हज़ार अभी और मुश्किलें
ये वक़्त आज कर के इशारा गया मुझे
4.
लिपटे हैं मुझ से यादों के कुछ तार, और मैं
ठंडी हवाएं सुब्ह की, अख़बार, और मैं
जगते रहे हैं साथ ही अक्सर तमाम शब
मेरी ग़ज़ल के कुछ नए अशआर, और मैं
क्या जाने अब कहां मिलें, कितने दिनों के बाद
लग जाऊं क्या गले तेरे, इक बार और मैं
अपनी लिखी कहानी को ही जी रही हूँ अब
इक जैसा ही तो है मेरा किरदार, और मैं
पहले तो ख़ूब तलवों को छाले अता हुए
अब हम सफ़र हैं रास्ता पुरखार, और मैं
ग़म था न कोई इश्क़ो मुहब्बत की फ़िक्र थी
जीते थे ज़िन्दगी को मेरे यार, और मैं
अक्सर ही करते रहते हैं ख़ामोश गुफ़्तगू
लग कर गले से आज भी दीवार, और मैं।

ग़ज़ाला तबस्सुम
ग़ज़ाला तबस्सुम झारखंड से हैं और देश की मानी हुई शायराओं में से एक हैं। आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे talk2tabassum@gmail.com पे बात की जा सकती है।